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सोमवार, 31 मई 2010

जीवन की आपाधापी में - राज वाल्मीकि

जीवन की ये आपा-धापी  राज वाल्मीकि
‘‘ और सुनाइए क्या हाल-चाल हैं?’’ बहुत दिन बाद मिलने पर मैंने अपने परिचित सुखीराम जी से यूं ही औपचारिकतावश पूछ लिया था तो लगा कि उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। सुखीराम जी चालीस वर्षीय नौकरी-पेशा निम्न मध्यम वर्गीय सज्जन हैं। वे मेरे आगे फूट पड़े-‘‘ बस कुछ पूछिये मत राज साहब, कुछ ज्यादा पाने की मृगतषृणा में बहुत कुछ खो दिया।’’ वे उदास स्वर में बोले। स्वाभाविक रूप से मेरे मुंह से प्रश्न निकला-‘‘ ऐसा क्या हो गया सुखीराम जी, बड़े उदास लग रहे हैं, आखिर हुआ क्या?’’ इस पर वे बोले-‘‘ गांव से मां की बीमारी की पिछले छह महीने से खबर आ रही थी, मैं कुछ रूपये उनके के लिए भेज दिया करता था। पर मां का यही आग्रह होता था कि एक बार मैं आकर उनसे मिल लूं। पर मैं जीवन की इस आपाधापी में ऐसा फंसा कि घर जाने का समय ही नहीं निकाल पाया। परिणाम वही हुआ जिसकी आशंका थी। एक सप्ताह पहले फोन आया कि मां अब नहीं रहीं। मैं गांव पहुंचा तो सबने बताया कि मरते दम तक मां मुझे याद करती रहीं। और मुझे एक बार देखने की इच्छा लिए ही इस दुनियां से चली गईं।...’’ वे रुआसे हो आए। सुखीराम जी पत्नी-बच्चों सहित दिल्ली में रह रहे हैं। उनके माता-पिता उत्तर-प्रदेश के एक गांव में रहते थे। सुखीराम जी एक निजी कम्पनी में र्क्लक हैं। पत्नी और बच्चों को आज की सारी सुख-सुविधाएं चाहिए। उनको जुटाने में सुखीराम जी नौकरी के अलावा अन्य ऐसे कई कार्यों में जुटे कि अपने पैतृक गांव, रिश्ते-नाते सबसे दूर होते चले गये। यहां तक कि अपने माता-पिता से भी कर्तव्यपूर्ति तक का ही नाता रह गया। मैंने उन्हें सान्त्वना दी जब वे विदा हुए तो मैं सोचने लगा कि हम अपने निजी लोगों से, हमारे अपनों से दूर क्यों होते जा रहे हैं? हमारी संवेदनाएं मरती क्यों जा रही हैं। हम सड़क पर किसी बीमार या घायल को देखकर आगे क्यों बढ़ जाते हैं? किसी अपने के दुख-सुख में शामिल क्यों नही हो पाते?



सोचने पर लगा कि हम पर बाजारवाद हावी होता जा रहा है। हम सभी रिश्ते-नातों, मानवीय संवेदनाओं को लाभ-हानि की तुला पर रख कर तोलने लगे हैं। अगर हम किसी कार्यक्रम में शामिल होने जा रहे हैं तो सबसे पहले यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है कि इसमें हमारा क्या फायदा? अपनी लड़की की शादी में कोई सादर आमंत्रित करता है तो हम सोचते हैं कि लड़की की शादी में कुछ देना ही पड़ेगा - यही सोचकर हम उसे टालने की कोशिश करते हैं। अपना कोई सगा-संबंधी बीमार है तो हमारे पास उसे देखने, हमदर्दी के दो शब्द बोलने का समय नहीं है।



इधर भूमण्डलीकरण के इस दौर में बाजारवाद हम पर इतना हावी हो गया है कि हम यथाषीघ्र अधिकाधिक आधुनिकतम भौतिक सुविधाएं प्राप्त करना चाहते हैं - भले ही हमारी आर्थिक स्थिति इस लायक न हो। दूसरी ओर बाजारवाद हमें ललचा रहा है। शाहरुख खान के रुप में बाजार चिल्ला रहा है - ‘‘ ...क्यों हो सन्तुष्ट , डोन्ट बी सन्तुष्ट। कुछ विश करो...।’’ उससे प्रभावित हम कुछ नहीं बल्कि बहुत कुंछ विश कर रहे हैं। इधर बैंक कह रहे हैं ‘ आधुनिकतम सुख-सुविधाओं का आनन्द लीजिए। क्या कहा पैसा नहीं है? फिकर नोट, हमारे पास आइए। लौन ले जाइए। वसूलना तो हम जानते हैं। मॉडर्न टेक्नोलौजी की आरामदायक वस्तुएं खरीदिए और अपने पड़ोसियों तथा रिश्ते दारों पर रौब जमाइए। साथ ही अपनी टेशन बढ़ाइए। पर मत घबराइए। टेंशन तो सिर्फ आपको होगी। वह औरों को दिखाई नहीं देगी। वैसे भी सबके पास खुद ही अपनी-अपनी इतनी टेंशन्स हैं कि आपकी टेंशन देखने की फुरसत किसे है? समय कहां है?

बच्चों के पास दादा-दादी, नाना-नानी के पास जाने बतियाने का समय नहीं हैं। उनके पास इन्टरनेट है। वीडियो गैम्स हैं। ऐसे में बूढ़े लोगों से उनके पुराने अनुभव सुनने का समय कहां है? उनके पास आउटडोर गेम खेलने का समय भी नही है। बेशक बचपन में ही मोटापा हावी हो जाए। बड़ो को पैसा कमाने से फुरसत कहां है? किसी से मिलने को समय कहां है? ग्लैमर्स बाजार अपनी चमक-दमक से सबको अपनी ओर खींच रहा है। हम सम्मोहित से उसकी ओर खिंचे चले जा रहे हैं। वह इंसानियत के हर पहलू को कमोडिटी (वस्तु) में बदल रहा है। हम उसमें समाहित होते जा रहे हैं। मानवीय संवदेनाओं को महसूस करने, लोगों के साथ मिल बैठकर दुख-सुख बांटने, हंसने बोलने का हमारे पास समय कहां है?



संपर्क:

36/13 ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

1 टिप्पणी:

  1. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
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