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सोमवार, 4 अप्रैल 2011

जिन्दगी का सफर

जिन्दगी का सफर                                               -राज वाल्मीकि





अन्त्येष्टि मे शामिल होकर हमारा-आपका यदा-कदा शमशान भूमि मे जाना होता है जहां लकड़ियों की चिता तैयार हो रही होती है। शव जो हमारे किसी परिवार के सदस्य, सबंधी, प्रियजन, मित्र या मित्र के किसी सबंधी का होता है उस शव को देखकर एक अलग तरह की फीलिंग आती है। हो सकता है अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह की फीलिंग होती हो। किन्तु मुझे लगता है कि उस फीलिंग को पूरी तरह शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। पर इतना तो लगता ही है कि आज इस व्यक्ति की जिन्दगी का सफर खत्म हो गया। एक दिन मुझे भी इसी स्थिति में आना होगा। किसी शमशान भूमि में मेरा शव रखा होगा। परिवार के लोग, रिश्तेदार, मित्र अपना अंतिम फर्ज निभाते हुए अंतिम संस्कार कर रहे होंगे। मुझे इस संसार को अलविदा कहना होगा। सभी तो छूट जाएंगे- सगे-संबंधी, दोस्त, रिश्तेदार। मौत कब आएगी, कैसे आएगी, कहां आएगी - यह पहले से कुछ तय नहीं होता। हां, यह निश्चित है कि मौत का एक दिन मुअय्यन है। मृत्यु के बारे में किसी कवि की पंक्तियां हैं - ‘मृत्यु एक सागर है जिसमें श्रम से कातर जीव नहाकर, फिर नूतन धारण करता है, काया रूपी वस्त्र बहाकर।’ कबीर भी कहते हैं कि ‘आया है सो जाएगा राजा, रंक, फकीर।’ संसार में हम खाली हाथ आए थेे, खाली हाथ ही जाएंगे। इस आने और जाने के बीच का नाम ही है जिन्दगी। शेक्सपीअर ने भी कुछ ऐसा ही कहा है कि ये दुनिया एक रंगमंच है और हम मानव अभिनेता-अभिनेत्री । हम अपनी भूमिका निभाकर चले जाएंगे।

हालांकि मौत के बारे में सोचकर अधिकांश लोगों को डर लगता है। लोगों का मौत के बारे मे अपना दर्शन होता है। शायर लिख गया है कि मौत से क्यों इतनी दहशत जान क्यों इतनी अजीज, मौत आने के लिए है जान जाने के लिए। या फिर, जिन्दगी तो बेवफा है एक दिन ठुकराएगी, मौत मेहबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी।’ गीतकार ने लिखा है - जिन्दगी एक सफर है सुहाना.... मौत आनी है आएगी एक दिन, जान जानी है जाएगी एक दिन। ऐसी बातो से क्या घबराना। वैसे हकीकत यह भी है कि न जन्म हमारेे वश मे होता है और न मृत्यु। इच्छा मृत्यु या आत्महत्या की बात अलग है। ये भी लोग मजबूरी में ही करते हैं।

अब बात आती है जीने की। कई बार मन में यह प्रश्न उठता है कि - हम जीते क्यों हैं? इस बारे मे विभिन्न लोगो के विभिन्न मत होते हैं। पर सच तो यह है कि इस प्रश्न का उत्तर इतना आसान भी नहीं है। प्रकृति हमें अपने तरीके से ढालती चली जाती है और हम ढलते चले जाते हैं। जन्म लेते हैं, बच्चे होते हैं, युवा होते हैं, वृद्ध होते हैं, मर जाते हैं। प्रकृति का यह जीवन-चक्र निरन्तर चलता रहता है। दरअसल प्रकृति की सच्चाईयां बहुत मधुर भी हैं और बहुत खौफनाक भी। जैसे बच्चे का जन्म मीठी सच्चाई है तो व्यक्ति की मृत्यु कड़वी सच्चाई। लेकिन हां, जब तक हम जीते हैं, हमारे दिमाग में भविष्य के सपने पलते रहते हैं। हम भविष्य में ये करने की, वो करने की, न जाने क्या-क्या करने की, योजनाएं बनाते रहते हैं। पर मौत अचानक हमें अपने आगोश में ले लेती है। जैसे जलता हुआ बल्ब, रोशनी बिखेरता हुआ बल्ब, अचानक किसी भारी वस्तु के आघात से टूटकर बिखर जाए! और चारों ओर घुप्प अंधेरा हो जाए!! इन्सान के शरीर के साथ-साथ उसकी भविष्य की योजनाओं पर अचानक ब्रेक लग जाता है - सब कुछ खत्म। जैसे किसी शिशु या मासूम बच्चे के हाथ में हवा भरा रंग-बिरंगा प्यारा-सा गुब्बारा अचानक फट जाए! और वह शिशु या बच्चा हक्का-वक्का, भौचक्का रह जाए! जिन्दगी के सफर में कब अचानक ब्रेक लग जाए - कहा नहीं जा सकता। जिन्दगी की गाड़ी में कोई बैक गियर नहीं है। कम्प्यूटर की तरह ‘अनडू’ कमाण्ड नहीं है। कभी इन्सान सोच भी नहीं पाता - जीवन क्या जिया। ये सफर क्यों शुरू हुआ और क्यों खत्म। संदर्भित संबंध में चिंतन करते हुए एक गाने की पक्तियां याद आ रही हैं - जिन्दगी का सफर, है ये कैसा सफर?...


संपर्क: 36/13 ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008



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