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मंगलवार, 22 जून 2010

कुएं के मेंढको तुमने अभी सागर नहीं देखा !

‘‘ ये शादी तो तुम्हें करनी ही होगी बबीता!’’ बेनीबाल जी कठोर स्वर में बोले।

‘‘ लेकिन पापा मैं अभी और पढ़ना चाहती हूं। बारहवीं में मेरी फर्स्ट डिवीजन आई है। एट्टी परसेन्ट (80») मार्क्स हैं। मुझे आसानी से कॉलेज में एडमीशन मिल जाएगा।’’



‘‘ मैं ये सब कुछ सुनना नहीं चाहता। अगर तुम्हारे ससुरालवाले पढ़ाना चाहें तो और पढ़ लिओ।’’ बेनीवाल जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा।

‘‘पापा आप समझने की कोशिश क्यों नहीं करते। फिर मुझे कहां चान्स मिलेगा? और फिर पापा जब मैं छोटी थी तो आप ही तो कहते थे कि मेरी बिटिया डॉक्टर बनेगी। अब मैं डॉक्टर बनना चाहती हूं तो मुझे क्यों रोक रहे हैं?’’

मिसेज बेनीवाल भी बोल पड़ीं - ‘‘ जब ये इतनी जिद कर रही है तो इसका एडमीशन क्यों नहीं करा देते कॉलेज में आखिर पढ़ने की ही तो कह रही है।’’



‘‘ तुम चुप रहो। तुम्हें कुछ पता नहीं है। आजकल जमाना कितना खराब है। जवान लड़की को कॉलेज में कैसे भेज दें। ’’ बेनीवाल जी पत्नी पर बिफर पड़े - ‘‘ तुम्हारी तो किस्मत अच्छी थी जो तुम अनपढ़ को मैं दसवीं पास मिल गया था। आजकल अपनी बिरादरी में पढ़े-लिखे लड़के कहां मिलते हैं। राहुल बारहवीं पढ़कर पढ़ाई छोड़ कर अपने पापा की सूअर के मीट की दुकान चला रहा है। उसके पापा एम.सी.डी. में सफाई कर्मचारी हैं। अच्छा खानदान है। खाते-पीते लोग हैं। बबीता के लिए इससे अच्छा रिश्ता नहीं मिल सकता। और फिर बबीता बारहवीं तक तो पढ़ गई। अपने खानदान में सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की है। ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की को अपनी बिरादरी में लड़के कहां मिलते हैं। बबीता को मैं किसी गैर जात में ब्याह कर खानदान की नाक तो कटवानी नहीं है। और फिर लड़कियों को करना ही क्या होता है। कितनी भी पढ़ जावें पर सिर्फ बच्चे और चूल्हा-चौकी ही संभालना है। हम मर्द अपनी औरतों से नौकरानी तो करवायेंगे नहीं। हमारी भी कोई इज्जत है। औरतों से काम करवाकर बिरादरी में अपनी मजाक कोई नहीं बनबाना चाहेगा। फिर लड़कियों को पढ़ाने से क्या फायदा?...’’ जब मैं उनके घर पहुंचा तो श्री के.पी. बेनीवाल जी, उनकी पत्नी श्रीमती बाला देवी और बेटी बबीता के बीच इस तरह का वार्तालाप चल रहा था।



बेनीवाल जी मेरे पड़ोसी हैं। पुराने समय के मेट्रिक पास हैं और डी.डी.ए. में कार्यरत हैं। उनके परिवार में छह सदस्य हैं। बबीता के अलावा उनकी दो छोटी बेटियां विनीता और संगीता तथा सबसे छोटा पुत्रा अश्विनी है जिसे हम प्यार से रिंकू कहते हैं। यों तो बेनीवाल जी सभी बच्चों को पढ़ा रहे हैं। पर वे बच्चों को ज्यादा पढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका मानना है कि लड़कियों को दसवीं, बारहवीं से ज्यादा पढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका मानना है कि लड़कियों को दसवीं-बारहवीं तक पढ़ा कर उनकी शादी कर देनी चाहिए। और लड़कों को भी दसवीं-बारहवीं तक पढ़ाकर उन्हें किसी रोजगार से लगा देना चाहिए। ज्यादा पढ़ाने की बात पर वे कहते हैं - ‘‘ अरे साहब, आजकल हजारों-लाखों पढ़े-लिखे लोग बेरोजगार घूम रहे हैं। उन्हें कहीं नौकरी तो मिलती नहीं। फिर हम अपने बच्चों को ज्यादा पढ़ा-लिखा कर क्या करें।’’ बेनीवाल जी का तर्क है कि पढ़ाई-लिखाई सिर्फ नौकरी करने के लिए होती है और अगर नौकरी न मिले तो फिर पढ़ाई का क्या फायदा? बेनीवाल जी अपनी विचारधारा में किसी प्रकार का फेरबदल स्वीकार नहीं करते। अतः उन्हें कुछ समझाने का मतलब है कि भैंस के आगे बीन बजाना।



किन्तु दोस्त, ये सोच सिर्फ एक बेनीवाल जी की नहीं है बल्कि वाल्मीकि समाज के हजारों-लाखों लोगों की है। लेकिन हमें यह सोचना चाहिए कि अधिकांश वाल्मीकियों की ऐसी सोच क्यों है? यदि हम इस मानसिकता का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि इसके पीछे इनकी शैक्षिक स्थिति, परंपरागत जीवन, घर का माहौल, वाल्मीकि समाज, बस्ती का वातावरण आदि हैं।



इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में बेरोजगारी भी एक समस्या है। किन्तु इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि अपने बच्चों को उच्च शिक्षित न किया जाए। बेरोजगारी का कारण हमारे देश में बढ़ती जनसंख्या है। हमारे देश की अधिकांश जनता अशिक्षित है। ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’ का सूत्रा उसके लिए बेमानी है। कहीं बच्चे भगवान की देन हैं तो कहीं यह बात मायने रखती है कि जितने ज्यादा बच्चे होंगे उतने जयादा कमाने वाले हाथ होंगे। जहां तक बेरोजगारी की बात है वहां भी हकीकत कुछ और है। अधिकांश शिक्षित युवा सही अर्थों में ‘शिक्षित’ नहीं हैं। अर्थात् वे नाम के पढ़े-लिखे तो हैं किन्तु उनमें वह ‘टैलेन्ट’ नहीं है, हार्डवर्किंग स्पिरिट नहीं है, काम देने वाले को इन्फ्लुएन्स और कन्विंस करने का कॉन्फीडेन्स नहीं है। फलतः वे रोजगार पाने में सफल नहीं हो पाते। कम्पटीशन के इस युग में उपरोक्त गुण होने जरूरी हो गये हैं। अन्यथा आज रोजगार के जितने ऑपशन्स हैं उतने पहले तो बिल्कुल नहीं थे। आज विभिन्न मल्टी नेशनल कम्पनियां भारत मंे बिजनेस कर रही हैं। कॉल सेन्टर और बीपीओज की बाढ़ आ गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे युवा सही अर्थों में रोजगार के ‘योग्य’ नहीं हैं जिनमें योग्यता है वे एक नौकरी छोड़कर दूसरी कर रहे हैं और दूसरी छोड़कर तीसरी। यानी उनके लिए रोजगार की कोई कमी नहीं है। कम्प्यूटर और इन्टरनेट के इस युग में युवाओं को फ्लुएन्ट इंगलिश स्पीकिंग, कम्प्यूटर की नॉलेज और एम.बी.ए. जैसा कोई डिप्लोमा हो तो उनके लिए रोजगार की कोई कमी नहीं है। पैसा भी इतना मिल रहा है कि जितना पहले एक साल में कमाते थे उतना एक महीने में कमा रहे हैं। पर क्या हमारे वाल्मीकि समाज में इस तरह के युवा हैं। यदि हैं तो कितने? उनकी संख्या उंगलियां पर गिनी जा सकती हैं।



अतः आज सर्वाधिक आवश्कता इस बात की है कि हम अपने बच्चों में एक तो लड़के-लड़कियों में कोई भी किसी भी प्रकार का भेदभाव न करें। उन्हें बराबर शिक्षा प्रदान करवायें। दूसरे उन्हें उच्च शिक्षा देने की व्यवस्था करें। ताकि हमारे समाज के युवा आई.ए.एस., आई.पी.एस., निजी कम्पनियों में सी.ई.ओ. आदि उच्च पदों पर काम करें और अपनी लाईफ स्टाईल को बिलकुल बदल कर अन्य समृद्ध समाज की तरह जीवन यापन करें।

दलितों के मसीहा बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इसलिए शिक्षा को सर्वाधिक वरीयता दी थी। उनके तीन मूल मंत्रा - ‘शिक्षित बनो। संगठित हो। संघर्ष करो।’ में शिक्षा सबसे पहले है।



रोजगार के क्षेत्रा में शिक्षा के साथ- साथ कम्प्यूटर-इन्टरनेट का ज्ञान अनिवार्य आवश्यकता बन गया है। अतः हमें अपने बच्चों को इसका ज्ञान अवश्य कराना चाहिए। रोजगार में सफलता के लिए तकनीकी योग्यता एक अनिवार्य शर्त है।



दूसरी ओर हम लोग पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था की पुरानी रूढ़ियों, अंधविश्वासों, कुप्रथाओं एवं परम्पराओं मं डूबे हुए हैं। एक तरह से हम सोए हुए हैं। हमें जागने की आवश्कता है। यदि हमने अपनी संकीर्ण मानसिकता को नहीं बदला, सीमित सोच को नहीं बदला तो हम समय के साथ नहीं चल पाएंगे। अतः इस समय में अपना दिमाग खुला रखना है, सोच व्यापक रखनी है। अभी वाल्मीकि समाज की स्थिति को देखकर किसी शायर की ये पंक्तियां याद आ रही हैं:



घरौंदे तुमने देखे होंगे लकिन घर नहीं देखा

हवा देखी है आंधी का मगर तेवर नहीं देखा

बड़ी हैं और भी चीजें जहां में तुम ये क्या जानो

कुएं के मेंढको तुमने कभी सागर नहीं देखा

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