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रविवार, 25 दिसंबर 2011

जन सरोकार और मीडिया

लेख
जन सरोकार और मीडिया
-राज वाल्मीकि

हाल ही में अन्ना हजारे को लेकर मीडिया ने जिस तरह की कवरेज दी और सन् 1942 के  गांधी जी ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ की तर्ज पर ‘भ्रष्टाचार भारत छोड़ो’ का नारा उछाला, इससे साबित हो गया कि मीडिया लोगों की भावनाओं को भुनाने मेें किस तरह माहिर है। एक तरफ अन्ना हजारे का आन्दोलन दिखाकर दूसरी तरफ विज्ञापनों की भरमार कर मीडिया ने फायदे का सौदा किया है। पर मीडिया ने इस ओर लोगो का ध्यान दिलाने का कष्ट नहीं किया कि देश कां एक संविधान  भी है। किसी विधेयक को पास करने के संसद के कोई नियम-कायदे भी हैं। बस लग यही रहा है कि अन्ना हजारे की अन्शन की आंधी में मीडिया अन्ना हजारे को दूसरा गांधी सिद्ध करने पर तुली है। लगता है अन्ना हजारे के प्रचार-प्रसार में मीडिया यह भी भूल गई है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के बाद उसे ही लोकतन्त्र का चौथा खंभा कहा जाता है।
 प्रसंगवश कहना चाहूंगा कि चौबीस जुलाई के जनसत्ता में विनीत कुमार का लेख ‘साख पर सवाल’ पढ़ा। जिसमें उन्होने रूपर्ट मर्डोक के माध्यम से मीडिया की और विशेष कर पत्रकार की साख पर सवाल उठाये हैं। वे कहते हैं ‘यह बड़ा सवाल है कि पत्रकार पाठकों, दर्शकों के प्रति गैर जिम्मेदार और संस्था के प्रति जिम्मेदार होकर जो साख गंवा रहा है, उसमें उसे आखिर हासिल क्या है?’ पर यह सवाल क्या सिर्फ पत्रकार से किया जाना चाहिए? मीडिया का उद्योग चलाने वाली संस्थाओं से क्या ये सवाल नहीं किया जाना चाहिए? ये संस्थाएं विज्ञापनदाताओं को किस तरह उनके पाठकों एवं दर्शकों को बेचती हैं, क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए? शुद्ध मुनाफा कमाने वाली संस्थाएं अपना लाभ देखें कि पाठकों एवं दर्शकों के प्रति अपना दायित्व निभाएं?
नीरा राडिया प्रकरण में मीडिया की असलियत सबके सामने आ गई थी। हमारे यहां तो मीडिया में जातिवादी मानसिकता भी व्याप्त है। 2006 के मीडिया सर्वे में पाया गया था कि मीडिया में कुछ जाति विशेष के लोगों का वर्चस्व है। अनुसूचित जाति/जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की भागीदारी नगण्य है। दूसरी बात ये है कि हमारे यहां जातिवादी मानसिकता, पितृसत्ता, साम्प्रदायिक वैमनस्य जैसी बड़ी समस्याएं हैं जिनके समाधान में मीडिया बड़ी भूमिका निभा सकता  है। बढ़ती मंहगाई पर लगाम लगाने के लिए मीडिया सत्ता पर दबाव बना सकता है। पर ऐसा कुछ भी नहीं है बल्कि सत्ता और मीडिया का चोली-दामन का साथ हो गया है।
बाजारवाद व्यवस्था पर हावी हो गया है। यहां आमजन एक उत्पाद बन गया है जिसे बेचने में मीडिया भी शामिल हो गया है। देश में पूंजीवादी व्यवस्था अर्थ व्यवस्था पर हावी  है। पत्रकार को वही करना है जो उसे कहा गया है । अगर वह अपनी मर्जी से कुछ करना चाहे जिसमें मीडिया संस्था का लाभ न हो तो व्यवस्था उसे बाहर का दरवाजा दिखाने में देर नहीं लगाती। ऐसे  में एक जिम्मेदार पत्रकार क्या करे? अपनी नौकरी बचाए या अपना नैतिक दायित्व पूरा करे? जाहिर है पत्रकार भी हमारी-आपकी तरह एक इन्सान है। उसे भी अपने परिवार का भरण-पोषण करना है। अपनी आजीविका बचानी है।  ऐसे में मालिक के खिलाफ कैसे जा सकता है? गौरतलब है कि एन.डी.टी.वी. पर एक ‘रवीश की रिर्पोट’ कार्यक्रम आता था जो आम आदमी की जिन्दगी उनकी दुख-तकलीफों को दिखाता था। उसे बन्द कर दिया गया। माना रवीश अच्छे पत्रकार हैं पर वे मालिक नहीं हैं। यहां मालिक पूंजीपति हैं। सब कुछ मालिक की मर्जी से चलता है। मालिक भी जानता है कि उसने मीडिया में निवेश मुनाफा कमाने के लिए लगाया है न कि समाज सेवा के लिए। पर प्रश्न यह उठता है कि क्या सीमित लाभ कमाते हुए अपने नैतिक दायित्व भी निभाए जा सकते हैं? इसका जवाब तो मीडिया मालिक ही दे सकते हैं।
अगर इलेक्ट्रिोनिक मीडिया की बात करें तो वहां अंधविश्वास से भरपूर कार्यक्रमों को दिखाकर आमजन की आस्था को भुनाकर पैसे बनाए जा रहे हैं। उन्हें अंधविश्वासों, रूढ़ियों में लिप्त किया जा रहा है जबकि मीडिया का दायित्व बनता है कि वह पाठकों/दर्शकों को जागरूक बनाए। उन्हें वैज्ञानिक सोच से लैस करेे। आमजन के प्रति होनेवाले अन्याय, उत्पीड़न, अत्याचार के बरक्स  मीडिया न्याय के लिए आमजन के साथ खड़ा हो।
अब तो पेड न्यूज का जमाना आ गया है। आप पैसे खर्च कीजिए और अपने पक्ष में न्यूज बनवा लीजिए। पॉवरफुल लोग अब भी अपने खिलाफ खबरों को दबा देते हैं । जो पत्रकार लालच में नहीं आते। धमकियों से नहीं डरते। निष्पक्ष पत्रकारिता करते हैं। ऐस खबर देने वाले एक दिन खुद खबर बना दिए जाते हैं। जे.डे. का उदाहरण हमारे सामने हैं। दूसरी बात आती है अन्दरूनी शोषण की। पाठक वही पढ़ते हैं जो प्रिंट मीडिया में छपता है या कहें कि श्रोता व दर्शक वही सुनता व देखता है जो इलेक्टिोनिक मीडिया सुनाता व दिखाता है। मीडिया के अन्दर की खबर किसी को पता नहीं होती। मीडिया में कहीं जातिवादी मानसिकता के कारण दलित वर्ग के पत्रकार का मानसिक उत्पीड़न किया जाता है, तिरस्कार किया जाता है या किसी महिलाकर्मी का यौन शोषण किया जाता है। ऐसी घटनाएं खबर नहीं बनतीं।
विनीत जी माने या न माने मगर यह सच है कि पत्रकार मालिकों के हाथों मजबूर हैं। उनके हाथ बंधे होते हैं। मान लीजिए कि कोई पत्रकार अपने ही संस्थान में हो रहे भ्रष्टाचार, उत्पीड़न या शोषण का पर्दाफाश करना चाहता है। क्या उसे ऐसा करने दिया जाएगा? क्या नौकरी से ही उसकी छुट्टी नहीं कर दी जाएगी। मीडिया मालिक के किसी रसूख वाले व्यक्ति से अच्छे संबंध  हैं तो क्या उसके अपराधों/कुकर्माें की खबर मीडिया हाईलाईट करेगा? हरगिज नहीं।
पत्रकारों से एक बार एक अनपढ़ आम महिला द्वारा किया गया मासूम-सा सवाल सोचने पर मजबूर कर गया। वह बोली- ‘‘मैने सुना है आप पत्रकारों का बड़ा नाम होता है। बड़े-बड़े लोगों तक पहुंच होती है। आपके लिखे में दम होता है। आप एक काम क्यों नहीं करते। आप महंगाई कम क्यों नही करा देते? हमारा तो इस मंहगाई में जीना मुहाल हो रहा है। क्या खाएं? क्या बच्चों को खिलाएं? कैसे उन्हें पढ़ाएं लिखाएं? आप लोग कुछ करते क्यों नहीं?’’ क्या पत्रकारों के लिए इस सवाल का जवाब देना आसान है? इस महिला को पत्रकारों पर कितना विश्वास है। आज भी अखबारों मंे छपे शब्दों पर लोग पूरा विश्वास करते हैं। टी.वी. में देखे को सच मानते हैं। आमजन उसके पीछे छिपी चीजों या कहें बिहाइन्ड द कर्टेन जो है वे उससे अनजान होते हैं। खबरें कितनी तोड़-मरोड़ कर पेश की जाती हैं वे इसे नहीं जानते। अखबारों में छपी खबरों या टी.वी. में देखी खबरों के अनुसार ही वे  अपना मत बनाते हैं। इस तरह मीडिया लोगों के विचार बनाने में भी अपनी भूमिका निभाता है। हर आम इन्सान में  तो मीडिया की खबरों का विश्लेषण करने  की क्षमता होती नहीं।

विनीत कुमार कहते हैं - ‘लोकतांत्रिक संस्थान के तौर पर मीडिया ने इन पत्रकारों का बहिष्कार नहीं किया।’ पहली बात तो यही है कि क्या मीडिया सचमुच एक लोकतांत्रिक संस्थान है? यह कथन ही हास्यास्पद लगता है। लोकतांत्रिक तो अपना लोकतंत्र भी नहीं है। ये अलग बात है कि यहां तानाशाही भी लोेकतंत्र के नाम पर ही की जाती है। लोकतन्त्र का मंत्र तो यही कहता है कि जनता ही सर्वशक्तिमान होती है। पर यहां आमजन की जो हालत है वह किसी से  छिपी नहीं है। मीडिया को भी लोकतंत्र का चौथा खम्भा माना जाता है। पर क्या हमारे यहां सरोकारों की पत्रकारिता हो रही है? यदि हो भी रही है तो कितने प्रतिशत? जाहिर है जन सरोकारों की बात करने वाला पत्रकार यहां मूर्ख या आउट डेटेड माना जाता है। कोई  जन सरोकारों व आमजन की आवाज उठाता भी है तो नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह उसकी आवाज दब जाती है या दबा दी जाती है।
ये बात सही है कि आज के समय में मीडिया अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। मीडिया चाहे तो जनक्रांति का वाहक बन सकता है। भ्रष्टाचार एवं लोकपाल बिल के मुद्दे पर देश भर में अन्ना हजारे को मिला जनसमर्थन एवं अन्ना हजारे को हीरो बनाने का श्रेय भी मीडिया को जाता है। आज धन का असमान वितरण, शक्तिशाली द्वारा निर्बल का शोषण, धनी  द्वारा निर्धन का शोषण, दबंगों द्वारा आम जन पर अत्याचार, बेतहाशा बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के लिए  मीडिया चाहे तो अपनी अहम भूमिका निभा सकता है। जनक्रांति ला सकता है। पर बात वही कि जब मीडिया उद्योग के लोग अपने लाभ एवं जन सरोकारों में एक संतुलन बनाएं तभी ऐेसा हो सकता है। पर क्या मीडिया उद्यम चलाने वाले इस ओर ध्यान देंगे?
संपर्क: 36/13, ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

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