जीवन की ये आपा-धापी राज वाल्मीकि
‘‘ और सुनाइए क्या हाल-चाल हैं?’’ बहुत दिन बाद मिलने पर मैंने अपने परिचित सुखीराम जी से यूं ही औपचारिकतावश पूछ लिया था तो लगा कि उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। सुखीराम जी चालीस वर्षीय नौकरी-पेशा निम्न मध्यम वर्गीय सज्जन हैं। वे मेरे आगे फूट पड़े-‘‘ बस कुछ पूछिये मत राज साहब, कुछ ज्यादा पाने की मृगतषृणा में बहुत कुछ खो दिया।’’ वे उदास स्वर में बोले। स्वाभाविक रूप से मेरे मुंह से प्रश्न निकला-‘‘ ऐसा क्या हो गया सुखीराम जी, बड़े उदास लग रहे हैं, आखिर हुआ क्या?’’ इस पर वे बोले-‘‘ गांव से मां की बीमारी की पिछले छह महीने से खबर आ रही थी, मैं कुछ रूपये उनके के लिए भेज दिया करता था। पर मां का यही आग्रह होता था कि एक बार मैं आकर उनसे मिल लूं। पर मैं जीवन की इस आपाधापी में ऐसा फंसा कि घर जाने का समय ही नहीं निकाल पाया। परिणाम वही हुआ जिसकी आशंका थी। एक सप्ताह पहले फोन आया कि मां अब नहीं रहीं। मैं गांव पहुंचा तो सबने बताया कि मरते दम तक मां मुझे याद करती रहीं। और मुझे एक बार देखने की इच्छा लिए ही इस दुनियां से चली गईं।...’’ वे रुआसे हो आए। सुखीराम जी पत्नी-बच्चों सहित दिल्ली में रह रहे हैं। उनके माता-पिता उत्तर-प्रदेश के एक गांव में रहते थे। सुखीराम जी एक निजी कम्पनी में र्क्लक हैं। पत्नी और बच्चों को आज की सारी सुख-सुविधाएं चाहिए। उनको जुटाने में सुखीराम जी नौकरी के अलावा अन्य ऐसे कई कार्यों में जुटे कि अपने पैतृक गांव, रिश्ते-नाते सबसे दूर होते चले गये। यहां तक कि अपने माता-पिता से भी कर्तव्यपूर्ति तक का ही नाता रह गया। मैंने उन्हें सान्त्वना दी जब वे विदा हुए तो मैं सोचने लगा कि हम अपने निजी लोगों से, हमारे अपनों से दूर क्यों होते जा रहे हैं? हमारी संवेदनाएं मरती क्यों जा रही हैं। हम सड़क पर किसी बीमार या घायल को देखकर आगे क्यों बढ़ जाते हैं? किसी अपने के दुख-सुख में शामिल क्यों नही हो पाते?
सोचने पर लगा कि हम पर बाजारवाद हावी होता जा रहा है। हम सभी रिश्ते-नातों, मानवीय संवेदनाओं को लाभ-हानि की तुला पर रख कर तोलने लगे हैं। अगर हम किसी कार्यक्रम में शामिल होने जा रहे हैं तो सबसे पहले यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है कि इसमें हमारा क्या फायदा? अपनी लड़की की शादी में कोई सादर आमंत्रित करता है तो हम सोचते हैं कि लड़की की शादी में कुछ देना ही पड़ेगा - यही सोचकर हम उसे टालने की कोशिश करते हैं। अपना कोई सगा-संबंधी बीमार है तो हमारे पास उसे देखने, हमदर्दी के दो शब्द बोलने का समय नहीं है।
इधर भूमण्डलीकरण के इस दौर में बाजारवाद हम पर इतना हावी हो गया है कि हम यथाषीघ्र अधिकाधिक आधुनिकतम भौतिक सुविधाएं प्राप्त करना चाहते हैं - भले ही हमारी आर्थिक स्थिति इस लायक न हो। दूसरी ओर बाजारवाद हमें ललचा रहा है। शाहरुख खान के रुप में बाजार चिल्ला रहा है - ‘‘ ...क्यों हो सन्तुष्ट , डोन्ट बी सन्तुष्ट। कुछ विश करो...।’’ उससे प्रभावित हम कुछ नहीं बल्कि बहुत कुंछ विश कर रहे हैं। इधर बैंक कह रहे हैं ‘ आधुनिकतम सुख-सुविधाओं का आनन्द लीजिए। क्या कहा पैसा नहीं है? फिकर नोट, हमारे पास आइए। लौन ले जाइए। वसूलना तो हम जानते हैं। मॉडर्न टेक्नोलौजी की आरामदायक वस्तुएं खरीदिए और अपने पड़ोसियों तथा रिश्ते दारों पर रौब जमाइए। साथ ही अपनी टेशन बढ़ाइए। पर मत घबराइए। टेंशन तो सिर्फ आपको होगी। वह औरों को दिखाई नहीं देगी। वैसे भी सबके पास खुद ही अपनी-अपनी इतनी टेंशन्स हैं कि आपकी टेंशन देखने की फुरसत किसे है? समय कहां है?
बच्चों के पास दादा-दादी, नाना-नानी के पास जाने बतियाने का समय नहीं हैं। उनके पास इन्टरनेट है। वीडियो गैम्स हैं। ऐसे में बूढ़े लोगों से उनके पुराने अनुभव सुनने का समय कहां है? उनके पास आउटडोर गेम खेलने का समय भी नही है। बेशक बचपन में ही मोटापा हावी हो जाए। बड़ो को पैसा कमाने से फुरसत कहां है? किसी से मिलने को समय कहां है? ग्लैमर्स बाजार अपनी चमक-दमक से सबको अपनी ओर खींच रहा है। हम सम्मोहित से उसकी ओर खिंचे चले जा रहे हैं। वह इंसानियत के हर पहलू को कमोडिटी (वस्तु) में बदल रहा है। हम उसमें समाहित होते जा रहे हैं। मानवीय संवदेनाओं को महसूस करने, लोगों के साथ मिल बैठकर दुख-सुख बांटने, हंसने बोलने का हमारे पास समय कहां है?
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सोमवार, 31 मई 2010
शुक्रवार, 28 मई 2010
दर्द दासता का गजल राज वाल्मीकि
दर्द दासता का क्या होता मत मालिक से जाकर पूछ
सदिया गुजरीं सेवा करते हम लोगों से आकर पूछ
देवी रूप जहां नारी का उसका है यथार्थ क्या
तिहरा शोषण जिसका होता उस महिला से जाकर पूछ
नीरस जीवन, एकाकीपन, विधुरावस्था और बुढापा
तनहाई का दंश क्या है हम बूढों से आकर पूछ
स्वाभिमान से जीने की जिद कितनी मंहगी पडती है
हाथ कटें हैं जिन लोगों के उनको कभी बुलाकर पूछ
असर क्या होता है प्यारे जादू की इस झप्पी में
किसी दुखी को यार कभी तू दिल से गले लगाकर पूछ
स्वतन्त्रता, समता, न्याय, बंधुता कब तक बंदी रख पाओगे
राज कभी वो तुझे मिलें तो उनसे नजर मिलाकर पूछ
सदिया गुजरीं सेवा करते हम लोगों से आकर पूछ
देवी रूप जहां नारी का उसका है यथार्थ क्या
तिहरा शोषण जिसका होता उस महिला से जाकर पूछ
नीरस जीवन, एकाकीपन, विधुरावस्था और बुढापा
तनहाई का दंश क्या है हम बूढों से आकर पूछ
स्वाभिमान से जीने की जिद कितनी मंहगी पडती है
हाथ कटें हैं जिन लोगों के उनको कभी बुलाकर पूछ
असर क्या होता है प्यारे जादू की इस झप्पी में
किसी दुखी को यार कभी तू दिल से गले लगाकर पूछ
स्वतन्त्रता, समता, न्याय, बंधुता कब तक बंदी रख पाओगे
राज कभी वो तुझे मिलें तो उनसे नजर मिलाकर पूछ
दोस्ती का ऐसा मंजर गजल राज वाल्मीकि
दोस्ती का ऐसा मंजर देखते हैं
दोस्तो के कर में खंजर देखते हैं
यहां कैसे उगें समता की फसलें
दिलों की भूमि बंजर देखते हैं
कफन के हैं वही घीसू और माधव
जमाने का वो अंतर देखते हैं
जहां मिलती हैं सब धर्मों की नदियां
वो भारत का समन्दर देखते हैं
भेडिये दिखते हैं हम को भेड मे क्यों
मुखौटों के जो अन्दर देखते हैं
किस तरह बंटता है इन्सा राज यहां पर
गुरूदवारे, चर्च, मस्जिद और मंदिर देखते हैं
दोस्तो के कर में खंजर देखते हैं
यहां कैसे उगें समता की फसलें
दिलों की भूमि बंजर देखते हैं
कफन के हैं वही घीसू और माधव
जमाने का वो अंतर देखते हैं
जहां मिलती हैं सब धर्मों की नदियां
वो भारत का समन्दर देखते हैं
भेडिये दिखते हैं हम को भेड मे क्यों
मुखौटों के जो अन्दर देखते हैं
किस तरह बंटता है इन्सा राज यहां पर
गुरूदवारे, चर्च, मस्जिद और मंदिर देखते हैं
बीडी पिला गजल राज वाल्मीकि
मशीने अब गई हैं थम जरा बीडी पिला
मैं भी ले लूं दम जरा बीडी पिला
कीडे-मकौडे क्षुदर जन्तु जो भी हों उनके लिए
आदमी नहीं हम जरा बीडी पिला
एशो-अय्याशी हमारे श्रम पे वे करते रहें
हम खटें हरदम जरा बीडी पिला
मां का गठिया पेट पालन और बिटिया का विवाह
छोड फिकरो-गम जरा बीडी पिला
इनकी सरकारें सही हैं उनकी सरकारें गलत
कौन किससे कम जरा बीडी पिला
वो अमीरी ये गरीबी वो सवर्ण और हम दलित
हम नही हैं सम जरा बीडी पिला
हजारों गम हैं इस जीवन में किसका गम करें
गम तो हैं हमदम जरा बीडी पिला
सीवर में हुई है मौत साथी की मगर तू मत करे
राज आंखें नम जरा बीडी पिला
मैं भी ले लूं दम जरा बीडी पिला
कीडे-मकौडे क्षुदर जन्तु जो भी हों उनके लिए
आदमी नहीं हम जरा बीडी पिला
एशो-अय्याशी हमारे श्रम पे वे करते रहें
हम खटें हरदम जरा बीडी पिला
मां का गठिया पेट पालन और बिटिया का विवाह
छोड फिकरो-गम जरा बीडी पिला
इनकी सरकारें सही हैं उनकी सरकारें गलत
कौन किससे कम जरा बीडी पिला
वो अमीरी ये गरीबी वो सवर्ण और हम दलित
हम नही हैं सम जरा बीडी पिला
हजारों गम हैं इस जीवन में किसका गम करें
गम तो हैं हमदम जरा बीडी पिला
सीवर में हुई है मौत साथी की मगर तू मत करे
राज आंखें नम जरा बीडी पिला
सोमवार, 24 मई 2010
प्यासी बहना कविता
मई महीना था गर्मी का दोपहरी थी तपती
सारी सृष्टी त्राहि त्राहि कर नाम राम का जपती
सूर्य आग उगलता था सारी धरती जलती थी
गरम गरम लू अपनी मस्ती में झुलसाती चलती थी
गर्मी का था तेज भयंकर मुश्किल था जिसको सहना
पशु चराते थे खेतों में मैं और मेरी बहना
बारह वर्ष का मैं बालक था अभी उम्र थी बाली
सात वर्ष की बहना मेरी मासूम थी भोली भाली
सूख गया था कण्ठ हवा से बोली थी अकुला कर
'प्यास बहुत लगी है भैया जल्दी पानी दो ला कर!'
सुन कर वचन बहन के मन में बहुत उदास हुआ
हाय!बहन को देने को भी पानी तक न पास हुआ
घर भी बहुत दूर था वहाँ से तब तक वो न रहती
प्यास बहुत लगी थी उसको और नहीं सह सकती
कहाँ से पानी दूँ मैं ला कर सोच रहा था मन में
आस-पास जल स्रोत नहीं था कोई न था निर्जन में
मौन देख कर मुझको बोली बहना घबरा कर
'प्यास लगी है भैया,जल्दी पानी दो लाकर!'
सहसा मुझे स्मरण हो आया एक कूप है समीप कहीं
मिटी निराशा हुआ प्रज्वलित ज्यों आशा का दीप कहीं
किन्तु दूसरे पल ही उस पर भीषण वज्रपात हुआ
चीत्कार कर उठा मेरा मन क्षुब्ध-निराश-हताश हुआ
मैं अछूत हूँ हाय!मुझे वहाँ नीर कौन भरने देगा?
वह कूप तो ब्राह्मण का है ये कर्म कौन करने देगा?
किन्तु बहन के मुखमंडल को लख कर मैं बेज़ार हुआ
निरभया होकर साहस करके जाने को तैयार हुआ
कांतिहीन सी अनुजा से मैं बोला था फिर समझाकर
'ठहर यहीं तू -अभी मैं लाता हूँ पानी जाकर'
जाकर देखा निकट कुएं के था एक मंदिर भव्य-महान
पंडित जी भी पूजारत थे अर्चन में था उनका ध्यान
रस्सी-डोल हाथ में लेकर चढ़ गया कुएं पर मौका पाकर
जल-रव सुनकर पंडित जी ने देखा था बाहर आकर
मुझे देखकर क्रोधाग्नि से बोले थे वे चिल्लाकर
'पकड़ो-पकड़ो इस भंगी ने अपवित्र कुआँ किया आकर'
सुनकर पंडित जी की पुकार कुछ भक्तों ने मुझको पकड़ लिया
लगे मारने मुझको सब मिल सब हाथों ने जकड़ लिया
मैंने कहा-'जो चाहे दंड दो याद रखूँगा मैं पाकर
किन्तु मेरी प्यासी बहना को ये जल देड़ूँ ले जाकर'
इसपर खूब हँसे थे सब मिल जल मिट्टी में मिला दिया
धक्का देकर चले गए वे मेरी विनती का सिला दिया
महापुरुष कह गए यही मानव जाति है सिर्फ एक
वे एक वृक्ष की शाखायें हैं उनके ही हैं रूप अनेक
जाकर देखा मैंने वहाँ पर यहीं कहीं तो खड़ी हुई थी
एक जगह पर दृष्टि रुक गई मुरझाई सी पड़ी हुई थी
हिउ मूर्छित प्यासी बहना और मुझे रोना आया
मैं अपनी प्यासी बहना को पानी तक न दे पाया
वो तो चुप थी पर गूँज रही थी उसकी ध्वनि हाहाकार
'प्यास बहुत लगी है भैया जल्दी पानी दो लाकर!'
खौल उठा था रक्त मेरा फिर बहना को मूर्छित पाकर
सोच लिया था अब पूछूंगा भगवन से मंदिर जाकर
मैं अंदर ही जा पहुँचा था मंदिर को सूना पाकर
पूछ लिया था फिर मैंने भगवन से मौका पाकर
ऊँच-नीच का भाव बता तेरे अंदर क्यों है?
मेरे उनके बीच जात का अन्तर क्यों है?
छूआछूत की ये दुनिया तेरी क्यों इतनी बदसूरत है
तू जवाब क्या इसका देगा तू बस पत्थर की मूरत है!
और उठाकर मैंने उसको उस कुएं में फेंक दिया था
अपमानित पीटने का बदला मैंने उसको फेंक लिया था
(रचनाकाल 1988 : उम्र 17 वर्ष)
सारी सृष्टी त्राहि त्राहि कर नाम राम का जपती
सूर्य आग उगलता था सारी धरती जलती थी
गरम गरम लू अपनी मस्ती में झुलसाती चलती थी
गर्मी का था तेज भयंकर मुश्किल था जिसको सहना
पशु चराते थे खेतों में मैं और मेरी बहना
बारह वर्ष का मैं बालक था अभी उम्र थी बाली
सात वर्ष की बहना मेरी मासूम थी भोली भाली
सूख गया था कण्ठ हवा से बोली थी अकुला कर
'प्यास बहुत लगी है भैया जल्दी पानी दो ला कर!'
सुन कर वचन बहन के मन में बहुत उदास हुआ
हाय!बहन को देने को भी पानी तक न पास हुआ
घर भी बहुत दूर था वहाँ से तब तक वो न रहती
प्यास बहुत लगी थी उसको और नहीं सह सकती
कहाँ से पानी दूँ मैं ला कर सोच रहा था मन में
आस-पास जल स्रोत नहीं था कोई न था निर्जन में
मौन देख कर मुझको बोली बहना घबरा कर
'प्यास लगी है भैया,जल्दी पानी दो लाकर!'
सहसा मुझे स्मरण हो आया एक कूप है समीप कहीं
मिटी निराशा हुआ प्रज्वलित ज्यों आशा का दीप कहीं
किन्तु दूसरे पल ही उस पर भीषण वज्रपात हुआ
चीत्कार कर उठा मेरा मन क्षुब्ध-निराश-हताश हुआ
मैं अछूत हूँ हाय!मुझे वहाँ नीर कौन भरने देगा?
वह कूप तो ब्राह्मण का है ये कर्म कौन करने देगा?
किन्तु बहन के मुखमंडल को लख कर मैं बेज़ार हुआ
निरभया होकर साहस करके जाने को तैयार हुआ
कांतिहीन सी अनुजा से मैं बोला था फिर समझाकर
'ठहर यहीं तू -अभी मैं लाता हूँ पानी जाकर'
जाकर देखा निकट कुएं के था एक मंदिर भव्य-महान
पंडित जी भी पूजारत थे अर्चन में था उनका ध्यान
रस्सी-डोल हाथ में लेकर चढ़ गया कुएं पर मौका पाकर
जल-रव सुनकर पंडित जी ने देखा था बाहर आकर
मुझे देखकर क्रोधाग्नि से बोले थे वे चिल्लाकर
'पकड़ो-पकड़ो इस भंगी ने अपवित्र कुआँ किया आकर'
सुनकर पंडित जी की पुकार कुछ भक्तों ने मुझको पकड़ लिया
लगे मारने मुझको सब मिल सब हाथों ने जकड़ लिया
मैंने कहा-'जो चाहे दंड दो याद रखूँगा मैं पाकर
किन्तु मेरी प्यासी बहना को ये जल देड़ूँ ले जाकर'
इसपर खूब हँसे थे सब मिल जल मिट्टी में मिला दिया
धक्का देकर चले गए वे मेरी विनती का सिला दिया
महापुरुष कह गए यही मानव जाति है सिर्फ एक
वे एक वृक्ष की शाखायें हैं उनके ही हैं रूप अनेक
जाकर देखा मैंने वहाँ पर यहीं कहीं तो खड़ी हुई थी
एक जगह पर दृष्टि रुक गई मुरझाई सी पड़ी हुई थी
हिउ मूर्छित प्यासी बहना और मुझे रोना आया
मैं अपनी प्यासी बहना को पानी तक न दे पाया
वो तो चुप थी पर गूँज रही थी उसकी ध्वनि हाहाकार
'प्यास बहुत लगी है भैया जल्दी पानी दो लाकर!'
खौल उठा था रक्त मेरा फिर बहना को मूर्छित पाकर
सोच लिया था अब पूछूंगा भगवन से मंदिर जाकर
मैं अंदर ही जा पहुँचा था मंदिर को सूना पाकर
पूछ लिया था फिर मैंने भगवन से मौका पाकर
ऊँच-नीच का भाव बता तेरे अंदर क्यों है?
मेरे उनके बीच जात का अन्तर क्यों है?
छूआछूत की ये दुनिया तेरी क्यों इतनी बदसूरत है
तू जवाब क्या इसका देगा तू बस पत्थर की मूरत है!
और उठाकर मैंने उसको उस कुएं में फेंक दिया था
अपमानित पीटने का बदला मैंने उसको फेंक लिया था
(रचनाकाल 1988 : उम्र 17 वर्ष)
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