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रविवार, 25 दिसंबर 2011

दलित विमर्श, दलित साहित्य और पूर्वाग्रह

दलित विमर्श, दलित साहित्य और पूर्वाग्रह

-राज वाल्मीकि

 मैं अपनी बात इस बोध कथा से शुरु करता हूं - ‘ एक बार की बात है। दो राजपुत्र अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने के लिए जंगल जा रहे थे। वे दोनो एक दूसरे की विपरीत दिशा में थे। रास्ते में एक मन्दिर पड़ा जो रास्ते के किनारे पर बना था। उस मन्दिर के कंगूरेे पर एक भव्य कलश सुशोभित हो रहा था। जब वे दोनो राजपुत्र मन्दिर के निकट पहुंचे तो विपरीत दिशा में होने के कारण एक दूसरे के आमने-सामने आ गये। बीच में मन्दिर था। एक राजपुत्र उस भव्य कलश को देखकर बोला - ‘अहा! यह सोने का कलश कितना सुन्दर है!’ दूसरा राजपुत्र जो उसके सामने मन्दिर की दूसरी तरफ खड़ा था। वह बोला - ‘ चांदी का यह कलश इस मन्दिर की सुन्दरता में चार चांद लगा रहा है।’ यह सुनकर पहला राजपुत्र बोला - ‘ तुम्हें दिखाई नहीं देता कि यह कलश चांदी का नहीं सोने का है।’ दूसरा राजपुत्र बोला-‘ सूरदास तो तुम हो जो चांदी के कलश को सोने का बता रहे हो।’ पहला राजपु़त्र कुछ क्रोधित होकर बोला- ‘तुम क्या समझते हो मैं इतना मूर्ख हूं जो सोने-चांदी का भेद नहीं समझ सकता। यह तो कोई भी बता सकता है कि यह कलश सोने का है।’ पहले राजपुत्र को यह अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ व अपना अपमान लगा। अतः उसने तलवार खींच ली और लड़ने के लिए दूसरे राजपुत्र को ललकारा। दूसरा राजपुत्र भी अपनी तलवार संभालने लगा। तभी एक बुढ़िया पुजारिन पूजा करके मन्दिर से बाहर निकली तो उसने कहा दोनों राजपुत्रों से लड़ने का कारण पूछा। जब बुढ़िया को सब बात पता चली तेा उसने लड़ने से पहले मेरा एक अनुरोध स्वीकार कर लो कि अपना-अपना स्थान बदल लो।’ दोनों राजपुत्रो ने बु़िढ़या के अनुरोध पर अपना-अपना स्थाना बदल लिया। किन्तु स्थान बदलते ही दोनो राजपु़़त्र झेंप गये। तब बुढ़िया ने कहा - ‘ अब तो तुम समझ ही गये होगे कि यह कलश आधा सोने का है और आधा चांदी का। इसलिए हमेशा याद रखो कि किसी बात पर अड़ने से पहले उसका दूसरा पहलू भी देख लिया करो। हो सकता है तुम्हारा विरोधी जो कह रहा है वह भी सही हो। बिना उसकी प्रमाणिकता जाने पूर्वाग्रहवश किसी बात पर अड़े रहना उचित नहीं है।’ यह बोध कथा अपने आप में बहुत कुछ कह जाती है।
दरअसल हम लोग बिना किसी प्रमाण के पूर्वाग्रहवश अपनी बात पर अड़े रहते हैं। कहावत है कि ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ जो प्रत्यक्ष है उसे प्रमाण की आवश्यकता क्या है। और जो प्रमाणित है उसे पूर्वाग्रहवश नकारने में समझदारी क्या है। मैं अपनी बात 11 जनवरी 2010 जनसत्ता में प्रकाशित मस्तराम कपूर के लेख ‘दलित विमर्श के दुराग्रह’ और 12 जनवरी को प्रकाशित ‘दलित साहित्य की सीमाएं’ के सन्दर्भ में कहना चाहूंगा। मस्तराम कपूर जी ख्याति प्राप्त विद्वान लेेखक हैं। उन्हें अच्छे विचारक के रूप में जाना जाता है। पर दुखद है कि दलितों के सन्दर्भ में वे भी पूर्वाग्रहों से  ग्रसित हैं।
 पहली बात तो उन्होने लेख की शुरुआत ही इस वाक्य से की है कि ‘दलित मोटे तौर पर दो श्रेणियों मे विभाजित हैं। मैला ढोने के काम और सफाई के काम से संबंधित और चमड़े के परम्परागत उद्योगों के काम में लगे।’ अफसोस है कि मस्तराम कपूर जी ने शुरु मे ही अपनी संकीर्ण मानसिकता का परिचय दे दिया है। ‘ दलित विभिन्न अनुसूचित जातियों का समूह है, जिनमें अन्य कई जातियो का साहित्य तो अभी आना बाकी है। पर लगता है कि उन्होने दलित साहित्य की प्रसिद्ध कृतियों को पढ़ने की आवश्यकता भी नहीं समझी है जैसे शरणकुमार लिम्बाले की ‘अक्करमाशी’, किशोर शान्ताबाई काले की ‘छोरा कोल्हाटी का’ या लक्ष्मण  गायकवाड़ की ‘उठाईगीर’ आदि। नहीं तो वे इस भ्रम में नहीं रहते कि मैला ढोने और चमड़े के काम में लगे लोग दलित ही हैं। दूसरी बात गांधीजी के बारे में लेखक का यह कहना कि ‘दलित बुद्धिजीवी गांधी को अम्बेडकर के शत्रु के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं या तो लेखक गांधीजी के अंधभक्त हैं और गांधीवादी विचारधारा और अम्बेडकरवादी विचारधारा में अन्तर नहीं जानते या पूर्वाग्रह पाले हुए हैं। सब जानते हैं कि  गांधी जी वर्णव्यवस्था के समर्थक थे। उन्होने अस्पृश्यता निवारण आन्दोलन इसलिए चलाया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों की सेवा करने वाला यह अतिशूद्र हमेशा इसी प्रकार सेवारत रहे। मैला ढोने का अमानवीय कार्य करता रहे। अपनी मानवीय गरिमा की बात न करे, तथाकथित उच्चजातियों की बराबरी की बात न करे। वह भले ‘हरिजन’ (भगवान के जन) हो पर ऊंची कहे जानेवाली जातियो की निर्विरोध सेवा करता रहे। हां, गांधीजी ये जरुर चाहते थे कि सवर्ण उनसे छुआछूत न करें, उनसे  सहानुभूति रखें। और सवर्ण इन नीच लोगों पर दया भाव बनाए रखें और उसे नीच होने का अहसास भी न हो ताकि ब्राह्मणवादी व्यवस्था का वर्चस्व हमेशा-हमेशा के लिए कायम रहे। गांधीजी उस हिन्दू धर्म के समर्थक थे जो ऊंच-नीच और पितृसत्तात्मक व्यवस्था का समर्थक है। दूसरी ओर अम्बेडकर जाति व्यवस्था को एक ऐसी चार मंजिली ईमारत बताते थे जिसमें सीढ़ियां नहीं हैं। और यह कटु सत्य है जो आज भी कायम है। अम्बेडकर बराबरी की बात करते थे। उनका कहना था कि उत्पीड़ित लोग तथाकथित उच्च जातियों के समान ही बराबर के हकदार हैं। वे भी इस देश के नागरिक हैं। उन्हे बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए। मानवीय अधिकार प्राप्त करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। अम्बेडकर वैज्ञानिक सोच रखते थे। उनका साफ मानना था कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में गुलाम बने उत्पीड़ित लोगों के पास खोने को सिर्फ उनकी बेड़िया हैं। उनका स्पष्ट कहना था कि एक गुलाम को यदि उसके गुलाम होने का अहसास करा दिया जाए तो फिर वह गुलाम नहीं रहेगा। वह गुलामी की बेड़ियांे को तोड़ देगा। यही गांधीवादी विचारधारा और अम्बेडकर की विचारधारा का अन्तर है। गांधीजी दबे-कुचले-उत्पीड़ित-अछूत लोगांे पर दया दिखा रहे थे और उन्हें यथास्थिति में बने रहने को प्रोत्साहित कर रहे थे जबकि अम्बेेडकर उनकी मानवीय गरिमा की बात कर रहे थे। उनको बता रहे थे कि आप भी अन्य लोगों की तरह समान इन्सान हैं। आपके भी ब्राह्मण, क्षत्रियों और वैश्यों की तरह समान मानव अधिकार हैं। इसलिए यहां दलित बुद्धिजीवी व्यक्ति गांधी को शत्रु नहीं मानते बल्कि उनकी उस विचारधारा को शत्रु मानते हैं जो दलितों को गुलाम बनाए रखने की साजिश रचती है।
हां लेखक की यह बात सही है कि ‘अगर दलित पिछड़े वर्गों की समस्याओं का समाधान होना है और जाति व्यवस्था को खत्म करना है तो समाज के सभी प्रगतिशील तत्वों के साथ मिलकर काम करना होगा। दलित अकेले यह बदलाव नहीं ला सकते।’ आज दलितों पर शासन करने वाली तथाकथित उच्च जातियां भी यह सोेचें कि अब समय आ गया है कि हमने जो अवैध रूप से दलितों के हकों  ( देश के संशाधनों) पर कब्जा कर रखा है वो उन्हें वापस दे दें और उनसे बंधुत्व भाव से मिलें। ऊंच-नीच और छुआछूत की भावना को समाप्त करें।  उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि दलित वर्ग अब धीरे-धीरे ही सही जागरुक हो रहा है। अब  उसे और अधिक समय तक दबा कर नहीं रखा जा सकता। अतः समय के साथ चलते हुए हम उन्हें समानता, स्वतन्त्रता, न्याय प्रदान करें और बंधुत्व भाव रहें। उन्हें इन्सान समझें और इन्सान होने का मान-सम्मान दें। यही आज के समय की मांग है। पर हकीकत क्या है इसे जानने के लिए एक उदाहरण 15 जनवरी 2010 के जनसत्ता के पृष्ठ 9 पर दिए शीर्षक ‘दलित युवक को मल खिलाया ऊंची जाति के लोगों ने’ शीर्षक से प्रकाशित खबर पढ़  कर जान लें कि आज भी दलितों की स्थिति क्या है। तमिलनाडु के ंिडंडीगुली जिले के मेइकोविलपट्टी में इंदिरा नगर में रहने वाले सदायंदी के सड़क पर चप्पल पहन कर चलने से ऊंची जाति के लोगो ने पूछा कि क्या उसे इस आदेश की जानकारी नहीं है कि दलित उनकी सड़क पर दलित चप्पल पहन कर नहीं  चल सकते और फिर उसे चप्पल उतारने को कहा। और उसी चप्पल से जमकर उसकी पिटाई की। फिर एक व्यक्ति ने मानव मल लाकर जबरदस्ती उसके मुंह में घुसा दिया। यह आज की सच्चाई है।
जहां तक दलित साहित्य का प्रश्न है तो लेखक कहते हैं कि ‘दलित साहित्य की आम प्रवृति है दूसरों को चिढ़ाना और अपने में घोर निराशा और वितृष्णा पैदा करना।’ लेखका का यह कथन बेबुनियाद है। प्रारंभिक दलित साहित्य स्वयं पर हुए सवर्णों के अत्याचारों का वर्णन जरुर करता है और अत्याचारी के प्रति अपना आक्रोश प्रकट करता है। यह स्वाभाविक है। जब गुलाम जागरुक होता है तो न केवल अपनी गुलामी की बेड़ियां तोड़ता है बल्ेिक उसे गुलाम बनाने वाले पर अपना आक्रोश व्यक्त करता है। किन्तु हास्यास्पद है कि लेखक इसे कितने हलके में लेते हुए कहते हैं कि -‘दलित रचनाएं सवर्णों को संबोधित होती हैं। उन्हें जली-कटी सुनाना ही इनका लक्ष्य होता है...।’ कपूर साहब आप जहां खड़े हैं वहां से यही समझ सकते हैं। पर मैं दुष्यन्त कुमार के शब्द लेकर कहूं तो स्थिति यह है कि ‘रक्त वर्षों से नसों में खौलता है, आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।’ पर आप से ऐसी ही उम्मीद की जाती है। कहावत सच है कि ‘जाके पांव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।’या ॅमंतमत ादवूे ूीमतम जीम ेीवम चपदबीमे कवि ठीक कह गया है कि ‘ लोहे का स्वाद लोहार से नहीं उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।’ सहानु भूति और स्वानुभूति का यही अन्तर है। लेखक का विचार है कि ‘ अपनी दयनीय और हीन अवस्था का चित्रण, नपुंसक क्रोध और द्वेष और वैमनस्य को उत्तेजित करने वाली दृष्टि ही दलित साहित्य की विशेषता बन गई है।’ कपूर साहब ने इस एंगल से नहीं सोचा कि उनकी जो ये दयनीय और हीन दशा क्यों है? खैर। कपूर साहब को विनम्र सुझाव देना चाहूंगा कि वे नये दलित साहित्य को पढ़ें। निश्चित रूप से उनकी यह धारणा बदल जाएगी। क्योंकि दलित साहित्य अब परिपक्व है। कलापक्ष से परिपूर्ण है। स्वतन्त्रता, समता और न्याय की मांग करता बंधुत्व की भावना से प्रेरित मानवीय साहित्य है। वह आपको गरियाता नहीं  बल्कि अपनी मानवीय गरिमा से पूर्ण आपसे बराबरी के स्तर पर हाथ मिलाने का इच्छुक है। दलित मानवतावादी साहित्य है। आवश्यकता है अपने पूर्वाग्रह के चश्में को हटाकर निष्पक्ष भाव से देखने की।
संपर्क: (मो.) 9818482899
       36/13 ग्राउण्ड फ्लोर
       ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-11000      
 

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