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रविवार, 25 दिसंबर 2011

हाशिए का हासिल

हाशिए का हासिल
-राज वाल्मीकि
         मैं रात की बची बासी रोटियां सुबह को कूड़े की बाल्टी में नहीं फेंकता। उन्हें अलग रख लेता हूं। पार्क में सुबह की सैर के लिए जाते समय उन रोटियों को साथ ले जाता हूं। कारण यह है कि पार्क में पास ही एक कूड़ाघर है। वहां कागज चुनने वाले इन्सानों से लेकर कूड़े में कुछ खाद्य ढूढते गाय एवं कुत्ते भी मौजूद होते हैं। मैं उन रोटियों को वहां फेंक देता हूं ताकि गाय या कुत्ते जो उस समय वहां उपस्थित होते हैं, खा सकें। हालांकि रोटियों को फेंकते समय दुष्यन्त कुमार की पंक्तियां मन में कौंध जाती हैं कि ‘हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत, तुमने बासी रोटियां नाहक उठाकर फेंक दीं।’ पर इससे भी बेचैन करने वाली स्थिति तब होती है जब कुत्तों का झुण्ड उन रोटियों पर टूट पड़ता है। तब डार्विन की थ्योरी याद आती है - सर्ववाईल ऑफ द फिटेस्ट’ - जो शक्तिशाली होगा वही जिएगा। रोटियों पर शक्तिशाली कुत्ते ही अपना आधिपत्य जमा लेते हैं। कभी-कभार भूले-भटके से कोई रोटी किसी पिल्ले के मुंह पड़ जाती है तो बड़े कुत्ते उस से छीन लेते हैं और पिल्ला बिचारा अपना मन मसोस कर रह जाता है।

यह दृश्य देखते हुए अनायास ही अपने यहां की सामाजिक व्यवस्था का स्मरण हो आता है। सरकारी योजनाएं याद हो आती हैं। येे योजनाएं लागू करने के लिए कम और कागजों पर खानापूर्ति के लिए अधिक होती हैं। योजनाओं के कुछ टुकड़े सरकार जरूरतमंद या लाभार्थी तक फेंकने  की कोशिश भी करती है तो उसका लॉयन शेअर दलाल हड़प जाते हैं। और बचा हुआ उस जरूरतमंद तक पहुंचा या  नहीं उसकी भी कोई गारन्टी नहीं। यदि पहुंच भी गया तो यह भी सुनिश्चित नहीं होता कि उसका उपयोग वह कर भी पाएगा या नहीं। उस पर भी झपट्टा मारने के  लिए गिद्ध दृष्टि जमाए होते हैं। मन में प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों है कि देश की अधिकांश जनता  रोजी-रोटी, शिक्षा एवं आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं से महरूम है तो दूसरी ओर मुट्ठी भर समृद्ध वर्ग हर तरह से जिन्दगी के  मजे ले  रहा है। एक के पास इतनी राशि नहीं है कि अपने परिवार को  दो वक्त पेट भर रोटी खिला सके तो दूसरा अकूत संपत्ति  का मालिक है। क्या ये असमान वितरण व्यवस्था के कारण नहीं है?

समस्या आर्थिक ही नहीं सामाजिक भी है बल्कि कहना चाहिए कि सामाजिक पहले है। सामंतवादी एवं मनुवादी व्यवस्था ने समाज के बड़े वर्ग को हाशिए पर धकेल रखा है। उन्हें जान-बूझकर  गरीब, जर्जर व सबसे निचले पायदान पर रखा है ताकि हमेशा उनका शोषण किया जा सके। पहले तो उनसे उनके सारे आर्थिक स्रोत जैसे जमीन-जंगल छीन लिए गये। फिर उन्हें गुलाम बनाकर अपनी सेवा में लगा दिया। मनुवादी व्यवस्था ने कुछ इस तरह की उच्च-निम्न वंश क्रम परम्परा रखी ताकि आजीवन वे शोषण की चक्की में पिसते रहें। उन्हें नीच समझे जाने वाले पेशे दे दिए जिससे ये निर्धन एवं अज्ञानी लोग अपने भाग्य मे लिखा मानकर सदियों से करते आ रहे हॅैं। एक जाति विशेष के लोगों को अपना मल साफ करने का काम सौंप दिया। पितृसत्ता के कारण इस जाति के पुरूषों ने ये काम अपनी महिलाओं पर थोप दिया गया। एक इन्सान का मल दूसरा इन्सान साफ करे  यह कितना ही घृणित एवं वीभत्स  क्यों न हो, पर हमारे देश की कड़वी सच्चाई है। मृत पशुओं का चमड़ा उतारने वाले चमार हों या सूअर पालने वाले खटीक हों, समाज व्यवस्था में वे भेदभाव से ग्रसित हैं। नट, कंजर, सांसी, कलंदर, बावरिया, पांसी, बंजारे जैसी जातियां तो ऐसी हैं जो अपने ही मुल्क में खानाबदोेश हैं। उनका न कोई घर है न ठिकाना। संपरे, बन्दरों का खेल दिखाने वाले, रस्सी पर करतब दिखाने वाले, चूहे खाने वाली मुसहर जाति के लोग सब इसी देश के नागरिक हैं जिन्हें सदियों से हाशिए पर रखा गया है। इन लोगों को न तो शिक्षा की व्यवस्था है और न दो जून की रोटी के लिए कोई सम्मानित पेशे-रोजगार की। ऐसा लगता है कि ये इस देश के नागरिक ही नहीं हैं।इनकी आर्थिक स्थिति जर्जर है। सामाजिक स्थिति दयनीय है। ये लोग कुछ इस तरह की जिन्दगी जी रहे हैं मानो वे इन्सान ही न हो। इनकी  कोई मानवीय गरिमा न हो। जब कि सच्चाई यह है  कि ये लोग भी इसी देश के मूलनिवासी हैं। इनका भी देश के संशाधनों पर अधिकार है। देश का संविधान इन्हें भी मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। पर शिक्षा से वंचित, दीन-हीन-गरीब इन लोगों को मनुवादी व्यवस्था ने दूध की मक्खी की तरह निकाल बाहर कर दिया है। इनका उत्थान परमावश्यक है।

इन लोगों को तीन चीजों की परमाश्वयकता है - वे हैं शिक्षा, रोजगार एवं सामाजिक सुरक्षा। ये अशिक्षित लोग न तो अपने अधिकारों को जानते हैं और न लोकतन्त्र को। दिन भर के कठिन शारीरिक परिश्रम के बाद बस किसी तरह परिवार की दो जून की रोटी नशीब हो जाए यही इनका अभीष्ट होता है। व्यवस्था द्वारा इनका अनवरत शोषण जारी है। दबंग जातियां न केवल इनसे अपनी बेगार करवाती हैं बल्कि इनका आर्थिक एवं शारीरिक शोषण भी करती हैं। देश को आजाद हुए 64 साल बीत गये पर इन्हंे क्या हासिल हुआ? ये अज्ञानी तो इसे अपनी नियति मानते हैं पर क्या इसमें सरकारी ब्यूरोक्रेट्स की नीयत बल्कि कहिए बदनीयत नहीं झलकती? प्रश्न यह भी है कि इन्हें न्याय, स्वतन्त्रता, समानता एवं मानवीय गरिमा आखिर कब हासिल होगी और कैसे?

संपर्क: 9818482899,  36/13 ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

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