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मंगलवार, 6 जुलाई 2010

हमारी पीर को यारो न ये समझे न वो समझे

                                                                                                                                        -राज वाल्मीकि



हमारे भारतीय समाज में अंधविश्वासों एवं रुढ़िवादिता को बहुत महत्व दिया जाता है। स्थिति यह है कि शिक्षित वर्ग भी इनका पालन करता है - परम्परा के नाम पर तीज-त्योहार एवं शादी-विवाह के मौके पर इन्हें अक्सर देखा जा सकता है। हमारे वाल्मीकि भाई-बहन तो कुछ ज्यादा ही अंधविश्वासी हैं। प्रायः देखा जाता है कि वाल्मीकि समाज में किसी के बीमार होने पर लोग डॉक्टर के इलाज के बजाय देवी-देवताओं एवं पूजा-पाठ को अधिक महत्व देते हैं। हमारे देवी-देवता भी विचित्रा प्रकार के होते हैं जो मरीज को ठीक करने के एवज में मुर्गा अथवा सूअर की बली मांगते हैं। इतना ही नहीं वे पीने के लिए शराब भी मांगते हैं। अब ये अलग बात है कि देवताओं को रक्त की धार एवं दो चार बूंद शराब चढ़ा देने के बाद भगत (जिस के सिर पर देवता आते हैं) और उसके संगी-साथी शराब पीकर व मीट खाकर मस्त हो जाते हैं। भले ही मरीज मर जाए या मरीज के घरवाले कर्ज में डूब जाएं - उनकी बला से।



इसी तरह मर्हिर्ष वाल्मीकि की जयन्ती हमारे वाल्मीकि भाई-बहन बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं । हजारों-लाखों रुपये खर्च करते हैं किन्तु यह जानकर अफसोस होता है कि वे मर्हिर्ष वाल्मीकि से सही प्रेरणा नहीं लेते ( मर्हिर्ष वाल्मीकि का हमारे वाल्मीकि (भंगी) समाज से कोई लेना-देना है या नहीं यह विवाद का विषय है और यहां मेरा उद्देश्य वाल्मीकि पर बहस करना नहीं है इसलिए मैं इस विषय पर बात नहीं करुंगा।) कुछ लोग कहते हैं कि मर्हिर्ष वाल्मीकि की कलम को वाल्मीकियों ने झाड़ू बना लिया है और सफाई कार्य में लिप्त हैं। यह स्थिति वाकई दुखद है। हम अपने बच्चों को प्रेरित करें कि वाल्मीकि की कलम से प्रेरणा लेकर अधिकाधिक शिक्षित होकर स्वयं प्रगति करें और सम्मान से जीना सीखें तथा अपने समाज को दयनीय दशा से उबारें। उन्हें सम्मान से जीना सिखाएं। उनमे स्वाभिमान जगायें। मर्हिर्ष वाल्मीकि का जन्मोत्सव मनाने वाली संस्थाओं से मेरी विनती है कि वे इस अवसर पर वाल्मीकि समाज के मेधावी छात्रा-छात्राओं को पुरस्कृत करें ताकि उन्हें शिक्षित होने हेतु प्रोत्साहन मिले। अब समय आ गया है कि वाल्मीकि समाज के हाथ में झाड़ू नहीं बल्कि कलम होनी चाहिए।



हमारे बहुत से वाल्मीकि भाई-बहन ऐसे हैं जो धार्मिक कर्म-काण्डों में डूबे हुए हैं। वे निरंकारी बाबाओं, आशाराम बापुओं तथा अन्य अनेक ऐसे ही धर्मगुरुओं की शरण में जाकर अपने धन एवं समय की बरबादी करते हैं। वे बाबाओं के प्रति अंधश्रृद्धा रखते हैं और उन्हें भगवान से कम नहीं मानते। नियमितरूप से सत्संग में जाते हैं। ऐसे लोगों की मूर्खता से बाबा खूब लाभ उठाते हैं और इन से दान-पूजा के नाम पर मिले पैसे से ऐश करते हैं। कई बार हमारे ये भाई-बहन सत्संगों में बाबाओं की शरण में जाकर इस बात से धन्य हो जाते हैं कि वहां उन्हें उनकी जाति की वजह से नीच नहीं समझा जा रहा है उन्हें सम्मान दिया जा रहा है। किन्तु वहां की हकीकत भी यही होती है कि उन्हें कोई भी उच्च पद नहीं दिया जाता है। जातिवादी इस समाज व्यवस्था में ऊंचा पद तथाकथित ऊंची जाति वालों को ही दिया जाता है। पर हमारे भाई इसी खुशफहमी में जीते हैं कि अब उन्हें सम्मान मिलने लगा है और वे तन-मन-धन से इन बाबाओं की सेवा में अर्पित रहते हैं।



भगवानों और माता रानियों की पूजा करने मे भी इनका कोई जवाब नहीं। इसका प्रमाण है कि हमारे वाल्मीकि भाईयों-बहनों के घर-घर में मन्दिर मिल जाएंगे। नवरातों का व्रत रखने वाले, कांवर ले जाने वाले हमारे बहुत से भाई-बहन मिल जाएंगे। पर यथार्थ यही है कि इस में वे अपना मेहनत से कमाया पैसा और अमूल्य समय की बरबादी करते हैं। वरना वे अपने विवेक से निर्णय करंे और बताएं कि इतना कुछ करने पर भी भगवान ने उन्हें क्या दिया? सुधीर कुमार परवाज के शब्दों में कहें तो -



ये पत्थर है इसे मत पूज ये वरदान क्या देगा

ये अंधा है ये बहरा है ये तुझ पर ध्यान क्या देगा

हमें खुद अपने जीवन के सभी दुख दूर करने हैं

दुखों से हमको छुटकारा भला भगवान क्या देगा



हमारे भारतीय समाज की बड़ी विडम्बना है कि इस में सही व्यक्ति को कभी सही सम्मान नहीं दिया जाता है । हमारा दलित समाज जितनी मेहनत करता है, समाज के प्रति अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, मगर फिर भी आदर के योग्य नहीं समझा जाता। हमारे सफाई कामगारों का उदाहरण हमारे सामने है। सफाई कामगार समुदाय समाज में साफ-सफाई रख समाज को स्वच्छ व स्वस्थ रखता है। उसके इस उत्कृष्ट कार्य हेतु न केवल उसे उचित पारिश्रमिक बल्कि उपयुक्त सम्मान मिलना चाहिए। पर यथार्थ इसके ठीक उल्टा है। समाज में उसे नीच समझा जाता है। हेय-दृष्टि से देखा जाता है। उसे सम्मान के योग्य नहीं समझा जाता। दूसरी ओर ब्राह्मण/पंडित

/पुजारी आलसी श्रेणी के व्यक्ति हैं। परिश्रम करने में इनका विश्वास नहीं है। पूजा-पाठ /कर्मकाण्डों/धार्मिक अनुष्ठानों के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाकर पैसा कमाना ही इनका ध्येय है। इस तरह के व्यक्ति को उनके आलस व लोगों को मूर्ख बनाने के लिए नीच एवं घृणा के योग्य समझा जाना चाहिए। किन्तु सच हमारे सामने है कि ऐसा व्यक्ति सम्मान के योग्य समझा जाता है। उसे आदरणीय कहा जाता है। पूज्यनीय माना जाता है।



अतः इस समय में हमारा यह दायित्व बनता है कि हम न केवल अपने श्रम के महत्व को समझे बल्कि अपने समुदाय के लोगों को समझाएं भी। इतना ही नहीं हम तथाकथित सभ्य समाज को भी चेताएं कि वह हमारे श्रम का सम्मान करें। हमारा महत्व समझे। किन्तु इसके लिए हमें स्वयं जागरुक होना होगा। अपने समाज को जागरुक करना होगा। हमें धर्मकाण्डो, कर्मकाण्डों, अंधश्रृद्धा, अंधविश्वासों से मुक्त होना होगा। धर्म की अफीम की बेहोशी से हमें जाग्रत होना होगा। हमें तथाकथित सभ्य समाज को भी यह अहसास दिलाना होगा कि हम भी मनुष्य हैं और उनसे किसी भी तरह उन्नीस नहीं है। अतः हमें भी समाज में समता चाहिए, सम्मान चाहिए। बराबरी का दर्जा चाहिए। सभी जातियों के मनुुष्यों को भेदभाव कराने वाली/ऊंच-नीच बनाने वाली इस जाति व्यवस्था से ऊपर उठकर आपसी मानवीय प्रेम, सद्भावना, अपनत्व को अपना कर मानवता की बुनियाद को मजबूत करना होगा। तभी ये देश गर्व करने के योग्य होगा। हमारा समाज एक सभ्य समाज कहलाने का हकदार होगा।



किन्तु अभी का यथार्थ इसके विपरीत है। आखिर कब तक हम जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव का दंश सहते रहेंगे। हमारे दर्द को , हमारी पीर को लोग कब समझेंगें? अभी तो मैं महेन्द्र मोहनवी के शब्दो में यही कह सकता हूं कि -



नयन के नीर को यारो न ये समझे न वो समझे

हमारी पीर को यारो न ये समझे न वो समझे

इन्होंने कर दिया अंधा उन्होंने कर दिया बहरा

मिरी तासीर को यारो न ये समझे न वो समझे

कहीं है भाग्य का रोना, कहीं तकदीर में उलझे

मगर तदबीर को यारो न ये समझे न वो समझे

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