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बुधवार, 2 जून 2010

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

इस समय में

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

■ राज वाल्मीकि


दोस्तो, हम इक्कीसवीं सदी के इस पहले दशक में जी रहे हैं। इस समय में दुनियां ‘ग्लोबल विलेज’ हो गई है। अब हम विज्ञान प्रौद्योगिकी जैसे टी.वी., कम्प्यूटर, इन्टरनेट ,मोबाईल के माध्यम से पूरी दुनियां को देख-सुन सकते हैं। सैटेलाइट ने सात समन्दर पार की दुनियां को भी हमारे सामने ला दिया है और हमारे देश को दुनियां के सामने पेश कर दिया है। यह देख कर हमें बहुत शर्मिन्दगी महसूस होती है कि जब दुनियां समानता, स्वतन्त्रता एवं भाईचारे-बंधुत्व की बात कर रही है। हमारा देश साम्प्रदायिकता एवं जातिवाद के भेदभाव में जकड़ा हुआ है। आज के इस आधुनिक युग में भी हम वैदिक सम्यता को ढोते आ रहे हैं। हम किसी व्यक्ति के नाम से संतुष्ट नहीं होते। हम उसकी जाति जानना चाहते हैं। जाति जानने पर ही हम उसकी हैसियत तय करते हैं। और फिर सोचते हैं कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाए। मुकेश मानस के शब्दों में कहूं तो ‘उसने मेरा नाम नहीं पूछा, मेरा काम नहीं पूछा, सिर्फ पूछी एक बात, क्या है मेरी जात? मैंने कहा-इन्सान, उसके होठों पर थी कुटिल मुस्कान’। यह कुटिल मुस्कान इसलिए थी क्योंकि तथाकथित ऊंची जाति वाले ‘इन्सान’ कहने पर समझ जाते हैं कि यह एस.सी. है। चूहड़ा-चमार या अन्य छोटी जाति का है। क्योंकि ऊंची जाति वाले अपनी जाति शान से बताते हैं। और नीची जाति वाले उसे छुपाते हैं। मैंने एक संबंधी से पूछा कि वे जाति क्यों छिपाते हैं?(वे डी.डी.ए.-दिल्ली विकास प्राधिकरण में अधिकारी हैं।) तो उन्होंने प्रति प्रश्न किया-छुपायें नहीं तो क्या करें? अगर हम बता दें कि वाल्मीकि हैं तो हमारे सहकर्मी - ये सोचकर कि चूहड़ा है - ‘आप’ से ‘तू’ पर उतर आता है। पढ़-लिख कर भी इस तरह के अपमानसूचक शब्द सुनने से तो अच्छा है कि अपनी जात छुपाकर रहें।’

तो देखा आपने, किस तरह यहां जाति जानकर ही व्यक्ति की हैसियत तय की जाती है!

और यह निर्णय लिया जाता है कि उसके साथ कैसे व्यवहार किया जाए। जबकि देश के संविधान में सभी नागरिक समान हैं। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने इसीलिए कहा था कि संविधान से राजनैतिक समानता तो मिल जाएगी किन्तु सामाजिक एवं आर्थिक समानता बहुत कठिन कार्य है। इसीलिए उन्होंने हम दलितों को तीन मूल मंत्र दिये थे- ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो’! उन्होनें गौतम बुद्ध का सूत्र वाक्य ‘अत्त दीपो भव’ भी दिया कि तुम दूसरों के भरोसे मत रहो-अपना दीपक स्वयं बनो। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा पर विशेष महत्त्व देते हुए उसे ‘शेरनी का दूध’ कहा था। और बहुत सही कहा था। मैं समझता हूं कि हमारे आज के युवाओं (युवक एवं युवतियों) को उच्च शिक्षा तथा धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना-समझना, पढ़ना-लिखना परमावश्यक है। तभी तो वे जातिगत भेदभावों एवं रूढ़ियों की जंजीरे तोड़ सकेंगे।

एक ओर जहां जातिगत भेदभाव के ‘बैरियर्स’ हैं वहीं जाति आधारित कर्म हैं-यानी ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने हम दलितों के लिए नीच कर्म एवं गन्दे पेशे निर्धारित कर रखे हैं। दलितों में भी दलित कही जाने वाली वाल्मीकि जाति के लिए तो हाथों से मल-मूत्र उठाने एवं उन्हें सिर पर ढोने की व्यवस्था कर रखी है। यह देख कर हमारा सिर शर्म से झुक जाता है कि दुनियां भर में हम अपनी सभ्यता-संस्कृति के ढोल पीटते नहीं अघाते, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात करते हैं और अपने ही भाईयों को ऐसे अमानवीय कार्य करने को विवश करते हैं। पशुओं (जैसे गाय) के मल-मूत्र को पवित्र बताने वाले हम अपने ही जैसे इन्सानों (विशेषकर वाल्मीकियों) से घृणा करते हैं - उन्हें अछूत समझते हैं। उनके साथ खाने-पीने से परहेज करते हैं। उनके साथ रोटी-बेटी का रिश्ते करने की बात सोचते भी नहीं । क्योंकि वे पशुओं से भी गये-गुजरे हैं। और यदि दलित युवक किसी उच्च जाति की युवती से प्रेम करने उस से शादी करने की हिम्मत और हिमाकत करता है तो उसे दी जाती है - सजा-ए-मौत! सिर्फ इसलिए कि नीच जात के लड़के ने ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करने की हिम्मत कैसे की। जब कि आप और हम जानते हैं कि प्रेम जात-पांत के भेदभाव नहीं जानता। कहावत भी है कि प्रेम न जाने जात-कुजात।

कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दू समाज की सामाजिक संरचना ही जातिगत भेदभाव पर आधारित है। हिन्दू समाज में जाति बुनियादी ईकाई है। इसे तोड़े बिना मानवता की बात करना, सामाजिक समानता की बात करना बेमानी है। भारतीय समाज, विशेषकर हिन्दुओं के इस समाज रूपी तालाब का पानी सड़ चुका है। इसलिए इस में समानता, स्वतन्त्रता एवं भ्रातत्व के कमल नहीं खिल रहे हैं। इस ‘पानी’ को बदलने की आवश्यकता है। दुष्यन्त कुमार के शब्दो में कहें तो -

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं



मो. 9818482899

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