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सोमवार, 24 मई 2010

प्यासी बहना कविता

मई महीना था गर्मी का दोपहरी थी तपती


सारी सृष्टी त्राहि त्राहि कर नाम राम का जपती

सूर्य आग उगलता था सारी धरती जलती थी

गरम गरम लू अपनी मस्ती में झुलसाती चलती थी

गर्मी का था तेज भयंकर मुश्किल था जिसको सहना

पशु चराते थे खेतों में मैं और मेरी बहना

बारह वर्ष का मैं बालक था अभी उम्र थी बाली

सात वर्ष की बहना मेरी मासूम थी भोली भाली

सूख गया था कण्ठ हवा से बोली थी अकुला कर

'प्यास बहुत लगी है भैया जल्दी पानी दो ला कर!'

सुन कर वचन बहन के मन में बहुत उदास हुआ

हाय!बहन को देने को भी पानी तक न पास हुआ

घर भी बहुत दूर था वहाँ से तब तक वो न रहती

प्यास बहुत लगी थी उसको और नहीं सह सकती

कहाँ से पानी दूँ मैं ला कर सोच रहा था मन में

आस-पास जल स्रोत नहीं था कोई न था निर्जन में

मौन देख कर मुझको बोली बहना घबरा कर

'प्यास लगी है भैया,जल्दी पानी दो लाकर!'

सहसा मुझे स्मरण हो आया एक कूप है समीप कहीं

मिटी निराशा हुआ प्रज्वलित ज्यों आशा का दीप कहीं

किन्तु दूसरे पल ही उस पर भीषण वज्रपात हुआ

चीत्कार कर उठा मेरा मन क्षुब्ध-निराश-हताश हुआ

मैं अछूत हूँ हाय!मुझे वहाँ नीर कौन भरने देगा?

वह कूप तो ब्राह्मण का है ये कर्म कौन करने देगा?

किन्तु बहन के मुखमंडल को लख कर मैं बेज़ार हुआ

निरभया होकर साहस करके जाने को तैयार हुआ

कांतिहीन सी अनुजा से मैं बोला था फिर समझाकर

'ठहर यहीं तू -अभी मैं लाता हूँ पानी जाकर'

जाकर देखा निकट कुएं के था एक मंदिर भव्य-महान

पंडित जी भी पूजारत थे अर्चन में था उनका ध्यान

रस्सी-डोल हाथ में लेकर चढ़ गया कुएं पर मौका पाकर

जल-रव सुनकर पंडित जी ने देखा था बाहर आकर

मुझे देखकर क्रोधाग्नि से बोले थे वे चिल्लाकर

'पकड़ो-पकड़ो इस भंगी ने अपवित्र कुआँ किया आकर'

सुनकर पंडित जी की पुकार कुछ भक्तों ने मुझको पकड़ लिया

लगे मारने मुझको सब मिल सब हाथों ने जकड़ लिया

मैंने कहा-'जो चाहे दंड दो याद रखूँगा मैं पाकर

किन्तु मेरी प्यासी बहना को ये जल देड़ूँ ले जाकर'

इसपर खूब हँसे थे सब मिल जल मिट्टी में मिला दिया

धक्का देकर चले गए वे मेरी विनती का सिला दिया

महापुरुष कह गए यही मानव जाति है सिर्फ एक

वे एक वृक्ष की शाखायें हैं उनके ही हैं रूप अनेक

जाकर देखा मैंने वहाँ पर यहीं कहीं तो खड़ी हुई थी

एक जगह पर दृष्टि रुक गई मुरझाई सी पड़ी हुई थी

हिउ मूर्छित प्यासी बहना और मुझे रोना आया

मैं अपनी प्यासी बहना को पानी तक न दे पाया

वो तो चुप थी पर गूँज रही थी उसकी ध्वनि हाहाकार

'प्यास बहुत लगी है भैया जल्दी पानी दो लाकर!'

खौल उठा था रक्त मेरा फिर बहना को मूर्छित पाकर

सोच लिया था अब पूछूंगा भगवन से मंदिर जाकर

मैं अंदर ही जा पहुँचा था मंदिर को सूना पाकर

पूछ लिया था फिर मैंने भगवन से मौका पाकर

ऊँच-नीच का भाव बता तेरे अंदर क्यों है?

मेरे उनके बीच जात का अन्तर क्यों है?

छूआछूत की ये दुनिया तेरी क्यों इतनी बदसूरत है

तू जवाब क्या इसका देगा तू बस पत्थर की मूरत है!

और उठाकर मैंने उसको उस कुएं में फेंक दिया था

अपमानित पीटने का बदला मैंने उसको फेंक लिया था

(रचनाकाल 1988 : उम्र 17 वर्ष)

1 टिप्पणी:

  1. याद है…………………॥ये मेरी पसंदीदा कविता है………………………………॥

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