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रविवार, 25 दिसंबर 2011

छुआछूत और मैला ढोने की प्रथा: आखिर कब तक?
-राज वाल्मीकि
हम भले ही इक्कीसवीं सदी के वर्ष 2010 के वैज्ञानिक युग में जी रहे हों किन्तु ऊंच-नीच पर आधारित जातिवादी व्यवस्था का दंष झेलने को हम दलित आज भी विवष हैं। अब आप सोहनलाल जी का ही उदाहरण ले लीजिए। वे गांव के ठाकुर के यहां से अनाज खरीदने गये। दिल्ली ष्षहर में पले-बढ़े सोहनलाल वाल्मीकि उत्तर प्रदेष के एक गांव में रह रही अपनी दादी के लिए वर्ष भर के खर्च हेतु गेंहू लेने ठाकुर प्रताप सिंह के यहां गये थे। ठाकुर घर पर न होने के कारण उन्हें कुछ देर इन्तजार करने के लिए कहा गया। तो वे वहीं पड़ी ठाकुर की चारपाई पर बैठ गये। ठाकुर जब आया और उन्हें उनकी जाति का पता चला तो चारपाई पर बैठने के कारण वह आग-बबूला हो गया। और उन्हें उनके भंगी होने की औकात बताते हुए फिर कभी ऐसी हिमाकत न करने की हिदायत के साथ बिना अनाज दिए ही भगा दिया। दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ रहे राजेष के साथ भी ऐसा ही वाक्या हुआ। वह गांव जा रहा था। कसबे तक तो बस से पहुंच गया। आगे तांगे से जाना था। पर तांगे वाला किसी वजह से वहां नहीं पहुंचा था। अतः वह पैदल ही गांव की ओर चलने लगा। रास्ते में उसे प्यास लगी। एक मन्दिर के पास कुआं था। वह पानी भरने के लिए कुएं पर चढ़ने ही वाला था कि पंडित जी ने उसे रोक दिया और पूछा - ‘कौन जात हो?’ उसके भंगी बताने पर पंडित जी ने कहा - ‘ भंगियों का कुएं पर चढ़ना मना है। बाल्टी, रस्सी छूना मना है। तुम चाहो तो मैं तुम्हें पानी निकाल कर दे सकता हूं। तुम अंजुरी बना लेना  मैं उपर से डाल दूंगा।’ राजेष इतना अपसेट हुआ कि बिना पानी पिए ही वह गांव की ओर चल पड़ा। इसी प्रकार मेरे एक मित्र राजकुमार ने बताया कि वे राजस्थान के जेसलमेर में गये। वहां उन्होने वाल्मीकियों के चाय के कप अलग रखे देखे। वहां जात पूछ कर ही चाय पिलाई जाती है और जाति के अनुसार ही कप प्रदान किए जाते हैं। वाल्मीकियों के कप में और कोई जाति का व्यक्ति चाय नहीं पीता।
उपरोक्त उदाहरण हैं - अस्पृष्यता यानी छुआछूत के। एक बार मैंने एक गांव के सवर्ण जाति के व्यक्ति (जो मेरी जाति नहीं जानता था) से पूछा - ‘वाल्मीकि (भंगी) जाति के व्यक्यिों से इतनी छुआछूत क्यों की जाती है?’ तो उसने बताया कि - ‘ भाई साहब, ये छोटी जाति के लोग हैं। बहुत गन्दा काम करते हैं। दूसरों का मल-मूत्र उठाते हैं। इनके साथ खान-पान का व्यवहार कैसे किया जा सकता है। ये लोग तो नीच होते हैं।’ मुझे बड़ा अटपटा लगा। उनसे बहस भी हुई। खैर। कहने का तात्पर्य यह है कि मैला प्रथा के कारण समाज में आज भी छुआछूत बरकरार है या कह सकते हैं कि छुआछूत के कारण मैला प्रथा अस्तित्व में है।
यूं तो संविधान और कानून में अस्पृष्यता का अन्त कर दिया गया है और मैला ढोना भी गैर कानूनी है। पर समाज की असलियत क्या है  आप और हम सभी जानते हैं।
छुआछूत की भावना के बारे में अगर हम अतीत में झांके तो स्थिति यह भी थी कि इस समुदाय के व्यक्ति को अने आगे थूकने के लिए मटकी लटकानी पड़ती थी और पीछे झाड़ू बांधनी होती थी। ताकि उसके पैर के निषान पर किसी सवर्ण का पैर न पड़ जाए और वह अपवित्र न हो जाए। उसका मन्दिर में प्रवेष निषेध था  और अभी भी है। दूसरी ओर मनु ने मनुस्मृति (जिसे हिन्दू समाज का एक वर्ग अपना संविधान मानता है) में ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि न केवल उसे षिक्षा से दूर रखा जाए बल्कि गलती से  कोई वैदिक ष्षब्द उसके कान में पड़ जाए तो उसके कानों में पिघला हुआ शीश्षीषा डाला जाए। वैदिक ष्षब्द बोले तो उसकी जबान काट ली जाए। अच्छे कपड़े पहनने पर दण्ड दिया जाए । उसे हमेषा फटे-पुराने कपड़े पहनने चाहिए और भोजन के रूप में जूठन दी जाए। उसे अपना दास या गुलाम बनाकर रखा जाए।
आज के इस आधुनिक युग में भी मनुवाद जिन्दा है। सफाई कामगार समुदाय आज भी ष्षोषित-पीड़ित है। मानवाधिकारों से वंचित है। आज भी उसे गांव के बीच मंे रहने का अधिकार नहीं है।  इसलिए इस समुदाय के घर हमेषा गांव के बाहर होते हैं। इन्हें इज्जत से जीने की मना ही है। अगर कोई समाज में फिर भी ष्षान से जीना चाहने की हिमाकत करता है तो खैरलांजी जैसे काण्डों को अन्जाम दिया जाता है। गौहाना, झज्जर, सालवन, महमदपुर जैसे काण्ड हो जाते हैं। इस समुदाय का कोई युवक किसी सवर्ण जाति की युवती से प्रेम करने जैसा ‘अपराध’ करता है तो उसे सरेआम फांसी पर लटका दिया जाता है। संविधान को ताक पर रखकर ‘मनुस्मृति’ के ‘कानून’ लागू किए जाते हैं।
अतः ऐसे में प्रष्न उठना स्वाभाविक ही है कि क्या हम आधुनिक और वैज्ञानिक तथा ‘ग्लोबल विलेज’ कही जाने वाली इस इक्कीसवीं सदी मंे जी रहे हैं? आज पूरे विष्व में मानव अधिकारों  की बात की जा रही है। ‘ सबको इज्जत के साथ जीने का अधिकार है’ इस बात पर जोर दिया जा रहा है। समता, समानता और सम्मान की बात की जा रही है। और एक हमारा तथाकथित सभ्य समाज है जहां आज भी मैला ढोने जैसा अमानवीय कार्य हो रहा है। एक ओर तो समाज ने इस समुदाय विषेषश् को जान बूझकर इस गन्दे, घृणित और अमानवीय पेषे में ढकेला है। दूसरी ओर  इस गन्दे पेषे के कारण उससे छुआछूत का बर्ताव भी किया जा रहा है। मैला प्रथा के कार्य पर प्रतिबन्ध के बारे में बने कानून (1993) को भी 16 वर्ष हो रहे हैं पर अभी भी यह घृणित प्रथा जारी है। यह न केवल मानव अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि मानवता पर भी कलंक हैं। अन्य देष के समक्ष भारत ष्षर्मिन्दा है। प्रष्न अभी भी यही है कि आखिर कब तक हम इस मैला प्रथा को ढोते रहेंगे? कब हम बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की विचारधारा को अपनांएगे? कब हम ‘षिक्षा, संगठन, संघर्ष’ को अपने जीवन में कार्यान्वित करेंगे? कब हमारे सभ्य समाज को मैला प्रथा के इस वीभत्स, घृणित सत्य पर ष्षर्म आएगी? कब? कब? आखिर कब?
ये प्रष्न भले ही अनुत्तरित हों पर सफाई कर्मचारी आन्दोलन ने यह ठाना है कि अब सफाई कर्मचारियों को मैला नहीं उठाना है। बस्स बहुत हो चुका। अब वे नारे लगा रहे हैं  ‘बन्द करो। बन्द करों। मैला प्रथा बन्द करो।’ सफाई कर्मचारी आन्दोलन ने अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया है कि वर्ष दो हजार दस: बस। वर्ष 2010 के अन्त  तक इस अमानवीय प्रथा का अन्त हम करके ही रहेंगे। भारत से 2010 तक मे मैला प्रथा उन्मूूलन का हमारा अभियान जारी है। ताकि यह समुदाय भी आत्मसम्मान, समानता और इज्जत की जिन्दगी जी सके। यदि हमारा सभ्य समाज मानवता में विष्वास करने वाला समाज है तो मानव अधिकारों से वंचित समुदाय को  अपने साथ लाने में हमारे साथ किसी भी प्रकार की मदद कर अपना मानवीय कर्तव्य निभाना चाहता है तथा अपना यथायोग्य सहयोग करने का इच्छुक है और हमारे इस अभियान मे ष्षामिल होना चाहता है तो उसका  तहेदिल से स्वागत है। (लेखक सफाई कर्मचारी आन्दोलन में दस्तावेज समन्वयक हैं)
संपर्क: मो. 9818482899 36/13, ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

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