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शुक्रवार, 11 जून 2010

चश्मा तनिक बदल कर देखो

                                            चश्मा तनिक बदल कर देखो


                                                                                       -राज वाल्मीकि



वर्ष 2011 की जनगणना में जाति को शामिल किया जाए या नहीं। इस बात पर लोग दो खेमों में बंटे नजर आ रहे हैं। एक समर्थन में दूसरे विरोध में। विरोधियों में अधिकांश सवर्ण जाति के लोग हैं। यह स्वाभिक ही है। इस पर बात मैं अट्ठाईस मई 2010 को ‘दुनिया मेरे आगे’ कॉलम के अन्तगर्त प्रेमपाल शर्मा द्वारा लिखित ‘जड़ता की जाति’ के सन्दर्भ में करना चाहूंगा। यद्यपि प्रेमपाल शर्मा एक अच्छे लेखक हैं। वे जाति के उच्च-निम्न क्रम में विशवास नहीं रखते - ऐसा अहसास कराते हैं। वे कहते हैं मेरे अन्दर ब्राह्मण का लेश मात्र भी नहीं है - सिर्फ नाम को छोड़कर। (उन्हें कहना चाहिए ब्राह्मण उपनाम को छोड़कर।) इस पर भी वे उलाहना देते हुए कहते हैं कि ‘इससे ज्यादा (उपनाम जोड़ने का क्रेज) तथाकथित क्रीमीलेअर पिछड़ों, दलितों में होगा।’ भाई प्रेमपाल, आप एक बुद्धिजीवी हैं, लेखक हैं। पर जाति की सच्चाई को इतने हलके में लेते हैं, आपकी इस सोच पर अफसोस ही किया जा सकता है। संदेह भी होता है कि आप जाति की सच्चाई सचमुच नहीं जानते या जानबूंझ कर अनजान बन रहे हैं। आपके ब्राह्मण कुल में पैदा होने (इत्तिफाक से ही सही) और मेरे दलित जाति (पढ़िए अछूत) के घर पैदा होने (इत्तिफाक से ही सही) क्या दोनो की स्थितियों में समानता है? शर्मा जी हम तथाकथित नीची जाति में पैदा होने वाले ही जानते हैं कि यह जाति का राक्षस किस तरह हमारे जीवन की खुशियों को लील जाता है। और किस तरह हमें दयनीय एवं अमानवीय जीवन जीने को विवश करता है। हमारे अन्दर कितनी ही योग्यता क्यों न हो (कुछ अपवादों को छोड़ दें तो) फिर भी हमारी जाति के कारण हमें सदियों से हमारे अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है, आज भी किया जाता है। तथाकथित ऊंची जाति वाले जब हम से हमारा नाम पूछते हैं (शहर में। क्योंकि गांव में जाति के आधार पर ही बस्तियां अलग-अलग होती हैं वहां जाति पूछने की जरुरत ही नहीं होती।) और हम सिर्फ अपना नाम बताते हैं उपनाम नहीं तो वे बड़े भोले बनकर यह भी पूछते हैं आपका पूरा नाम क्या है? यहां मैं अपने मित्र मुकेश मानस की कविता की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा, जो कि प्रासंगिक हैं - ‘उसने मेरा नाम नहीं पूछा, काम नहीं पूछा, पूछी सिर्फ एक बात, क्या है मेरी जात? मैंने कहा इन्सान उसके चेहरे पर थी कुटिल मुस्कान।’ इस कुटिल मुस्कान से बचने के लिए हम जाति छुपाते हैं मगर जाति का राक्षस हर जगह हमें कुचलने को तत्पर रहता है। शर्मा, तिवारी, मिश्रा, राजपूत, गुप्ता बड़ी सहजता से बल्कि कहिए फक्र से अपना उपनाम या जाति सूचक नाम बताते हैं। पर ये तो आप को भी पता होगा कि कितने भंगी चमार एवं अन्य तथाकथित नीची जाति के लोग इसी सहजता या फक्र से अपना उपनाम या जाति सूचक नाम बताते हैं? इनके पीछे उन्हें किस बात का डर होता है, ये आप भी भलीभांति जानते हैं। जब आम जैसे बुद्धिजीवी ब्राह्मण इस कड़वी सच्चाई से जानकर अनजान बने रहते हैं तो फिर आम ब्राह्मण व्यक्ति से क्या उम्मीद की जाए। असल डर यही है कि ये ‘नीच जाति’ व्यक्ति के पूरे व्यक्तित्व को ध्वस्त कर देती है। उसे जानवरों से भी बदतर बना देती है।



दूसरी बात आप कहते हैं कि ‘अस्पृशयता रूपी एक टांग अगर ठीक नहीं हो रही हो तो दूसरी भी टांग तोड़ डालें?’ शर्मा जी दूसरी टांग तोड़ने को आप से कौन कह रहा है। पर दलितों की अस्पृश्यता रूपी टांग किसकी देन है? इसे ठीक करने की क्या आपकी नीयत भी है? क्या उसे ठीक करने की आप जरुरत भी समझते हैं? उसे ठीक करने का क्या उपचार कर रहे हैं? आखिर टांगे तो दोनो ही स्वस्थ होनी चाहिए। क्योकि महत्व तो दोनो का बराबर है। पर यह बराबरी की बात आपके जेहन में आती ही कब है? यदि दलित बराबरी की कोशिश भी करे तो गौहाना, खैरलांजी और मिर्चपुर जैसे काण्ड हो जाते हैं।



तीसरी बात आपने कही है कि देश के संपादकों/डॉक्टरों/इंजीनियरों की जाति की गिनती करवाने वाले अवसरवादी हैं। शर्मा जी यदि आप ब्राह्मणवादी चश्में से देखेंगे तो बिल्कुल आपको ऐसा ही दिखेगा। लेकिन कभी आपने यह सच्चाई जानने की कोशिश की है कि संपादकों/डॉक्टरों/इंजीनियरों में अनुसूचित जाति के या अनुसूचित जनजाति के कितने प्रतिशत हैं। जाहिर है कि आपको ये मालूम है कि उनका प्रतिशत नगण्य है। उनकी ये स्थिति क्यों है? क्यों वहां दलित वर्ग के लोगों का प्रतिशत उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं है? क्यों उन्हें आज भी आरक्षण की जरुरत है? दरअसल इस जातिवादी समाज व्यवस्था ने दलितों को सदियों से गुलाम बनाकर रखा और व्यवस्था चाहती है कि ये हमेशा गुलामगीरी करते रहें। तथाकथित उच्च जातियों ने कभी उन्हें अपने बराबर या अपने जैसा इन्सान समझा ही नहीं। (यों अपवाद हर जगह हो सकते हैं।) उन्हें उनके बुनियादी हकों से महरूम रखा। परिणाम यह है कि आज एक व्यक्ति दुर्बल या अपाहिज (जिसे शर्मा जी अस्पृष्यता की टांग कहते हैं।) तो दूसरा स्वस्थ व तनदुरुस्त। हमारा संविधान जो हर नागरिक को बराबर का दर्जा देता है वह तो ऐसी व्यवस्था करेगा ही कि कमजोर/अपाहिज को आरक्षण की बैसाखी दे दी जाए ताकि उसे भी सहारा मिल सके। पर विडम्बना यह है कि उस पर भी स्वस्थ व्यक्ति को आपत्ति होती है।



आप कहते हैं कि ‘आदर्श स्थिति तो यह होती कि इक्कीसवीं सदी में जाति का कॉलम ही नहीं होता और न बाईसवीं सदी में धर्म होता।’ क्या जाति और धर्म जो कि हिन्दूवादी समाज व्यवस्था में एक दूसरे के पूरक हैं क्या इतने हलके हैं कि मात्र कॉलम हटा देने से जाति-धर्म मिट जाएंगे या जाति का जहर कम हो जाएगा? इस बारें में आप मार्क्स, लोहिया और जयप्रकाश की विचारधारा की बात करते हैं पर आपको भीमराव अम्बेडकर की आईडियोलोजी याद नहीं आती। आप जाति रूपी महावृक्ष के पत्तों को काटने की बात कर रहे हैं जबकि जरुरत है पूरे वृक्ष को जड़ से उखाड़ फैंकने की। इसके लिए जरूरी है कि देश के समसत संसाधनों खास कर आर्थिक संसाधनों पर जनसंख्या के अनुपात में सबका समानुपाती अधिकार हो। पर यथार्थ क्या है? यथार्थ यह है कि तथाकथित उच्च वर्ण के मुट्ठी भर लोगों ने देश के सम्पूर्ण संसाधनों पर कब्जा कर रखा है बाकी बहुसंख्यक लोग उनसे वंचित हैं। अतः मुद्दा यहां जाति की जड़ता का नहीं बल्कि जाति के जनतंत्र का है। हम इस कड़वी सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते आंखों पर हरा चश्मा चढ़ा लेने से सबकुछ हरा नहीं हो जाता। जरुरत है चश्मे को बदलने की¬-यर्थाथ को देखने की।

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