पुस्तक-समीक्षा
जातीयता और पितृसत्ता की विरासत ‘मां मुझे मत दो’
-राज वाल्मीकि
मुकेश मानस की कविता की कुछ पंक्तियों को उद्धृत कर अपनी बात षुरु करता हूं - ‘उसने मेरा नाम नहीं पूछा, काम नहीं पूछा, सिर्फ पूछी एक बात, क्या है मेरी जात, मैंने कहा इन्सान, उसके होठों पर थी कुटिल मुस्कान’ मुस्कान का कारण स्पष्ट था। क्योकि उसने सदियों से दलित वर्ग को इन्सानी हकों से महरुम कर जलालत और अपमान के दोजख मे ढकेल कर पशुओं से भी बदतर स्थिति में पहुंचा दिया। सदियों तक वह इस अमानवीय स्थितियों से मुक्ति हेतु छटपटाता रहा। पर मनुवादी व्यवस्था ने उसकी आवाज छीन ली थी। घुट-घुट कर मर-मर कर जीने को छोड़ दिया था। ऐसे में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने न केवल उस दोजख से दलितों को मुक्ति का रास्ता दिखाया बल्कि उस दलित वर्ग को बोलने को प्रेरित किया जो अब तक मूक/गूंगे बने हुए थे। जब इस वर्ग को बोलने लिखने-पढ़ने का मौका मिला तो वह चाहे आत्मकथाओं में हो, कहानियों में हो, लेखों में हो, या कविताओं में हो, वह अपनी अभिव्यक्ति देने लगा। इससे वह न केवल अपने दर्द को बयां करने लगा बल्कि अपना आक्रोष भी व्यक्त करने लगा तथा मानवीय गरिमा के खिलाफ किसी भी प्रकार के उत्पीड़न व भेदभाव के खिलाफ उसकी कलम चलने लगी। और न्याय की मांग करने लगी।
आज की चर्चित कवियत्री पूनम तुषामड़ ने भी अपने प्रथम कविता संग्रह ‘मां, मुझे मत दो’ के माध्यम से जातीयता और पितृसत्ता के खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनकी कविताएं इस व्यवस्था से सीधे-सीधे सवाल करती हैं -
‘ वे बताते हैं -
हम हरिजन हैं
हरिजन यानी हरि के जने
तो फिर हम और तुम सजातीय हुए
फिर तुम्हारी आराधना और हमारा तिरस्कार क्यांे?
आखिर यह प्रपंच क्यों?
वे विद्रूपताओं को प्रस्तुत कर इस तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था से पूछती हैं -
गौर सेे निहारो/वक्त के थपेड़ों से/असमय ही बूढ़ी और जर्जर काया को
जो आज भी तुम्हारी व्यवस्था को/मैले के रूप में ढोती है/
एकबार में न जाने कितने आंसू रोती है/...बताओ कि /
तुम्हारे लोकतन्त्र की /कौन-सी तस्वीर उभरती है इनमें?
इतना ही नहीं कवियत्री पूनम तुषामड़ जानती है कि अनपढ़/अषिक्षित दलितों की आंखों पर धर्म, पुनर्जन्म, अंधविष्वास और ईष्वर के नाम की पट्टी बांध दी गई है जिससे वे कभी अपनी मानवीय गरिमा, समानता और न्याय की मांग न कर सकें। इसीलिए कवियत्री ईष्वर और देवता के विरोध में लिखती है -
‘ हे देव! मुझे नहीं चाहिए/तुम्हारे इस भव्य मंदिर में प्रवेष/
नहीं चाहिए तुम्हारा दर्षन और प्रसाद/
क्योंकि तुम पत्थरों की इस सुन्दर इमारत में रखे/
गढ़े हुए पत्थर हो/
और मैं पत्थरों के बीच/पत्थर नहीं होना चाहती।
कवियत्री की नजर उपेक्षित/तिरस्कृत लोगो पर फोकस हुई है और उसने लाईट उठाने वाले, बाल मजदूर तथा सफाई कर्मचारियों पर ‘लाईट उठाने वाले’, ‘एक प्रष्न’, ‘अम्मां’, ‘एक मृतक का बयान’ आदि मार्मिक कविताएं लिखी हैं। और उन पात्रों से व्यवस्था पर सवाल भी उठवाये हैं जैसे ‘एक मृतक के बयान’ में सफाई कर्मचारी कहता है -
‘मैं पूछता हूं -
क्या यही है
मेरे हिस्से का भारत?
जो है निरन्तर
प्रगति पथ पर अग्रसर!’
कवियत्री की नजर सिर्फ जातीय उत्पीड़न/भेदभाव तक ही सीमित नहीं है। वह इस समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था पर भी उंगली उठाती हैं। इसे उनकी ‘बेदखल’ कविता में देखा जा सकता है। कवियत्री समता और सम्मान की चाहत करती हुई ‘एक मुट्ठी आसमां’ कविता में कहती हैं -
मुझे चााहिए समता और सम्मान/
नहीं चाहिए/तुम्हारी दया, करुणा और सहानुभूति/
जिसका कर के गुमान/तुम बनते हो महान
यूं तो पूनम तुषामड़ की कविताएं पूरी की पूरी अम्बेडकरवादी विचारधारा से जुड़ी हैं। पर उन्होंने ‘एक लड़ाई’ और ‘हमने छोड़ दिए हैं गांव’ मे इसे स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। बाबा साहब ने कहा है कि यदि वंचित वर्ग अपनी मुक्ति चाहते हैं तो उन्हें गांव छोड़ देने चाहिए। पूनम जी की कविताओं में भी इस वंचित वर्ग के लोग कहते हैं -
हमने छोड़ दिए हैं गांव/तोड़ दिया है नाता/
गांव के/कुएं, तालाब/मन्दिर और चौपाल से/
जो अक्सर हमें/मुंह चिढ़ाते/नीच बताते/
और कराते हैं जाति का अहसास।
जहां तक इस संग्रह के षिल्प और कलापक्ष का प्रष्न है तो कवियत्री का उद्देष्य सीधे औैर प्रभावषाली ढंग से अपनी बात रखना रहा है। वे प्रतीकों और बिम्बों में नहीं उलझी हैं। जहां कहीं प्रतिमान आंए भी हैं तो आज के संदर्भ मंे आए हैं। जैसे चांद मुझे है भाए अम्मा में चांद उन्हें रोटी जैसा लगता है।
इस संग्रह की षीर्षक कविता ‘मां, मुझे मत दो’ व्यवस्था के नकार की कविता है। जहां नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से स्पष्ट कहती है कि तुमने जो अब तक जातीयता के दंष और पितृसत्ता के भेद झेले हैं वो विरासत में मुझे मत दो।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि युवा कवियत्री पूनम तुषामड़ की कविताएं भारतीय समाज की जातिवादी व्यवस्था, सामंतवादी मूल्यों तथा पितृसत्ता के खिलाफ विद्रोह करने के साथ ही पीढ़ियों से चली आ रही कुरीतियों, अंधविष्वासों तथा रुढ़ियों पर प्रहार करती हैं। विषेष बात यह है कि इस संग्रह की कविताएं मानवीय मूल्यों एवं स्त्री-पुरुष समानता की वकालत करती हैं।
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