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बुधवार, 16 जून 2010

महंगाई: इस मर्ज की दवा क्या है?

                                                                                                                  -राज वाल्मीकि



आसमान छूती महंगाई से जहां आमजन में हाहाकार है। वहीं सरकार इसे काबू करने में लाचार है। इस बेकाबू महंगाई के कारण आमजन की हालत खस्ता हो रही है। स्थिति यह है कि नन्हे-मुन्नों के मुंह से दूध छिन रहा है। चीनी ने मन इतना कसैला कर दिया है कि घर आए व्यक्ति को आमतौर पर चाय पिलाना जैसे सामान्य शिष्टाचार के लिए भी सोचना पड़ रहा है। गरीबों का खाना कहे जाने वाली दाल-रोटी भी गरीब को मयस्सर नही हो पा रही है। महगाई का कहर थमने का नाम नहीं ले रहा है। सरकारी अधिकारी महंगाई बढ़ने का ठीकरा एक दूसरे के सिर फोड़ रहे हैं। पर आम आदमी की समस्या को गंभीरता से कोई नहीं ले रहा है। आम आदमी महंगाई की चक्की में पिस रहा है। महगाई ने गृहणियों का बजट बिगाड़ कर रख दिया है। एलपीजी जैसी घरेलू गैस के दाम एकदम से 100 रुपये बढ़ाना जैसी खबर ने आम आदमी की और झटका दे दिया है। अधिकारी एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं। कृषिमंत्री षरद पवार महंगाई को काबू करने के लिए अपना दायित्व निभाने की बजाय अपने पद के प्रतिकूल कितनी गैर जिम्मेदाराना बात कह रहे हैं कि ‘ मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं।’ कभी कह रहे हैं कि ‘प्रधानमंत्री भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।’ इसी प्रकार कभी जलवायु तो कभी राज्यों को जिम्मेदार बता रहे हैं। आमजन उन जैसे जिम्मेदार पद पर आसीन व्यक्ति से इस तरह के बयानों की उम्मीद कदापि नहीं करता। दुखद है कि उनके ऐसे बयानों से चीनी और दूध के दाम और बढ़ रहे हैं। जमाखोर इसका लाभ उठा रहे हैं। खाद्य सामग्री की कालाबाजारी बड़ रही है।



महंगाई का असर आम आदमी पर क्या पड़ रहा है। इसका एक उदाहरण देखिए। मेरे पड़ोस में रहने वाले एक व्यक्ति निजी कंपनी में पांच हजार रुपये महीने कमाता है। किराये पर रहता है। उसकी तीन बड़ी-बड़ी बेटियां हैं। महंगाई से त्रस्त उसने कहा - ‘ राज साहब, मन करता है कि तीनों बेटियों, पत्नी को जहर दे दूं ओर खुद भी जहर खाकर मर जाऊं। इस महंगाई में क्या किराया दूं। क्या खाऊं, क्या बच्चों को खिलाऊं। उनकी पढ़ाई-लिखाई कैसे करवाऊ।...’ ये व्यथ सिर्फ मेरे एक पड़ोसी की नहीं है। ऐसे लाखों लोग हैं।



चौबीस जनवरी 2010 को उच्चतम न्यायालय के एक पैनल ने ओडीश में भुखमरी से पिछले नौ साल में 400 लोगों की मौत होने को लेकर राज्य सरकार से कहा है कि राज्य में किसी की भी मौत भूख की वजह से न हो। कोई भूख से न मरे यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। गौर तलब है कि 1980 में ओडीशा में कालाहांडी में भूख से कई लोगों की मौत हुई थी। पर भूख से मरने वालों में ओडीशा अकेला राज्य नहीं है। अब यह स्थिति और भयावह होने जा रही है।



अभी महंगाई की स्थिति ऐसी है कि व्यक्ति खुद ही आत्महत्या की सोचने लगा है। आंकड़े बताते हैं कि चीनी, आलू और दाल की आसमान छूती कीमतों के कारण सभी प्रकार की वस्तुओं के थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर उछल कर 7.31 फीसद पहुंच गई है। इससे आम आदमी की गुजरं-बसर और मुंिष्कल हो गई। मुद्रास्फीति का यह स्तर रिजर्व बैंक के अनुमान से काफी ऊंपर है। कहने का तात्पर्य यह है कि चालू वित्त वर्ष में महंगाई 8-10 फीसद तक बढ़ जाने की संभावना है। विडम्बना यह है कि एक ओर सरकार आर्थिक विकास की बात कर रही है। दूसरी ओर महंगाई है कि बढ़ती ही जा रही है। गरीब इतना गरीब होता जा रहा है कि उसके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया है। दूसरी ओर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में समन्वय नहीं है। केन्द्र सरकार कहती है कि महंगाई रोकने के लिए जमाखोरी और कालाबाजारी रोकनी होगी। यानी कि व्यापारियों को एक निष्चित सीमा से अधिक अन्न नहीं रखने दिया जाए। लेकिन स्टॉक लिमिट राज्य सरकारों को रखनी है जो कि इस ओर ध्यान नहीं दे रही है। स्टॉक लिमिट निर्धारित नही हो पा रही है। इसीलिए इसका कार्यान्वयन भी नहीं हो पा रहा है। परिणामतः जमाखोरी और कालाबाजारी की वजह से महंगाई दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ती जा रही है। ऐसे में संबंधित सरकारी अधिकारी की नीयत पर शंका होना लाजिमी है। भ्रष्ट शासन तंत्र अपनी स्वार्थपरता में अंधा है। महंगाई की मार से त्रस्त जनता दिखाई नहीं दे रही है। देश के नेताओं/मंत्रियों को जनता की याद और उसके दुख-दर्द चुनाव के समय ही याद आते हैं जो कि महज चुनावी आश्वासन बनकर रह जाते हैं।



यही वजह है कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को गणतन्त्र की पूर्व सन्ध्या पर कहना पड़ा कि - ‘मैं दूसरी हरित क्रान्ति की दिशा में तुरन्त कदम उठाने पर जोर देना चाहूंगी। ...हमारे देश में खाद्यान्न की मांग बढ़ रही है। ये हालात हमें आगाह करते हैं कि हमे कृषि की उत्पादकता बढ़ाने पर गहराई से ध्यान देना होगा जिससे अनाज की उपलब्धता सुनिश्चत की जा सके। उन कृषि उत्पादों की उपलब्धता बढ़ाना और भी जरुरी है कि जिनकी आपूर्ति कम है। ऐसा करके बढ़ती कीमतों को नियन्त्रण में रखा जा सकता है।’ किन्तु महंगाई कम करने का यह एक मात्र विकल्प नहीं हैं। उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ जरुरत इस बात की है कि कृषि योग्य भूमि में कारखाने न लगाने दिए जाएं। सबसे बड़ी जरुरत इस बात की है कि सरकार वस्तुओं की जमाखोरी एवं कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठाए। तभी आसमान छूती महंगाई से आम आदमी को थोड़ी-सी राहत मिल सकती हैं। पर क्या सरकारी तंत्र से इस तरह की कार्यवाही की उम्मीद की जा सकती है?



संपर्क: (मो) 9818482899

36/13 ग्राउण्ड फ्लोर,

ईस्ट पटेल नगर,

नई दिल्ली-110008

1 टिप्पणी:

  1. भाई राज ……………।बहुत ही अच्छा लेख लिखा है।महगाई एक ऐसा मर्ज़ है जिसका इलाज दो मिनट में हो सकता है।मगर हमारे राजनेता कभी नहीं चाहेंगे कि ये मर्ज़ खत्म हो।

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