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शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

लेख

                                        बदलाव की बयार
                                                                               -राज वाल्मीकि

विचित्र व्यवस्था है हमारे देश की। यहां किसी तथाकथित ऊंची जाति का कुत्ता भी किसी दलित के घर रोटी खा ले तो अछूत हो जाता है! ऐसे में स्कूली बच्चे दलित महिला के हाथ का बना खाना खाने से इन्कार कर दे तो अस्वभाविक नहीं लगता। इस बात पर आश्चर्य जरूर होता है कि सभ्यता के किस युग में जी रहे हैं हम? व्यवस्था की बर्बरता देखिए कि आज भी तथाकथित ऊंची जाति के लोग कच्चे पाखानों में मल त्याग करते हैं और उनके जैसा ही हाड़-मांस का इन्सान दलित और विशेष कर दलित स्त्रियां उन्हें अपने हाथों से टीन और झाड़ू की सहायता से साफ करते हैं। इसे देखकर क्या आप कह सकते हैं कि हम आधुनिकतम और सभ्य हैं? क्या विडम्बना है कि एक तरफ तो राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन कर देश दुनिया भर में वाह-वाही लूट रहा है, स्वयं को आधुनिकतम और सभ्य घोषित कर रहा है। वहीं सदियों पुरानी सड़ी-गली, भेदभाव आधारित अमानवीय जाति व्यवस्था को ढो रहा है। एक ऐसी व्यवस्था को जहां दलित कहे जाने वाले एक वर्ग विशेष को गाय या कुत्ते से भी गया गुजरा समझा जा रहा है। उनकी नजर में पशु (गाय) श्रेष्ठ है और अपने ही जैसे इन्सान (दलित) नीच! सदियों से ऐसा मानकर चला जा रहा है कि दलित व्यक्ति का जन्म तथाकथित ऊंची जातियों की सेवा करने के लिए हुआ है। उनकी गुलामी के लिए हुआ है।



दुनिया के इतिहास में एक समय ऐसा भी था जब काले लोगों को गोरे लोगों की गुलामी करनी पड़ती थी। गुलाम बेचे और खरीदे जाते थे। एन्ड्रोंक्लीज का किस्सा मशहूर है। पर समय के साथ बदलाव आया। काले लोगों को गुलाम समझने वाला अमेरिका आज उन्हें इन्सान समझ रहा है। हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी को अनिवार्य कर दिया गया है। यूं गुलामी मे जकड़ा व्यक्ति गुलामी का अभ्यस्त हो जाता है और उसका मालिक उस पर हुक्म चलाने का। ऐसी परिस्थितयो से उबरना आसान नहीं होता। पर इतिहास साक्षी है कि समय समय पर उनका भी कोई न कोई मुक्तिदाता पैदा हुआ है जो उन्हें उनके गुलाम होने का अहसास करा देता है, चाहे काले लोगों के लिए मार्टिन लूथर किंग हो या दलितों के लिए बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर। जब गुलाम को उसके गुलाम होने का अहसास हो जाता है। उसे भी उसके मालिक जैसा एका इन्सान होने का अहसास हो जाता है तो फिर वह स्वयं गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए छटपटाने लगता है और निरन्तर संघर्ष के बाद उस बेड़ियों को तोड़ने में सफल हो जाता है। जैसा अमेरिका में हुआ है। वहां काले लोग आज मानवीय अधिकारों का लाभ उठा रहे हैं। पर दुखद है कि हमारे देश को भले ही विकासशील देश कहा जाए पर जाति व्यवस्था के कायम होने के कारण आज इक्कीसवीं सदी में भी काफी पीछे चल रहा है।



बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर एवं अन्य दलित हितैषी महापुरूषों के प्रयास से अब दलितों को यह अहसास हो गया है कि जातिवादी व्यवस्था ने उन्हें अपना गुलाम बनाए रखा है। और अब वे अपनी मुक्ति के लिए संघर्षरत हैं। भेदभाव और अन्याय पर आधारित जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ अब आवाजें उठने लगी हैं। दलित साहित्य तो पूरी तरह इस व्यवस्था के विरोध में खड़ा है।



समय परिवर्तनशील होता है। पुणे में दलित करोड़पतियों का सम्मेलन और एन.डी.टी.वी. के रवीश की रिर्पोट पंजाब के दलितों में आई समृद्धि को दर्शाती है। जहां कुछ दलित एक ओर सतत संघर्ष कर अपना व्यवसाय कर करोड़पति हुए हैं। वहीं एन.आर.आई. दलितों के पैसों से ही सही पंजाब में कुछ दलितों का कायाकल्प हुआ है। उनके पास वहां की दबंग कही जाने वाली जाति जाटों की तरह ही दलितों के पास भी शानदार मकान हैं, गाड़ियां हैं। उनके अपने एल्बम हैं। अब ‘छोरा जाट का’ गाने के विकल्प में ‘अत्त चमारां दा’ है। वाल्मीकियों के एल्बम हैं। अब वे शर्म से नहीं बल्कि गर्व से गा रहे हैं हम दलित हैं, चमार हैं, वाल्मीकि हैं पर जाटों से कम नहीं हैं। हम बेशक दलित हैं। पर सवर्णों से उन्नीस नहीं हैं। ये संकेत हैं कि बदलाव की बयार बहने लगी है। आगाज अच्छा है और अंजाम भी निश्चित रूप से बेहतर होगा।



देश की व्यवस्था ने भले ही दलितों को सारे अधिकारों से वंचित कर रखा हो, उनके आर्थिक स्रोतों को हड़प लिया हो। पर दलित अब पीछे मुड़के देखने वाले नहीं हैं। रूकने वाले नहीं हैं। वे शुरू से मेहनतकश रहे हैं। मेहनत से पैसा कमा कर आर्थिक समानता लाएंगे और आर्थिक समृद्धि उनको मानवीय गरिमा दिलाने में बड़ी भूमिका निभाएगी। लेकिन यह तो बस बदलाव की एक छोटी-सी पहल है। पर यह तो कहा ही जा सकता है कि बदलाव की बयार एक अच्छा संकेत है - दलित अस्मिता के लिए उनकी मानवीय गरिमा लिए।



संपर्क: मो. 9818482899, 36/13 ग्राउन्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली- 110008

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

                                  
                               चुटकी


तुमने पारित कर दिया शिक्षा का अधिकार

पच्चीस प्रतिशत निर्धन हित, है तुमको धिक्कार

है तुमको धिक्कार, अकल के हो तुम कच्चे

निर्धन संगत से बिगड़ेगें धनवान के बच्चे

कहे ‘राज’ कविराय दाखिला हम नहीं देंगे

सरकारी अधिनियम हमारा क्या कर लेंगे

एक प्रथा कलंक की

एक प्रथा कलंक की

Source:

जनसत्ता, 18 जुलाई, 2010

Author:

राज वाल्मीकि



मानवीय गरिमा पर कलंक

कानूनी तौर पर मैला ढोने की मनाही है। लेकिन सरकारी दावे के उलट देश में अभी भी यह प्रथा कमोबेश जारी है। इसके भीतरी हालात की पड़ताल कर रहे हैं राज वाल्मीकि . . .



इक्कीसवीं सदी का पहला दशक अपने अंतिम पड़ाव पर है। सारी दुनिया में तकनीक का बोलबाला है। तकनीक के कारण ही कहा जा रहा है कि पूरी दुनिया एक गांव में बदल चुकी है। विश्व में मानव अधिकारों की हर जगह चर्चा हो रही है। मानवीय गरिमा के साथ जीना हर मानव का अधिकार है। ऐसे समय में भारत में मैला प्रथा का जारी रहना देश की सभ्यता और तरक्की पर एक बदनुमा दाग की तरह है। यह मानवाधिकार का हनन भी है कि एक मनुष्य का मल अपने हाथों से उठाए। यह अमानवीयता का चरम है। एक ओर राष्ट्रमंडल खेल आयोजित कर भारत विश्व में चर्चा विषय बन रहा है तो दूसरी ओर ऐसी अमानवीय प्रथा देश में कायम है।



सरकारी उदासीनता और प्रशासनिक नाकारेपन की वजह से भारत में आज भी तेरह लाख लोग मैला ढोने के काम में लगे हैं, जिसमें नब्बे फीसद महिलाएं हैं। मैला प्रथा एक तरह से जाति व्यवस्था और पुरुषों द्वारा इन महिलाओं पर थोपी गई हिंसा है। समाज औरतों को हीनता का बोध करा कर उनका निरंतर शोषण करता रहा है। बचपन से ही जाति विशेष की बच्चियों को मैला साफ करने के लिए मजबूर किया जाता है। सवाल यह भी है कि आखिर दलितों में औरतों को ही क्यों मैला उठाना पड़ता है। इसकी शुरुआत तभी हो जाती है जब वह अपनी मां के साथ शौचालय मालिकों के यहां रोटी लेने जाती है और बाद में वह जिंदगी भर इसी काम में लगी रहती है। वह पढ़ाई-लिखाई से दूर हो जाती है। इसलिए वह अपने हकों के लिए जागरूक नहीं हो पाती। उसका आत्मसम्मान खो जाता है। पिता के यहां भी और शादी के बाद ससुराल में भी वह यही काम करने के लिए मजबूर रहती है।



इस प्रथा के बरकरार रहने के पीछे शासन और प्रशासन की जाति आधारित बनावट को भी समझना होगा। प्रशासनिक सेवाओं में ज्यादातर उच्च जाति के लोग हैं। इन सेवाओं में दलित वर्ग के लोग भी आए हैं, लेकिन वे व्यवस्था का हिस्सा बन कर रह गए हैं। 1993 में मैला प्रथा उन्मूलन के लिए एक कानून बना, लेकिन शासन-प्रशासन की इच्छाशक्ति की कमी के कारण इनको सही तरीके से लागू नहीं किया गया। मैला प्रथा मोटे तौर पर तीन तरह की होती है। निजी शुष्क शौचालयों की सफाई, सार्वजनिक शुष्क शौचालयों की सफाई और रेलवे ट्रैक पर गिरे मानव मल की सफाई।



इस प्रथा को रोकने के लिए बना कानून क्यों सही ढंग से लागू नहीं हो पाता। इसके लिए एक उदाहरण ही काफी होगा। हरियाणा में सफाई कर्मचारी आंदोलन के राज्य संयोजक के एक अधिकारी से मैला संबंधी जानकारी मांगने पर उस अधिकारी का लिखित बयान आया ‘हमारे यहां सफाई कर्मचारी शुष्क शौचालय तो साफ कर रहे हैं, लेकिन यहां सिर पर मैला उठाने का कार्य कोई नहीं करता।’ यह लिखित बयान है। यानी कि ऐसे अधिकारियों के दिमाग में यह बात रच-बस गई है कि इंसान द्वारा दूसरे इंसान का मल-मूत्र साफ करना घृणित और अमानवीय कार्य नहीं है।



कानून बनने के बाद इस कार्य पर प्रतिबंध लगाने की बात आती है तो वे यही कहते हैं कि पारंपरिक रूप से यानि सिर पर मैला ढोने का कार्य अब नहीं होता। ऐसे अधिकारियों के बूते ही ‘1993 अधिनियम’ को लागू करने की बात सरकार करती है। जबकि अधिनियम के अनुसार किसी भी प्रकार के शुष्क शौचालय को इंसान से साफ करवाना प्रतिबंधित है और अपराध की श्रेणी में है। अगर कोई शुष्क शौचालय मालिक इस कार्य को किसी सफाई कर्मचारी से करवाता है तो उस पर दो हजार रुपए जुर्माना या एक साल की कैद या दोनों हो सकती है। विडंबना यह है जिन अधिकारियों पर इस अधिनियम को लागू करने की जिम्मेदारी है, वे खुद इसके बारे में ठीक से नहीं जानते।



भारतीय समाज में सफाई कर्मचारियों की पहचान बचपन से ही होने लगती है। सफाई कर्मचारियों के परिवार में भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनकी यह पहचान स्वीकृत हो चली है कि वे सफाई कर्मचारी हैं। अगर कोई कभी उनसे सफाई से संबंधित कार्य के बारे में पूछता है तो वे बताते हैं कि यह हमारा काम है। ‘हमारा’ काम का मतलब क्या है? क्या सफाई का काम सिर्फ भंगी समुदाय का है। इसे पीढ़ी दर पीढ़ी दलित समुदाय पर किसने थोपा? इस पर विचार होना चाहिए। वे ऐसा क्यों बोलते हैं कि यह ‘हमारा काम है’ अगर इसे वे हमारा काम बोलेंगे तो इसे छोड़ेगे कैसे? ऐसा मानना भी एक प्रकार का जातिवाद है और वे अपना शोषण कराने में खुद भी शामिल हो जाते हैं।



आंबेडकर के अनुसार तो यह समुदाय जाति-व्यवस्था में शामिल ही नहीं है, बल्कि इससे बाहर और अछूत है। यह अछूतपन सिर्फ उनकी समस्या नहीं, लोकतंत्र और सभ्य नागरिक समाज की समस्या है।



मानव मल साफ करना क्या कोई रोजगार है? उसके बदले उसे दस या बीस रुपए हर महीने या एक बासी रोटी रोज मिलती है। क्या इसे मजदूरी कहा जा सकता है? क्या यह उचित है? क्या यह सफाई कर्मचारी महिला का शोषण नहीं है? क्या यह उसके आत्म-सम्मान को कुचलना नहीं है?



सरकार की उदासीनता का आलम यह है कि हरियाणा के दो जिलों को छोड़ कर अभी तक किसी भी शुष्क शौचालय मालिक को इस अधिनियम के तहत सजा नहीं मिली। सरकार का कहना है कि उसने सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं, जिसके लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों को करोड़ों रुपयों का अनुदान देती है। लेकिन सफाई कर्मचारियों की हालत जस की तस बनी हुई है। इतना ही नहीं, इस कानून को बनाने वाली सरकार के ही कई विभागों में यह काम चल रहा है, जैसे पंचायतों और नगर निगम और रेलवे में। एक ओर सरकार कानून बना रही हैं और दूसरी ओर स्वयं शुष्क शौचालय को साफ करने के लिए कर्मचारियों को नियुक्त कर रही है। सरकारी अफसर जान-बूझ कर मैला ढोने के कार्य से इनकार करते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि अगर वे इसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं तो सजा भी उन्हें स्वयं भुगतनी होगी।

सरकारी उदासीनता और प्रशासनिक नाकारेपन की वजह से भारत में आज भी तेरह लाख लोग मैला ढोने के काम में लगे हैं, जिसमें नब्बे फीसद महिलाएं हैं। मैला प्रथा एक तरह से जाति व्यवस्था और पुरुषों द्वारा इन महिलाओं पर थोपी गई हिंसा है। समाज औरतों को हीनता का बोध करा कर उनका निरंतर शोषण करता रहा है। बचपन से ही जाति विशेष की बच्चियों को मैला साफ करने के लिए मजबूर किया जाता है। थोपे गए इस पेशे की वजह से लाखों महिलाएं शोषित हैं। महिला संगठनों को भी इनकी सुध नहीं है। जबकि सफाईकर्मी महिलाओं का विकास इस काम से मुक्ति के बाद ही हो सकता है। तभी समाज भी तरक्की कर सकता है। आंबेडकर का मानना था कि अगर आप किसी समाज की उन्नति देखना चाहते हैं तो पैमाना यह होना चाहिए कि उस समाज की महिलाओं ने कितनी प्रगति की है। उन्होंने यह भी कहा था कि भूखे रहने पर भी यह गंदा पेशा छोड़ देना चाहिए। ऐसे में अगर सभ्य समाज के लोग स्वयं को सभ्य नागरिक कहलाना चाहते हैं तो यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे थोपे गए पेशे को बंद करवाएं और सफाईकर्मी महिलाओं का शोषण बंद करें। उन्हें कोई अच्छा पेशा दिलाया जाए ताकि वे इज्जतदार जिंदगी व्यतीत कर सकें। सुखद यह है कुछ महिलाओं में अब यह जागरूकता आई है और वे खुद कह रही हैं कि हम शोषण बर्दाश्त नहीं करेंगे और मैला भी नहीं उठाएंगे। सफाई कर्मचारी महिलाओं में से अनेक महिलाएं स्वयं आगे बढ़ कर अपने जैसी काम करने वाली महिलाओं की भी अगुआई कर रही हैं। अब वे खुद आगे आकर सरकारी कार्यालयों के सामने मैला ढोने की टोकरियां जला रही हैं और पुनर्वास के अपने अधिकार के लिए नारे लगा रहीं हैं कि “मैला प्रथा बंद करो, बंद करो। पुनर्वास का प्रबंध करो।”



सफाई कर्मचारी आंदोलन बीस सालों से अभियान चला रहा है। यह अभियान भारतीय समाज को बेहतर बनाने के लिए उस सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ है जहां एक इंसान दूसरे इंसान का मल-मूत्र साफ करने के लिए अभिशप्त है। भारत में तेरह लाख लोग सफाई कर्मचारियों का जीवन जीने को मजबूर हैं। अभियान की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दिसंबर 2004 में एक जनहित याचिका भी दायर की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों को आदेश दिया कि वे मैला प्रथा निषेध अधिनियम 1993 को सख्ती से लागू करें। इसके अलावा संबंधित कानून की उपेक्षा करने और इस संबंध में उचित कदम न उठाए जाने और प्रशासनिक लापरवाही की वजह बताएं। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि इस प्रथा के उन्मूलन के लिए समयबद्ध कार्यक्रम बनाए जाएं और मैला ढोने के कार्य से जुड़े सफाई कर्मचारियों का पुनर्वास किया जाए।



अगर 2010 तक मैला प्रथा उन्मूलन के लक्ष्य को पाना है तो नई रणनीति, समर्पित संगठनों और लोगों की जरूरत है। सरकारें अगर राष्ट्रमंडल खेलों के लिए समयबद्ध योजना बना और लागू कर सकती हैं तो इस गंदी प्रथा के खिलाफ अभियान क्यों नहीं चला सकतीं। मैला प्रथा उन्मूलन और सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए सरकार ने 1990 में कुछ कदम उठाए थे। उस समय इसे मिटाने की समय सीमा 1995 तय हुई थी।



बाद में इसे बढ़ा कर 1998 कर दिया गया। फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने वादा किया कि वे 2000 तक इस प्रथा का जड़ से खात्मा कर देंगें। तब से लेकर आज तक इसकी समय सीमा बढ़ती ही जा रही है। इस प्रथा को बनाए रखने में भ्रष्ट नौकरशाही का बड़ा हाथ है। दलितों में भी दलित इस समुदाय को लेकर कहीं से संवेदनशील नजर नहीं आते।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

समय का सच यही है

गलत जो है सही है, अनैतिक कुछ नही है

बात ये जच रही है समय का सच नही है


मत बोलो कि जनता खुश नही है,यहां से देखो उसका दुख नही है

खुदा जाने ये कैसा तिलिस्म, व्यवस्था रच रही है



दलित की भी है इज्जत, है नारी की अस्मिता

उन्ही के सम है लेकिन उन्हें नही पच रही है



गरीबी डस रही है, मुफलिसी हंस रही है

गनीमत है कि फिर भी ये इज्जत बच रही है



उसे ऐसा दिखाया जा रहा है, नही ऐसी है जैसी दिख रही है

न जाने किन हाथों में होगी डोर इसकी, ये पुतली सामने जो नच रही है



है ये अंधी दौड़ कैसी, भीड़ को रौंद कर भी

आगे बढ़ रही है, ये भागमभाग कैसी मच रही है

समय का सच यही है



संपर्क: 9818482899

36/13 ग्राउण्ड फ्लोर

ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

हमारी पीर को यारो न ये समझे न वो समझे

                                                                                                                                        -राज वाल्मीकि



हमारे भारतीय समाज में अंधविश्वासों एवं रुढ़िवादिता को बहुत महत्व दिया जाता है। स्थिति यह है कि शिक्षित वर्ग भी इनका पालन करता है - परम्परा के नाम पर तीज-त्योहार एवं शादी-विवाह के मौके पर इन्हें अक्सर देखा जा सकता है। हमारे वाल्मीकि भाई-बहन तो कुछ ज्यादा ही अंधविश्वासी हैं। प्रायः देखा जाता है कि वाल्मीकि समाज में किसी के बीमार होने पर लोग डॉक्टर के इलाज के बजाय देवी-देवताओं एवं पूजा-पाठ को अधिक महत्व देते हैं। हमारे देवी-देवता भी विचित्रा प्रकार के होते हैं जो मरीज को ठीक करने के एवज में मुर्गा अथवा सूअर की बली मांगते हैं। इतना ही नहीं वे पीने के लिए शराब भी मांगते हैं। अब ये अलग बात है कि देवताओं को रक्त की धार एवं दो चार बूंद शराब चढ़ा देने के बाद भगत (जिस के सिर पर देवता आते हैं) और उसके संगी-साथी शराब पीकर व मीट खाकर मस्त हो जाते हैं। भले ही मरीज मर जाए या मरीज के घरवाले कर्ज में डूब जाएं - उनकी बला से।



इसी तरह मर्हिर्ष वाल्मीकि की जयन्ती हमारे वाल्मीकि भाई-बहन बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं । हजारों-लाखों रुपये खर्च करते हैं किन्तु यह जानकर अफसोस होता है कि वे मर्हिर्ष वाल्मीकि से सही प्रेरणा नहीं लेते ( मर्हिर्ष वाल्मीकि का हमारे वाल्मीकि (भंगी) समाज से कोई लेना-देना है या नहीं यह विवाद का विषय है और यहां मेरा उद्देश्य वाल्मीकि पर बहस करना नहीं है इसलिए मैं इस विषय पर बात नहीं करुंगा।) कुछ लोग कहते हैं कि मर्हिर्ष वाल्मीकि की कलम को वाल्मीकियों ने झाड़ू बना लिया है और सफाई कार्य में लिप्त हैं। यह स्थिति वाकई दुखद है। हम अपने बच्चों को प्रेरित करें कि वाल्मीकि की कलम से प्रेरणा लेकर अधिकाधिक शिक्षित होकर स्वयं प्रगति करें और सम्मान से जीना सीखें तथा अपने समाज को दयनीय दशा से उबारें। उन्हें सम्मान से जीना सिखाएं। उनमे स्वाभिमान जगायें। मर्हिर्ष वाल्मीकि का जन्मोत्सव मनाने वाली संस्थाओं से मेरी विनती है कि वे इस अवसर पर वाल्मीकि समाज के मेधावी छात्रा-छात्राओं को पुरस्कृत करें ताकि उन्हें शिक्षित होने हेतु प्रोत्साहन मिले। अब समय आ गया है कि वाल्मीकि समाज के हाथ में झाड़ू नहीं बल्कि कलम होनी चाहिए।



हमारे बहुत से वाल्मीकि भाई-बहन ऐसे हैं जो धार्मिक कर्म-काण्डों में डूबे हुए हैं। वे निरंकारी बाबाओं, आशाराम बापुओं तथा अन्य अनेक ऐसे ही धर्मगुरुओं की शरण में जाकर अपने धन एवं समय की बरबादी करते हैं। वे बाबाओं के प्रति अंधश्रृद्धा रखते हैं और उन्हें भगवान से कम नहीं मानते। नियमितरूप से सत्संग में जाते हैं। ऐसे लोगों की मूर्खता से बाबा खूब लाभ उठाते हैं और इन से दान-पूजा के नाम पर मिले पैसे से ऐश करते हैं। कई बार हमारे ये भाई-बहन सत्संगों में बाबाओं की शरण में जाकर इस बात से धन्य हो जाते हैं कि वहां उन्हें उनकी जाति की वजह से नीच नहीं समझा जा रहा है उन्हें सम्मान दिया जा रहा है। किन्तु वहां की हकीकत भी यही होती है कि उन्हें कोई भी उच्च पद नहीं दिया जाता है। जातिवादी इस समाज व्यवस्था में ऊंचा पद तथाकथित ऊंची जाति वालों को ही दिया जाता है। पर हमारे भाई इसी खुशफहमी में जीते हैं कि अब उन्हें सम्मान मिलने लगा है और वे तन-मन-धन से इन बाबाओं की सेवा में अर्पित रहते हैं।



भगवानों और माता रानियों की पूजा करने मे भी इनका कोई जवाब नहीं। इसका प्रमाण है कि हमारे वाल्मीकि भाईयों-बहनों के घर-घर में मन्दिर मिल जाएंगे। नवरातों का व्रत रखने वाले, कांवर ले जाने वाले हमारे बहुत से भाई-बहन मिल जाएंगे। पर यथार्थ यही है कि इस में वे अपना मेहनत से कमाया पैसा और अमूल्य समय की बरबादी करते हैं। वरना वे अपने विवेक से निर्णय करंे और बताएं कि इतना कुछ करने पर भी भगवान ने उन्हें क्या दिया? सुधीर कुमार परवाज के शब्दों में कहें तो -



ये पत्थर है इसे मत पूज ये वरदान क्या देगा

ये अंधा है ये बहरा है ये तुझ पर ध्यान क्या देगा

हमें खुद अपने जीवन के सभी दुख दूर करने हैं

दुखों से हमको छुटकारा भला भगवान क्या देगा



हमारे भारतीय समाज की बड़ी विडम्बना है कि इस में सही व्यक्ति को कभी सही सम्मान नहीं दिया जाता है । हमारा दलित समाज जितनी मेहनत करता है, समाज के प्रति अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, मगर फिर भी आदर के योग्य नहीं समझा जाता। हमारे सफाई कामगारों का उदाहरण हमारे सामने है। सफाई कामगार समुदाय समाज में साफ-सफाई रख समाज को स्वच्छ व स्वस्थ रखता है। उसके इस उत्कृष्ट कार्य हेतु न केवल उसे उचित पारिश्रमिक बल्कि उपयुक्त सम्मान मिलना चाहिए। पर यथार्थ इसके ठीक उल्टा है। समाज में उसे नीच समझा जाता है। हेय-दृष्टि से देखा जाता है। उसे सम्मान के योग्य नहीं समझा जाता। दूसरी ओर ब्राह्मण/पंडित

/पुजारी आलसी श्रेणी के व्यक्ति हैं। परिश्रम करने में इनका विश्वास नहीं है। पूजा-पाठ /कर्मकाण्डों/धार्मिक अनुष्ठानों के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाकर पैसा कमाना ही इनका ध्येय है। इस तरह के व्यक्ति को उनके आलस व लोगों को मूर्ख बनाने के लिए नीच एवं घृणा के योग्य समझा जाना चाहिए। किन्तु सच हमारे सामने है कि ऐसा व्यक्ति सम्मान के योग्य समझा जाता है। उसे आदरणीय कहा जाता है। पूज्यनीय माना जाता है।



अतः इस समय में हमारा यह दायित्व बनता है कि हम न केवल अपने श्रम के महत्व को समझे बल्कि अपने समुदाय के लोगों को समझाएं भी। इतना ही नहीं हम तथाकथित सभ्य समाज को भी चेताएं कि वह हमारे श्रम का सम्मान करें। हमारा महत्व समझे। किन्तु इसके लिए हमें स्वयं जागरुक होना होगा। अपने समाज को जागरुक करना होगा। हमें धर्मकाण्डो, कर्मकाण्डों, अंधश्रृद्धा, अंधविश्वासों से मुक्त होना होगा। धर्म की अफीम की बेहोशी से हमें जाग्रत होना होगा। हमें तथाकथित सभ्य समाज को भी यह अहसास दिलाना होगा कि हम भी मनुष्य हैं और उनसे किसी भी तरह उन्नीस नहीं है। अतः हमें भी समाज में समता चाहिए, सम्मान चाहिए। बराबरी का दर्जा चाहिए। सभी जातियों के मनुुष्यों को भेदभाव कराने वाली/ऊंच-नीच बनाने वाली इस जाति व्यवस्था से ऊपर उठकर आपसी मानवीय प्रेम, सद्भावना, अपनत्व को अपना कर मानवता की बुनियाद को मजबूत करना होगा। तभी ये देश गर्व करने के योग्य होगा। हमारा समाज एक सभ्य समाज कहलाने का हकदार होगा।



किन्तु अभी का यथार्थ इसके विपरीत है। आखिर कब तक हम जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव का दंश सहते रहेंगे। हमारे दर्द को , हमारी पीर को लोग कब समझेंगें? अभी तो मैं महेन्द्र मोहनवी के शब्दो में यही कह सकता हूं कि -



नयन के नीर को यारो न ये समझे न वो समझे

हमारी पीर को यारो न ये समझे न वो समझे

इन्होंने कर दिया अंधा उन्होंने कर दिया बहरा

मिरी तासीर को यारो न ये समझे न वो समझे

कहीं है भाग्य का रोना, कहीं तकदीर में उलझे

मगर तदबीर को यारो न ये समझे न वो समझे

पुस्तक समीक्षा - मां मुझे मत दो - कवियत्री पूनम तुषामड

पुस्तक-समीक्षा




जातीयता और पितृसत्ता की विरासत ‘मां मुझे मत दो’



-राज वाल्मीकि


















मुकेश मानस की कविता की कुछ पंक्तियों को उद्धृत कर अपनी बात षुरु करता हूं - ‘उसने मेरा नाम नहीं पूछा, काम नहीं पूछा, सिर्फ पूछी एक बात, क्या है मेरी जात, मैंने कहा इन्सान, उसके होठों पर थी कुटिल मुस्कान’ मुस्कान का कारण स्पष्ट था। क्योकि उसने सदियों से दलित वर्ग को इन्सानी हकों से महरुम कर जलालत और अपमान के दोजख मे ढकेल कर पशुओं से भी बदतर स्थिति में पहुंचा दिया। सदियों तक वह इस अमानवीय स्थितियों से मुक्ति हेतु छटपटाता रहा। पर मनुवादी व्यवस्था ने उसकी आवाज छीन ली थी। घुट-घुट कर मर-मर कर जीने को छोड़ दिया था। ऐसे में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने न केवल उस दोजख से दलितों को मुक्ति का रास्ता दिखाया बल्कि उस दलित वर्ग को बोलने को प्रेरित किया जो अब तक मूक/गूंगे बने हुए थे। जब इस वर्ग को बोलने लिखने-पढ़ने का मौका मिला तो वह चाहे आत्मकथाओं में हो, कहानियों में हो, लेखों में हो, या कविताओं में हो, वह अपनी अभिव्यक्ति देने लगा। इससे वह न केवल अपने दर्द को बयां करने लगा बल्कि अपना आक्रोष भी व्यक्त करने लगा तथा मानवीय गरिमा के खिलाफ किसी भी प्रकार के उत्पीड़न व भेदभाव के खिलाफ उसकी कलम चलने लगी। और न्याय की मांग करने लगी।



आज की चर्चित कवियत्री पूनम तुषामड़ ने भी अपने प्रथम कविता संग्रह ‘मां, मुझे मत दो’ के माध्यम से जातीयता और पितृसत्ता के खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनकी कविताएं इस व्यवस्था से सीधे-सीधे सवाल करती हैं -



‘ वे बताते हैं -

हम हरिजन हैं

हरिजन यानी हरि के जने

तो फिर हम और तुम सजातीय हुए

फिर तुम्हारी आराधना और हमारा तिरस्कार क्यांे?

आखिर यह प्रपंच क्यों?



वे विद्रूपताओं को प्रस्तुत कर इस तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था से पूछती हैं -



गौर सेे निहारो/वक्त के थपेड़ों से/असमय ही बूढ़ी और जर्जर काया को

जो आज भी तुम्हारी व्यवस्था को/मैले के रूप में ढोती है/

एकबार में न जाने कितने आंसू रोती है/...बताओ कि /

तुम्हारे लोकतन्त्र की /कौन-सी तस्वीर उभरती है इनमें?



इतना ही नहीं कवियत्री पूनम तुषामड़ जानती है कि अनपढ़/अषिक्षित दलितों की आंखों पर धर्म, पुनर्जन्म, अंधविष्वास और ईष्वर के नाम की पट्टी बांध दी गई है जिससे वे कभी अपनी मानवीय गरिमा, समानता और न्याय की मांग न कर सकें। इसीलिए कवियत्री ईष्वर और देवता के विरोध में लिखती है -



‘ हे देव! मुझे नहीं चाहिए/तुम्हारे इस भव्य मंदिर में प्रवेष/

नहीं चाहिए तुम्हारा दर्षन और प्रसाद/

क्योंकि तुम पत्थरों की इस सुन्दर इमारत में रखे/

गढ़े हुए पत्थर हो/

और मैं पत्थरों के बीच/पत्थर नहीं होना चाहती।



कवियत्री की नजर उपेक्षित/तिरस्कृत लोगो पर फोकस हुई है और उसने लाईट उठाने वाले, बाल मजदूर तथा सफाई कर्मचारियों पर ‘लाईट उठाने वाले’, ‘एक प्रष्न’, ‘अम्मां’, ‘एक मृतक का बयान’ आदि मार्मिक कविताएं लिखी हैं। और उन पात्रों से व्यवस्था पर सवाल भी उठवाये हैं जैसे ‘एक मृतक के बयान’ में सफाई कर्मचारी कहता है -



‘मैं पूछता हूं -

क्या यही है

मेरे हिस्से का भारत?

जो है निरन्तर

प्रगति पथ पर अग्रसर!’



कवियत्री की नजर सिर्फ जातीय उत्पीड़न/भेदभाव तक ही सीमित नहीं है। वह इस समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था पर भी उंगली उठाती हैं। इसे उनकी ‘बेदखल’ कविता में देखा जा सकता है। कवियत्री समता और सम्मान की चाहत करती हुई ‘एक मुट्ठी आसमां’ कविता में कहती हैं -

मुझे चााहिए समता और सम्मान/

नहीं चाहिए/तुम्हारी दया, करुणा और सहानुभूति/

जिसका कर के गुमान/तुम बनते हो महान



यूं तो पूनम तुषामड़ की कविताएं पूरी की पूरी अम्बेडकरवादी विचारधारा से जुड़ी हैं। पर उन्होंने ‘एक लड़ाई’ और ‘हमने छोड़ दिए हैं गांव’ मे इसे स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। बाबा साहब ने कहा है कि यदि वंचित वर्ग अपनी मुक्ति चाहते हैं तो उन्हें गांव छोड़ देने चाहिए। पूनम जी की कविताओं में भी इस वंचित वर्ग के लोग कहते हैं -



हमने छोड़ दिए हैं गांव/तोड़ दिया है नाता/

गांव के/कुएं, तालाब/मन्दिर और चौपाल से/

जो अक्सर हमें/मुंह चिढ़ाते/नीच बताते/

और कराते हैं जाति का अहसास।



जहां तक इस संग्रह के षिल्प और कलापक्ष का प्रष्न है तो कवियत्री का उद्देष्य सीधे औैर प्रभावषाली ढंग से अपनी बात रखना रहा है। वे प्रतीकों और बिम्बों में नहीं उलझी हैं। जहां कहीं प्रतिमान आंए भी हैं तो आज के संदर्भ मंे आए हैं। जैसे चांद मुझे है भाए अम्मा में चांद उन्हें रोटी जैसा लगता है।



इस संग्रह की षीर्षक कविता ‘मां, मुझे मत दो’ व्यवस्था के नकार की कविता है। जहां नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से स्पष्ट कहती है कि तुमने जो अब तक जातीयता के दंष और पितृसत्ता के भेद झेले हैं वो विरासत में मुझे मत दो।



निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि युवा कवियत्री पूनम तुषामड़ की कविताएं भारतीय समाज की जातिवादी व्यवस्था, सामंतवादी मूल्यों तथा पितृसत्ता के खिलाफ विद्रोह करने के साथ ही पीढ़ियों से चली आ रही कुरीतियों, अंधविष्वासों तथा रुढ़ियों पर प्रहार करती हैं। विषेष बात यह है कि इस संग्रह की कविताएं मानवीय मूल्यों एवं स्त्री-पुरुष समानता की वकालत करती हैं।



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मंगलवार, 29 जून 2010

प्रेम: पारंपरिक सोच बदलने की जरुरत

                                                                                                                            -राज वाल्मीकि
झूठी शान के लिए अपनी ही सन्तानों का खून अब दिल्ली (देश की राजधानी) में भी होने लगे हैं। प्रेमी युगल की हत्याएं अब आम होती जा रही हैं। निश्चित रूप से इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।



यह तो सभी जानते और मानते हैं कि स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण स्वाभाविक व प्राकृतिक है। यह आकर्षण और इसका परिपक्व रूप प्रेम सदियों से रहा है आज भी है और हमेशा रहेगा। इसमें कोई नई बात नहीं है। विपरीत लिंग का किसी व्यक्ति विशेष के प्रति शारीरिक आकर्षण के साथ मानसिक लगाव/पसन्द को प्रेम कह सकते हैं। यों मैं कोई प्रेम विशेषज्ञ नहीं हूं। प्रेम की परिभाषा लोग अपनी-अपनी तर से तय कर सकते हैं। पर मेरी चिन्ता का विषय इसी प्रेम से संबंधित है। यहां यह भी स्पष्ट कर दूं कि मेरा आशय एक तरफा प्रेम से नहीं है। जिस तरह की घटनाएं आज हो रही हैं कि किसी लड़के को किसी लड़की से प्रेम हो गया। लड़की ने उसके प्रेम को स्वीकार नहीं किया तो उसने उसके उपर तेजाब फेंक दिया। मकसद यही कि मेरी नही तो किसी की नहीं। यह प्रेम कदापि नहीं हैं। यह तो सामंतवादी सोच है जिसमें अधिकार का भाव रहता है और दूसरे को अपने अधीन समझने की प्रवृति। मेरा तात्पर्य ऐसे प्रेम से भी नहीं है कि जिसके नाम पर कोई अपने विपरीत लिंगी का शोषण करे। यह तो स्वार्थ है।



मेरा आशय उस प्रेम से है जिसमें कुंआरे लड़का-लड़की एक दूसरे से सच्चा प्रेम करते हैं और उसकी परिणति विवाह में चाहते हैं। पर समाज विशेषकर हिन्दू समाज की परम्परावादी सोच के कारण उनका प्रेम अंजाम तक नहीं पहुंच पाता बल्कि परिणाम उनमें से किसी एक अथवा दोनों की हत्या या आत्महत्या से होता है। इस तरह के कई उदाहरण हमें अपने आस-पास देखने को मिलते हैं। समाचारपत्रों में भी हम इस तरह की घटनाएं पढ़ते हैं। कुछ उदाहरण देखिए:- ‘प्रेमी से शादी की तो बेटी को मार डाला’ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रेमी से शादी करने की सजा लोनी में एक बार फिर दोहरा दी गई। मनपसन्द युवक से शादी करने पर हारुन नाम के व्यक्ति ने बेटी परवीन को मौत के घाट उतार दिया।(18 जनवरी 2010, नई दुनिया) ‘अपने ही गोत्र में शादी करने के कारण खाना पड़ा जहर, युवक की मौत, प्रेम प्रसंग के चलते हरिद्वार में शादी करने के बाद मुज्जफर नगर आकर परिजनो के सामने प्रेमिका बनी पत्नी सुदेश और प्रेमी अलकेश ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। एक ही गोत्र के होने के कारण उनके परिजन उनके विवाह के खिलाफ थे। (राष्ट्रीय सहारा, 4 जनवरी 2010)।

‘इज्जत की खातिर बेटी का कत्ल’ गुड़गांवा के पातली हाजीपुर में प्रेमी के संग भागी युवती के परिजनो ने ही मौत के घाट उतार कर उसका अंतिम संस्कार रात में ही कर दिया। गांव पातली के ही मुनेश नामक युवक के साथ 24 दिसम्बर 2009 को उनके लौट आने के बाद दोनों परिवारों मे समझौता हो गया था। लेकिन लड़की के परिजनों का गुस्सा कम नहीं हुआ और उन्होने इज्जत के नाम पर अपनी ही बेटी को मौत की नींद सुला दिया। (राष्ट्रीय सहारा, 29 दिसम्बर 2009)। इसी तरह नरेला निवासी हेमराज (50) ने अपनी बेटी के प्रेमी की हत्या कर उसके शव को जला दिया। कारण यह था कि उसकी बेटी का प्रेमी उसकी जाति से नहीं था। इसलिए उसने इसे इज्जत का सवाल बना लिया और बदला लेने के लिए उसकी हत्या कर दी। (हिन्दुस्तान टाईम्स 26 दिसम्बर 2009)। पच्चीस दिसम्बर 2009 को राष्ट्रीय सहारा की खबर है ‘प्यार पर फिर चली जात की तलवार’ अन्तरजातीय विवाह करने वाले प्रेमी जोड़े को किया अलग। साहिबाबाद के गौरव सैनी और मोनिका डागर दोनों बालिग थे और पिछले दो साल से दूसरे से प्रेम करते थे। उन्होंने आर्य समाज मन्दिर में शादी की थी। पर दोनों के बीच जाति भेद ‘खलनायक’ बनकर आया। गौरव सैनी जाति का है जबकि उसकी पत्नी जाट समुदाय से ताल्लुक रखती है। गौरव ने अदालत के आग्रह किया है कि शादी का सबूत देने के बावजूद उत्तर प्रदेश पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया और उसका और उसकी पत्नी को उसकी मर्जी के बिना उसके भाई के हवाले कर दिया, लिहाजा पुलिस के खिलाफ भी कार्रवाई की जाए। इसी प्रकार एक ही गोत्र में शादी करने के कारण एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई। हरियाणा के सोनीपत जिले के महारा गांव के रहने वाले चार लोगो को पुलिस ने गिरफ्तार किया जिनके नाम दयाल सिह (50) संदीप (25), पवन (19), इन्द्रजीत (19)। कारण था कि वीरेन्द्र नामक युवक ने अपने ही गोत्र की लड़की से प्यार कर शादी की। इसके लिए न केवल युवक की हत्या की गई बल्कि युवती से उसके चचेरे भाईयों ने ही बलात्कार किया।(हिन्दुस्तान टाईम्स, 28 अक्टूबर 2009)। ग्रेटर नोएडा के सूरजपुर में चेचेरे भाईयों द्वारा उनकी दो बहनों की हत्या का मामला भी प्रकाश में आया था। उसकी चचेरी बहनों का कसूर सिर्फ इतना था कि उन्होने दो गरीब लड़को से प्यार किया था। लड़कियों के घरवालों को गरीब लड़को से प्यार करना नाकाबिल-बर्दाश्त था।



उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि युवा चाहे एक जाति के हों, एक गोत्र के हों या अलग-अलग जाति के हों, अमीर-गरीब हों, परम्परावादी समाज को उनका प्रेम करना बर्दाश्त नहीं है। आश्चर्य की बात है कि जिस संतान को वे इतने लाड़-प्यार से पालते-पोषते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं, उनके उज्जवल भविष्य का सपना देखते हैं। उन्हें तथाकथित गोत्र, जाति, सम्प्रदाय या अमीरी-गरीबी के नाम पर उनकी हत्या करने से भी नहीं हिचकते। यहां गौरतलब है कि जिस गोत्र या रक्त शुद्धता की बात करते हैं तो इतिहास गवाह है कि यहां के मूल निवासियों और बाहर से आए लोगों का समय-समय पर इतना मिश्रण हो चुका है कि रक्त शुद्धता की बात करना मूर्खता ही कहा जा सकता है। रही बात जाति की तो जाति का विभाजन खासकर हिन्दू समाज में जिस आधार पर किया गया या जिस पौराणिक सन्दर्भों मे किया गया उसका भी कोई तर्क नहीं है। हिन्दू मिथ ब्राह्मणों को ब्रह्म के मुख से, क्षत्रियों को भुजा से, वैश्यों को उदर से और शूद्रों को पैरों से उत्पन्न मानता है। लेकिन आप और हम जानते हैं कि इस तरह से किसी का जन्म नहीं हो सकता है। यह एक जैविक क्रिया है जिसमें स्त्री-पुरुष के संसर्ग से स्त्री के गर्भ धारण से ही सन्तान का जन्म होता है। फिर अतीत हो या वर्तमान स्त्री-पुरुष संबंध किसी जाति-विशेष के मोहताज नही होते। प्रकृति ने सिर्फ स्त्री और पुरुष बनाए है। हमारे यहां जातियों के विभाजन के बाद भी ऐसे प्रसंग मिलते हैं जिन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य स्त्रियों के शूद्रों से शारीरिक संबंध रहे हैं और ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों ने शूद्र जाति की स्त्रियों से यौन संबंध स्थापित किए हैं। ऐसे में गोत्र और जाति की बात बेमानी हो जाती है। इसी प्रकार हिन्दू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाईयों की स्थिति है। स्त्री-पुरुष संबंध किसी सम्प्रदाय के मोहताज नहीं होते। मुसलमानों, ईसाईयों, सिक्खो की स्त्रियों के हिन्दू पुरुषों से तथा हिन्दू स्त्रियों के उनसे यौन संबंध रहे हैं। फिर सम्प्रदाय या जाति को इज्जत का सवाल बनाना कहां की समझदारी है। यही बात अमीरी और गरीबी के बारे में कही जा सकती है। स्त्री-पुरुष संबंध एक प्राकृतिक आवश्यकता है। उसका अमीरी-गरीबी से कोई संबंध नहीं होता है।



कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे बच्चों या युवा लड़के-लड़कियों का प्रेम करना कोई गुनाह नहीं है। यह तो स्वाभाविक या प्राकृतिक है। पर इसे गोत्र-जाति-सम्प्रदाय के नाम पर इज्जत का सवाल बनाना और अपने ही बच्चों को घुट-घुटकर जीने पर विवश करना जैसे उन्होने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया अथवा उनकी जान ले लेना नासमझी और क्रूरता की पराकाष्ठा है। अब समय आ गया है कि हम अपनी पारंपरिक सोच बदल कर आज के सन्दर्भ में सोचें। हम निष्पक्ष होकर सोचें कि जब हम अपने बच्चों की उम्र में थे तब क्या हमारा मन किसी विपरीतलिंगी के प्रति आकर्षित नहीं होता था। क्या हम उसका गोत्र, जाति या सम्प्रदाय देखकर प्रेम करते थे। हमें तो वह इन्सान विशेष (लड़का या लड़की) पसन्द होता था। पर हमारे बुजुर्गों ने हमारे, हमारे माता-पिता ने हमें भी इस तरह के बंधनों की दुहाई दी थी और हमारा प्रेम घुट-घुट कर मरने पर विवश हुआ था। क्या हम वही पुरानी लीक पीटते रहें? क्या यह हमारे बच्चों के प्रति नाइंसाफी नहीं है? क्या हमें हमारा नजरिया बदलने की जरुरत नहीं है? क्या समझदारी इसमें नहीं लगती कि हम तथाकथित गोत्र, जाति, सम्प्रदाय और अमीरी-गरीबी से उपर उठकर अपने बच्चों की खुशियों को प्राथमिकता दें? उन्हें खुश देखकर हमें कितनी खुशी मिलती है, तो क्या उनकी खुशी के लिए हम जरा हटकर नहीं सोच सकते?



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मंगलवार, 22 जून 2010

कुएं के मेंढको तुमने अभी सागर नहीं देखा !

‘‘ ये शादी तो तुम्हें करनी ही होगी बबीता!’’ बेनीबाल जी कठोर स्वर में बोले।

‘‘ लेकिन पापा मैं अभी और पढ़ना चाहती हूं। बारहवीं में मेरी फर्स्ट डिवीजन आई है। एट्टी परसेन्ट (80») मार्क्स हैं। मुझे आसानी से कॉलेज में एडमीशन मिल जाएगा।’’



‘‘ मैं ये सब कुछ सुनना नहीं चाहता। अगर तुम्हारे ससुरालवाले पढ़ाना चाहें तो और पढ़ लिओ।’’ बेनीवाल जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा।

‘‘पापा आप समझने की कोशिश क्यों नहीं करते। फिर मुझे कहां चान्स मिलेगा? और फिर पापा जब मैं छोटी थी तो आप ही तो कहते थे कि मेरी बिटिया डॉक्टर बनेगी। अब मैं डॉक्टर बनना चाहती हूं तो मुझे क्यों रोक रहे हैं?’’

मिसेज बेनीवाल भी बोल पड़ीं - ‘‘ जब ये इतनी जिद कर रही है तो इसका एडमीशन क्यों नहीं करा देते कॉलेज में आखिर पढ़ने की ही तो कह रही है।’’



‘‘ तुम चुप रहो। तुम्हें कुछ पता नहीं है। आजकल जमाना कितना खराब है। जवान लड़की को कॉलेज में कैसे भेज दें। ’’ बेनीवाल जी पत्नी पर बिफर पड़े - ‘‘ तुम्हारी तो किस्मत अच्छी थी जो तुम अनपढ़ को मैं दसवीं पास मिल गया था। आजकल अपनी बिरादरी में पढ़े-लिखे लड़के कहां मिलते हैं। राहुल बारहवीं पढ़कर पढ़ाई छोड़ कर अपने पापा की सूअर के मीट की दुकान चला रहा है। उसके पापा एम.सी.डी. में सफाई कर्मचारी हैं। अच्छा खानदान है। खाते-पीते लोग हैं। बबीता के लिए इससे अच्छा रिश्ता नहीं मिल सकता। और फिर बबीता बारहवीं तक तो पढ़ गई। अपने खानदान में सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की है। ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की को अपनी बिरादरी में लड़के कहां मिलते हैं। बबीता को मैं किसी गैर जात में ब्याह कर खानदान की नाक तो कटवानी नहीं है। और फिर लड़कियों को करना ही क्या होता है। कितनी भी पढ़ जावें पर सिर्फ बच्चे और चूल्हा-चौकी ही संभालना है। हम मर्द अपनी औरतों से नौकरानी तो करवायेंगे नहीं। हमारी भी कोई इज्जत है। औरतों से काम करवाकर बिरादरी में अपनी मजाक कोई नहीं बनबाना चाहेगा। फिर लड़कियों को पढ़ाने से क्या फायदा?...’’ जब मैं उनके घर पहुंचा तो श्री के.पी. बेनीवाल जी, उनकी पत्नी श्रीमती बाला देवी और बेटी बबीता के बीच इस तरह का वार्तालाप चल रहा था।



बेनीवाल जी मेरे पड़ोसी हैं। पुराने समय के मेट्रिक पास हैं और डी.डी.ए. में कार्यरत हैं। उनके परिवार में छह सदस्य हैं। बबीता के अलावा उनकी दो छोटी बेटियां विनीता और संगीता तथा सबसे छोटा पुत्रा अश्विनी है जिसे हम प्यार से रिंकू कहते हैं। यों तो बेनीवाल जी सभी बच्चों को पढ़ा रहे हैं। पर वे बच्चों को ज्यादा पढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका मानना है कि लड़कियों को दसवीं, बारहवीं से ज्यादा पढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका मानना है कि लड़कियों को दसवीं-बारहवीं तक पढ़ा कर उनकी शादी कर देनी चाहिए। और लड़कों को भी दसवीं-बारहवीं तक पढ़ाकर उन्हें किसी रोजगार से लगा देना चाहिए। ज्यादा पढ़ाने की बात पर वे कहते हैं - ‘‘ अरे साहब, आजकल हजारों-लाखों पढ़े-लिखे लोग बेरोजगार घूम रहे हैं। उन्हें कहीं नौकरी तो मिलती नहीं। फिर हम अपने बच्चों को ज्यादा पढ़ा-लिखा कर क्या करें।’’ बेनीवाल जी का तर्क है कि पढ़ाई-लिखाई सिर्फ नौकरी करने के लिए होती है और अगर नौकरी न मिले तो फिर पढ़ाई का क्या फायदा? बेनीवाल जी अपनी विचारधारा में किसी प्रकार का फेरबदल स्वीकार नहीं करते। अतः उन्हें कुछ समझाने का मतलब है कि भैंस के आगे बीन बजाना।



किन्तु दोस्त, ये सोच सिर्फ एक बेनीवाल जी की नहीं है बल्कि वाल्मीकि समाज के हजारों-लाखों लोगों की है। लेकिन हमें यह सोचना चाहिए कि अधिकांश वाल्मीकियों की ऐसी सोच क्यों है? यदि हम इस मानसिकता का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि इसके पीछे इनकी शैक्षिक स्थिति, परंपरागत जीवन, घर का माहौल, वाल्मीकि समाज, बस्ती का वातावरण आदि हैं।



इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में बेरोजगारी भी एक समस्या है। किन्तु इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि अपने बच्चों को उच्च शिक्षित न किया जाए। बेरोजगारी का कारण हमारे देश में बढ़ती जनसंख्या है। हमारे देश की अधिकांश जनता अशिक्षित है। ‘छोटा परिवार सुखी परिवार’ का सूत्रा उसके लिए बेमानी है। कहीं बच्चे भगवान की देन हैं तो कहीं यह बात मायने रखती है कि जितने ज्यादा बच्चे होंगे उतने जयादा कमाने वाले हाथ होंगे। जहां तक बेरोजगारी की बात है वहां भी हकीकत कुछ और है। अधिकांश शिक्षित युवा सही अर्थों में ‘शिक्षित’ नहीं हैं। अर्थात् वे नाम के पढ़े-लिखे तो हैं किन्तु उनमें वह ‘टैलेन्ट’ नहीं है, हार्डवर्किंग स्पिरिट नहीं है, काम देने वाले को इन्फ्लुएन्स और कन्विंस करने का कॉन्फीडेन्स नहीं है। फलतः वे रोजगार पाने में सफल नहीं हो पाते। कम्पटीशन के इस युग में उपरोक्त गुण होने जरूरी हो गये हैं। अन्यथा आज रोजगार के जितने ऑपशन्स हैं उतने पहले तो बिल्कुल नहीं थे। आज विभिन्न मल्टी नेशनल कम्पनियां भारत मंे बिजनेस कर रही हैं। कॉल सेन्टर और बीपीओज की बाढ़ आ गई है। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे युवा सही अर्थों में रोजगार के ‘योग्य’ नहीं हैं जिनमें योग्यता है वे एक नौकरी छोड़कर दूसरी कर रहे हैं और दूसरी छोड़कर तीसरी। यानी उनके लिए रोजगार की कोई कमी नहीं है। कम्प्यूटर और इन्टरनेट के इस युग में युवाओं को फ्लुएन्ट इंगलिश स्पीकिंग, कम्प्यूटर की नॉलेज और एम.बी.ए. जैसा कोई डिप्लोमा हो तो उनके लिए रोजगार की कोई कमी नहीं है। पैसा भी इतना मिल रहा है कि जितना पहले एक साल में कमाते थे उतना एक महीने में कमा रहे हैं। पर क्या हमारे वाल्मीकि समाज में इस तरह के युवा हैं। यदि हैं तो कितने? उनकी संख्या उंगलियां पर गिनी जा सकती हैं।



अतः आज सर्वाधिक आवश्कता इस बात की है कि हम अपने बच्चों में एक तो लड़के-लड़कियों में कोई भी किसी भी प्रकार का भेदभाव न करें। उन्हें बराबर शिक्षा प्रदान करवायें। दूसरे उन्हें उच्च शिक्षा देने की व्यवस्था करें। ताकि हमारे समाज के युवा आई.ए.एस., आई.पी.एस., निजी कम्पनियों में सी.ई.ओ. आदि उच्च पदों पर काम करें और अपनी लाईफ स्टाईल को बिलकुल बदल कर अन्य समृद्ध समाज की तरह जीवन यापन करें।

दलितों के मसीहा बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इसलिए शिक्षा को सर्वाधिक वरीयता दी थी। उनके तीन मूल मंत्रा - ‘शिक्षित बनो। संगठित हो। संघर्ष करो।’ में शिक्षा सबसे पहले है।



रोजगार के क्षेत्रा में शिक्षा के साथ- साथ कम्प्यूटर-इन्टरनेट का ज्ञान अनिवार्य आवश्यकता बन गया है। अतः हमें अपने बच्चों को इसका ज्ञान अवश्य कराना चाहिए। रोजगार में सफलता के लिए तकनीकी योग्यता एक अनिवार्य शर्त है।



दूसरी ओर हम लोग पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था की पुरानी रूढ़ियों, अंधविश्वासों, कुप्रथाओं एवं परम्पराओं मं डूबे हुए हैं। एक तरह से हम सोए हुए हैं। हमें जागने की आवश्कता है। यदि हमने अपनी संकीर्ण मानसिकता को नहीं बदला, सीमित सोच को नहीं बदला तो हम समय के साथ नहीं चल पाएंगे। अतः इस समय में अपना दिमाग खुला रखना है, सोच व्यापक रखनी है। अभी वाल्मीकि समाज की स्थिति को देखकर किसी शायर की ये पंक्तियां याद आ रही हैं:



घरौंदे तुमने देखे होंगे लकिन घर नहीं देखा

हवा देखी है आंधी का मगर तेवर नहीं देखा

बड़ी हैं और भी चीजें जहां में तुम ये क्या जानो

कुएं के मेंढको तुमने कभी सागर नहीं देखा

बुधवार, 16 जून 2010

महंगाई: इस मर्ज की दवा क्या है?

                                                                                                                  -राज वाल्मीकि



आसमान छूती महंगाई से जहां आमजन में हाहाकार है। वहीं सरकार इसे काबू करने में लाचार है। इस बेकाबू महंगाई के कारण आमजन की हालत खस्ता हो रही है। स्थिति यह है कि नन्हे-मुन्नों के मुंह से दूध छिन रहा है। चीनी ने मन इतना कसैला कर दिया है कि घर आए व्यक्ति को आमतौर पर चाय पिलाना जैसे सामान्य शिष्टाचार के लिए भी सोचना पड़ रहा है। गरीबों का खाना कहे जाने वाली दाल-रोटी भी गरीब को मयस्सर नही हो पा रही है। महगाई का कहर थमने का नाम नहीं ले रहा है। सरकारी अधिकारी महंगाई बढ़ने का ठीकरा एक दूसरे के सिर फोड़ रहे हैं। पर आम आदमी की समस्या को गंभीरता से कोई नहीं ले रहा है। आम आदमी महंगाई की चक्की में पिस रहा है। महगाई ने गृहणियों का बजट बिगाड़ कर रख दिया है। एलपीजी जैसी घरेलू गैस के दाम एकदम से 100 रुपये बढ़ाना जैसी खबर ने आम आदमी की और झटका दे दिया है। अधिकारी एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अपना पल्ला झाड़ रहे हैं। कृषिमंत्री षरद पवार महंगाई को काबू करने के लिए अपना दायित्व निभाने की बजाय अपने पद के प्रतिकूल कितनी गैर जिम्मेदाराना बात कह रहे हैं कि ‘ मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं।’ कभी कह रहे हैं कि ‘प्रधानमंत्री भी इसके लिए जिम्मेदार हैं।’ इसी प्रकार कभी जलवायु तो कभी राज्यों को जिम्मेदार बता रहे हैं। आमजन उन जैसे जिम्मेदार पद पर आसीन व्यक्ति से इस तरह के बयानों की उम्मीद कदापि नहीं करता। दुखद है कि उनके ऐसे बयानों से चीनी और दूध के दाम और बढ़ रहे हैं। जमाखोर इसका लाभ उठा रहे हैं। खाद्य सामग्री की कालाबाजारी बड़ रही है।



महंगाई का असर आम आदमी पर क्या पड़ रहा है। इसका एक उदाहरण देखिए। मेरे पड़ोस में रहने वाले एक व्यक्ति निजी कंपनी में पांच हजार रुपये महीने कमाता है। किराये पर रहता है। उसकी तीन बड़ी-बड़ी बेटियां हैं। महंगाई से त्रस्त उसने कहा - ‘ राज साहब, मन करता है कि तीनों बेटियों, पत्नी को जहर दे दूं ओर खुद भी जहर खाकर मर जाऊं। इस महंगाई में क्या किराया दूं। क्या खाऊं, क्या बच्चों को खिलाऊं। उनकी पढ़ाई-लिखाई कैसे करवाऊ।...’ ये व्यथ सिर्फ मेरे एक पड़ोसी की नहीं है। ऐसे लाखों लोग हैं।



चौबीस जनवरी 2010 को उच्चतम न्यायालय के एक पैनल ने ओडीश में भुखमरी से पिछले नौ साल में 400 लोगों की मौत होने को लेकर राज्य सरकार से कहा है कि राज्य में किसी की भी मौत भूख की वजह से न हो। कोई भूख से न मरे यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। गौर तलब है कि 1980 में ओडीशा में कालाहांडी में भूख से कई लोगों की मौत हुई थी। पर भूख से मरने वालों में ओडीशा अकेला राज्य नहीं है। अब यह स्थिति और भयावह होने जा रही है।



अभी महंगाई की स्थिति ऐसी है कि व्यक्ति खुद ही आत्महत्या की सोचने लगा है। आंकड़े बताते हैं कि चीनी, आलू और दाल की आसमान छूती कीमतों के कारण सभी प्रकार की वस्तुओं के थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर उछल कर 7.31 फीसद पहुंच गई है। इससे आम आदमी की गुजरं-बसर और मुंिष्कल हो गई। मुद्रास्फीति का यह स्तर रिजर्व बैंक के अनुमान से काफी ऊंपर है। कहने का तात्पर्य यह है कि चालू वित्त वर्ष में महंगाई 8-10 फीसद तक बढ़ जाने की संभावना है। विडम्बना यह है कि एक ओर सरकार आर्थिक विकास की बात कर रही है। दूसरी ओर महंगाई है कि बढ़ती ही जा रही है। गरीब इतना गरीब होता जा रहा है कि उसके लिए दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया है। दूसरी ओर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में समन्वय नहीं है। केन्द्र सरकार कहती है कि महंगाई रोकने के लिए जमाखोरी और कालाबाजारी रोकनी होगी। यानी कि व्यापारियों को एक निष्चित सीमा से अधिक अन्न नहीं रखने दिया जाए। लेकिन स्टॉक लिमिट राज्य सरकारों को रखनी है जो कि इस ओर ध्यान नहीं दे रही है। स्टॉक लिमिट निर्धारित नही हो पा रही है। इसीलिए इसका कार्यान्वयन भी नहीं हो पा रहा है। परिणामतः जमाखोरी और कालाबाजारी की वजह से महंगाई दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ती जा रही है। ऐसे में संबंधित सरकारी अधिकारी की नीयत पर शंका होना लाजिमी है। भ्रष्ट शासन तंत्र अपनी स्वार्थपरता में अंधा है। महंगाई की मार से त्रस्त जनता दिखाई नहीं दे रही है। देश के नेताओं/मंत्रियों को जनता की याद और उसके दुख-दर्द चुनाव के समय ही याद आते हैं जो कि महज चुनावी आश्वासन बनकर रह जाते हैं।



यही वजह है कि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल को गणतन्त्र की पूर्व सन्ध्या पर कहना पड़ा कि - ‘मैं दूसरी हरित क्रान्ति की दिशा में तुरन्त कदम उठाने पर जोर देना चाहूंगी। ...हमारे देश में खाद्यान्न की मांग बढ़ रही है। ये हालात हमें आगाह करते हैं कि हमे कृषि की उत्पादकता बढ़ाने पर गहराई से ध्यान देना होगा जिससे अनाज की उपलब्धता सुनिश्चत की जा सके। उन कृषि उत्पादों की उपलब्धता बढ़ाना और भी जरुरी है कि जिनकी आपूर्ति कम है। ऐसा करके बढ़ती कीमतों को नियन्त्रण में रखा जा सकता है।’ किन्तु महंगाई कम करने का यह एक मात्र विकल्प नहीं हैं। उत्पादकता बढ़ाने के साथ-साथ जरुरत इस बात की है कि कृषि योग्य भूमि में कारखाने न लगाने दिए जाएं। सबसे बड़ी जरुरत इस बात की है कि सरकार वस्तुओं की जमाखोरी एवं कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ सख्त कदम उठाए। तभी आसमान छूती महंगाई से आम आदमी को थोड़ी-सी राहत मिल सकती हैं। पर क्या सरकारी तंत्र से इस तरह की कार्यवाही की उम्मीद की जा सकती है?



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सोमवार, 14 जून 2010

आम आदमी की अहमियत

                                                                                                                                      -राज वाल्मीकि

का बात कर रहे हैं भाई साहब! मंहगाई, बेरोजगारी,शोषण यह सब आम आदमी की नियति है, उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। हम आप से सहमत नहीं हैं। मानाकि हम आम आदमी हैं इसका मतलब यह नहीं है कि कोई हमें आम की तरह चूसता रहे और हम चूसे जाते रहें। आप तो उन चन्द लोगों की भाषा बोल रहे हैं जो आम आदमी के प्रति ‘यूज एण्ड थ्रो’ की नीति अपनाते हैं। आप ये क्यों नहीं सोचते कि आम आदमी है इसलिए खास आदमी है। खास आदमी को खास बनाया किसने हैं? हमने आपने यानी आम आदमी ने। आम आदमी उस नींव की ईंटो की तरह है जिनके आधार पर खास आदमी की गगनचुंबी ईमारत खड़ी होती है। ईमारत के कंगूरे सब को दिखते हैं पर ये कंगूरे किस पर टिके हैं। जरा कल्पना कीजिए कि ये नींव धसक जाए तो? भाई साहब अहमियत उस नींव की है जिस पर सुन्दर ईमारत टिकी है। दरअसल आम आदमी ही है जिनके भरोसे ये खास आदमी इतरा रहे हैं।





आप हरियाणा के पूर्व डीजीपी एस.पी.एस. राठौर का उदाहरण मत दीजिए। हमें भी मालूम है कि टेनिस खिलाड़ी 14 वर्षीया मध्यवर्गीय रुचिका के यौन उत्पीड़न की घटना 1990 मे घटी थी और आज 19-20 वर्ष बाद राठौर को सिर्फ छह महीने की सजा सुनाई गई। हमें यह भी मालूम है कि राठौर ने अपने पालिटिकल पावर का इस्तेमाल कर रूचिका के परिवार को बरबाद कर दिया और रुचिका को आत्महत्या के लिए विवष। हमें ज्ञात है कि रुचिका का परिवार मध्यमवर्गीय था इसलिए यह छह महीनें की सजा की नौटंकी भी की गई। राठौर ने कितनी गरीब-मासूम लड़कियों का भी शोषण किया होगा इसका कहीं कोई हिसाब नहीं है। हमें यह भी मालूम है कि पावरफुल लोगों के लिए हमाऱी ऱक्षक पुलिस हमारी ही भ़क्षक बन जाती है।



हमें हमारी न्याय व्यवस्था के ढीली-ढाली और कमजोर होने का अहसास है। हमें मालूम है कि यहां आम आदमी को कितना न्याय मिल पाता है। हमें मालूम है कि तथाकथित ‘बड़े पावरफुल लोग’ आम आदमी को कीड़े-मकोड़े से अधिक नही समझते। पर भाई साहब यह तो आम सोच है और आम आदमी आपकी तरह यही सोच रहा है कि इस देष का कुछ नहीं हो सकता। इस व्यवस्था का कुछ नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता। रिश्वतखोरी खत्म नहीं की जा सकती। मंहगाई नहीं मिट सकती। बेरोजगारी नहीं जा सकती। मुर्गी के दड़बों की तरह बने घरों में रहने वालों की नियति बदली नहीं जा सकती। सब कुछ जैसा चल रहा है वैसा ही चलेगा। यह परम्परावादी सोच आप पर ही नहीं आप जैसे बहतु से लोगों पर हावी है। पर इस परम्परावादी नजरिये को बदलिए। अपनी सोच का चश्मा बदल कर देखिए। कवि कह गया है कि ‘ कैसे आकाष में सूराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालों यारो।’ अफसोस की बात है कि हम अपनी ही खासियत से अनजान हैं।



अब तक आप वही देखते रहे हैं जो लोग आपको दिखाते रहे हैं। वहीं नकारा लोगों की नकारात्मक सोच। आप एक ही पहलू को देखने के आदी हो गये हैं। अब तस्वीर का दूसरा पहलू भी देखिए। पहली बात जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वह है अपनी नकरात्मक सोच को सकारात्मक सोच में बदलिए। इस देश में संविधान नाम की कोई चीज है। देश में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है। आम आदमी द्वारा आम आदमी की आम आदमी के लिए सरकार है। भले ही पावरफुल लोग इसे अपनी तरह यूज करते हों। कया कहा? न...न...न..., हम सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ रहे हैं। हमें भी मालूम है कि चुनाव के समय आमजन को बहला-फुसला कर, ललचाकर, शराब की बोतलें और गोश्त के टुकड़े, हरे-हरे नोटों का लालच दिखाकर किस तरह बरगलाकर वोट हथियाया जाता है। हमें मालूम है कि किस तरह वोटों की जोड़-तोड़ की जाती है। जाति के समीकरण बिठाये जाते हैं। मंहगाई घटाने और आम आदमियों को सारी सुविधाएं देने के लुभावने वादे किए जाते हैं। हर हाथ को काम देकर बेरोजगारी मिटाने के झूठे आशवासन दिए जाते हैं। और जीतने के बाद कौन-सा आम आदमी, कैसा आम आदमी। पहचानने से भी इन्कार किया जाता है। पर इससे आम आदमी की अहमियत कम नहीं हो जाती है।



आप यह पूछ रहे हैं कि आम आदमी क्या कर सकता है? सच में आप आम आदमी की ताकत से अनजान हैं। आम आदमी चाहे तो शोषणकर्ताओं के बड़े से बड़े साम्राज्य को धूल-धूसरित कर सकता है। बड़े-बड़े भ्रष्ट अधिकारियों, जमाखोरों, शोषणकर्ताओं को धूल चटा सकता है। भ्रष्ट पुलिस की वर्दी उतार सकता है। और नेताओं को सरेआम नंगा कर सकता है। जमाखोरों को, मंहगाई बढ़ाने वालों को दिन दहाड़े पीट सकता है। उन्हें सलाखों के पीछे पहुंचा सकता है। गलत तरीके से इस्तेमाल की गई आम आदमी की गाढ़ी कमाई से उनके एषो आराम के लिए बने कोठी-बंगलों को ध्वस्त कर सकता है और ये तथाकथित ‘बड़े आदमी’ आम आदमी का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। आम आदमी जब अपनी पे आएगा तो इन शोषणकर्ताओं की ऐसी-तैसी कर जाएगा। आम आदमी का आक्रोश एक ऐसा ज्वालामुखी, एक ऐसा सैलाब या एक ऐसा सुनामी होगा जिसे रोकना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा। जो सब कुछ तबाह कर देगा। प्रलय ला देगा। आम आदमी का यह रूप बहुत विनाशक होगा। आपको पता होना चाहिए कि जिस पैसे के दम पर कोई ‘बड़ा आदमी’ बनता है। वह अन्ततः आम आदमी का ही पैसा होता है। कोई बिजनेस मैन आम आदमी के बलबूते ही बिजनेस में सफल होता है। उसका अधिकांष ग्राहक आम आदमी होता है। आम आदमी ही उसकी कंपनी में खटकर कम्पनी के उत्पाद का निर्माण करता है। वही आम आदमी उसका बड़ा खरीदार होता है। आम आदमी ही किसी को पूंजीपति बनाता है या कहिए कि आम आदमी का ष्षोषण करके ही कोई व्यवसायी पूंजीपति बनता है। अधिकतर ऐसा ही होता है भाई साहब। .... क्या कहा कि आम आदमी में इतनी ताकत है तो फिर वह इसका इस्तेमाल क्यों नहीं करता? आपका प्रश्न जायज है। आम आदमी में ताकत तो है पर हम आम आदमियों में कुछ कमजोरियां भी हैं जिन्हें दूर करना बहुत जरुरी है। पहली बात तो यह आम आदमी उच्च शिक्षित नहीं है। जिस कारण हमें अपने अधिकारों का ज्ञान नहीं है। दूसरी बात हम आम आदमियों में एकता नहीं है। तीसरे एक आम आदमी दूसरे आम आदमी के प्रति संवेदनशील नहीं है। हमें एकता की शक्ति का अहसास नहीं है। इस सौ-सवा सौ करोड़ के देष में यदि किसी अन्याय के विरुद्ध एक करोड़ लोग भी दिल्ली में एक साथ आकर अपनी आवाज बुलन्द कर दे तो हा-हाकर मच जाएगा। एक दिन में ही सारा सिस्टम अस्त-व्यस्त हो जाएगा। आप कल्पना कर सकते हैं कि दिल्ली की सड़को पर एक साथ एक करोड़ आदमी उतर जाएं तो क्या हालात होंगे। पर आम आदमी को इसके लिए शिक्षित, जागरुक और संगठित होने की जरुरत है। यदि ऐसा करके आम आदमी किसी भी अन्याय के विरुद्ध एक साथ आवाज उठाएगा तो सबको आम आदमी की अहमियत का पता चल जाएगा। इसलिए हम आम आदमी को सताने वालों/हमारा शोषण करने वालों एक बात जान लो कि ‘अतिशय रगड़ करे जो कोई अनल प्रकट चन्दन से होई’। हमें इतना मत सताओं कि हमारे भीतर आक्रोश का ज्वालामुखी जन्म ले। हमें आपको अपनी अहमियत का अहसास कराना पड़े।



संपर्क: मो. 9818482899, 36/13, ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

शुक्रवार, 11 जून 2010

चश्मा तनिक बदल कर देखो

                                            चश्मा तनिक बदल कर देखो


                                                                                       -राज वाल्मीकि



वर्ष 2011 की जनगणना में जाति को शामिल किया जाए या नहीं। इस बात पर लोग दो खेमों में बंटे नजर आ रहे हैं। एक समर्थन में दूसरे विरोध में। विरोधियों में अधिकांश सवर्ण जाति के लोग हैं। यह स्वाभिक ही है। इस पर बात मैं अट्ठाईस मई 2010 को ‘दुनिया मेरे आगे’ कॉलम के अन्तगर्त प्रेमपाल शर्मा द्वारा लिखित ‘जड़ता की जाति’ के सन्दर्भ में करना चाहूंगा। यद्यपि प्रेमपाल शर्मा एक अच्छे लेखक हैं। वे जाति के उच्च-निम्न क्रम में विशवास नहीं रखते - ऐसा अहसास कराते हैं। वे कहते हैं मेरे अन्दर ब्राह्मण का लेश मात्र भी नहीं है - सिर्फ नाम को छोड़कर। (उन्हें कहना चाहिए ब्राह्मण उपनाम को छोड़कर।) इस पर भी वे उलाहना देते हुए कहते हैं कि ‘इससे ज्यादा (उपनाम जोड़ने का क्रेज) तथाकथित क्रीमीलेअर पिछड़ों, दलितों में होगा।’ भाई प्रेमपाल, आप एक बुद्धिजीवी हैं, लेखक हैं। पर जाति की सच्चाई को इतने हलके में लेते हैं, आपकी इस सोच पर अफसोस ही किया जा सकता है। संदेह भी होता है कि आप जाति की सच्चाई सचमुच नहीं जानते या जानबूंझ कर अनजान बन रहे हैं। आपके ब्राह्मण कुल में पैदा होने (इत्तिफाक से ही सही) और मेरे दलित जाति (पढ़िए अछूत) के घर पैदा होने (इत्तिफाक से ही सही) क्या दोनो की स्थितियों में समानता है? शर्मा जी हम तथाकथित नीची जाति में पैदा होने वाले ही जानते हैं कि यह जाति का राक्षस किस तरह हमारे जीवन की खुशियों को लील जाता है। और किस तरह हमें दयनीय एवं अमानवीय जीवन जीने को विवश करता है। हमारे अन्दर कितनी ही योग्यता क्यों न हो (कुछ अपवादों को छोड़ दें तो) फिर भी हमारी जाति के कारण हमें सदियों से हमारे अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है, आज भी किया जाता है। तथाकथित ऊंची जाति वाले जब हम से हमारा नाम पूछते हैं (शहर में। क्योंकि गांव में जाति के आधार पर ही बस्तियां अलग-अलग होती हैं वहां जाति पूछने की जरुरत ही नहीं होती।) और हम सिर्फ अपना नाम बताते हैं उपनाम नहीं तो वे बड़े भोले बनकर यह भी पूछते हैं आपका पूरा नाम क्या है? यहां मैं अपने मित्र मुकेश मानस की कविता की कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा, जो कि प्रासंगिक हैं - ‘उसने मेरा नाम नहीं पूछा, काम नहीं पूछा, पूछी सिर्फ एक बात, क्या है मेरी जात? मैंने कहा इन्सान उसके चेहरे पर थी कुटिल मुस्कान।’ इस कुटिल मुस्कान से बचने के लिए हम जाति छुपाते हैं मगर जाति का राक्षस हर जगह हमें कुचलने को तत्पर रहता है। शर्मा, तिवारी, मिश्रा, राजपूत, गुप्ता बड़ी सहजता से बल्कि कहिए फक्र से अपना उपनाम या जाति सूचक नाम बताते हैं। पर ये तो आप को भी पता होगा कि कितने भंगी चमार एवं अन्य तथाकथित नीची जाति के लोग इसी सहजता या फक्र से अपना उपनाम या जाति सूचक नाम बताते हैं? इनके पीछे उन्हें किस बात का डर होता है, ये आप भी भलीभांति जानते हैं। जब आम जैसे बुद्धिजीवी ब्राह्मण इस कड़वी सच्चाई से जानकर अनजान बने रहते हैं तो फिर आम ब्राह्मण व्यक्ति से क्या उम्मीद की जाए। असल डर यही है कि ये ‘नीच जाति’ व्यक्ति के पूरे व्यक्तित्व को ध्वस्त कर देती है। उसे जानवरों से भी बदतर बना देती है।



दूसरी बात आप कहते हैं कि ‘अस्पृशयता रूपी एक टांग अगर ठीक नहीं हो रही हो तो दूसरी भी टांग तोड़ डालें?’ शर्मा जी दूसरी टांग तोड़ने को आप से कौन कह रहा है। पर दलितों की अस्पृश्यता रूपी टांग किसकी देन है? इसे ठीक करने की क्या आपकी नीयत भी है? क्या उसे ठीक करने की आप जरुरत भी समझते हैं? उसे ठीक करने का क्या उपचार कर रहे हैं? आखिर टांगे तो दोनो ही स्वस्थ होनी चाहिए। क्योकि महत्व तो दोनो का बराबर है। पर यह बराबरी की बात आपके जेहन में आती ही कब है? यदि दलित बराबरी की कोशिश भी करे तो गौहाना, खैरलांजी और मिर्चपुर जैसे काण्ड हो जाते हैं।



तीसरी बात आपने कही है कि देश के संपादकों/डॉक्टरों/इंजीनियरों की जाति की गिनती करवाने वाले अवसरवादी हैं। शर्मा जी यदि आप ब्राह्मणवादी चश्में से देखेंगे तो बिल्कुल आपको ऐसा ही दिखेगा। लेकिन कभी आपने यह सच्चाई जानने की कोशिश की है कि संपादकों/डॉक्टरों/इंजीनियरों में अनुसूचित जाति के या अनुसूचित जनजाति के कितने प्रतिशत हैं। जाहिर है कि आपको ये मालूम है कि उनका प्रतिशत नगण्य है। उनकी ये स्थिति क्यों है? क्यों वहां दलित वर्ग के लोगों का प्रतिशत उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं है? क्यों उन्हें आज भी आरक्षण की जरुरत है? दरअसल इस जातिवादी समाज व्यवस्था ने दलितों को सदियों से गुलाम बनाकर रखा और व्यवस्था चाहती है कि ये हमेशा गुलामगीरी करते रहें। तथाकथित उच्च जातियों ने कभी उन्हें अपने बराबर या अपने जैसा इन्सान समझा ही नहीं। (यों अपवाद हर जगह हो सकते हैं।) उन्हें उनके बुनियादी हकों से महरूम रखा। परिणाम यह है कि आज एक व्यक्ति दुर्बल या अपाहिज (जिसे शर्मा जी अस्पृष्यता की टांग कहते हैं।) तो दूसरा स्वस्थ व तनदुरुस्त। हमारा संविधान जो हर नागरिक को बराबर का दर्जा देता है वह तो ऐसी व्यवस्था करेगा ही कि कमजोर/अपाहिज को आरक्षण की बैसाखी दे दी जाए ताकि उसे भी सहारा मिल सके। पर विडम्बना यह है कि उस पर भी स्वस्थ व्यक्ति को आपत्ति होती है।



आप कहते हैं कि ‘आदर्श स्थिति तो यह होती कि इक्कीसवीं सदी में जाति का कॉलम ही नहीं होता और न बाईसवीं सदी में धर्म होता।’ क्या जाति और धर्म जो कि हिन्दूवादी समाज व्यवस्था में एक दूसरे के पूरक हैं क्या इतने हलके हैं कि मात्र कॉलम हटा देने से जाति-धर्म मिट जाएंगे या जाति का जहर कम हो जाएगा? इस बारें में आप मार्क्स, लोहिया और जयप्रकाश की विचारधारा की बात करते हैं पर आपको भीमराव अम्बेडकर की आईडियोलोजी याद नहीं आती। आप जाति रूपी महावृक्ष के पत्तों को काटने की बात कर रहे हैं जबकि जरुरत है पूरे वृक्ष को जड़ से उखाड़ फैंकने की। इसके लिए जरूरी है कि देश के समसत संसाधनों खास कर आर्थिक संसाधनों पर जनसंख्या के अनुपात में सबका समानुपाती अधिकार हो। पर यथार्थ क्या है? यथार्थ यह है कि तथाकथित उच्च वर्ण के मुट्ठी भर लोगों ने देश के सम्पूर्ण संसाधनों पर कब्जा कर रखा है बाकी बहुसंख्यक लोग उनसे वंचित हैं। अतः मुद्दा यहां जाति की जड़ता का नहीं बल्कि जाति के जनतंत्र का है। हम इस कड़वी सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते आंखों पर हरा चश्मा चढ़ा लेने से सबकुछ हरा नहीं हो जाता। जरुरत है चश्मे को बदलने की¬-यर्थाथ को देखने की।

बुधवार, 9 जून 2010

करनी-कथनी

तन-मन-धन से कर रहे , हिन्दी का उत्थान


कान्वेन्ट में पढ़ रही औ, उनकी सन्तान

हिन्दी सेवा, कान्वेन्ट, अजब विरोधाभास

पूछा हमने इक प्रश्न जाकर उनके पास

करनी-कथनी में फर्क यह कैसा उत्थान?

हिन्दी सेवी हंस कहे, ‘ मूर्ख हैं श्रीमान!

लगता हाथी दांत पर नहीं किया है गौर

खाने के कुछ और हैं दिखलाने के और!

बुधवार, 2 जून 2010

आंखों पर पट्टी

                                                      आखों पर पट्टी
                                                                                                                                           -राज वाल्मीकि

मेरे गांव से कसबे तक और कसबे से गांव तक अब भी तांगे ही चलते हैं। मैं दिल्ली से अपने गांव जा रहा था। कसबे तक तो बस से आ गया। अब मैं तांगे की तलाष में इधर-उधर देख रहा था। कानों में लाउडस्पीकर की तेज आवाज सुनाई दे रही थी। आस-पास कहीं सत्संग हो रहा था। आम आदमी की नजर में पूज्यनीय गुरुदेव का प्रवचन जारी था। ‘‘...भक्तजनों, गुरु के बिना ज्ञान नहीं होता। परमात्मा के दर्षन नहीं होते। अतः गुरु के वचनों को ईश्वर के वचन मानकर उनका पालन पूरी श्रद्धा से करना चाहिए।...’’ गुरुदेव निरन्तर बोले जा रहे थे। ‘‘...भक्तजनों ईश्वर ने हमारे लिए सर्वोत्तम समाज व्यवस्था दी है। पिछले जन्मों के आधार पर लोगों को विभिन्न जातियों में जन्म दिया है। पिछले जन्मों के कर्मों का फल इस जन्म में मिलता है और इस जन्म का अगले जन्म में। पिछले जन्म में जिन लोगों ने अच्छे कर्म किए ईश्वर ने उन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बनाया। जिन्होने पाप किए उन्हें शूद्र बनाया। भंगी, चमार, महार, मातंग इत्यादि बनाया। ईश्वर ने उन्हे तीनों उच्च जातियों की सेवा करने का कार्य सौंपा है। यदि वे इस जन्म में भली भांति सेवा कार्य करेंगे तो उनका अगला जन्म सफल हो जाएगा। अतः उन्हें पूर्ण समर्पित भाव से ब्राह्मण, क्षत्रियों, वैश्यों की सेवा करनी चाहिए।



मुझे एक तांगे वाला दिखाई दिया। मैं उसके तांगे में बैठ गया। मैंने देखा उसके घोड़े की आंखों पर चमड़े की पट्टी बंधी हुई थी। मैंने तांगे वाले से पूछा - ‘‘आपने इस की आंखों पर ये पट्टी क्यों बांध रखी है?’’ उसने बताया - ‘‘ भाई साहब, आप जानते ही हैं कि घोड़ा एक मजबूत जानवर होता है। श्रम करने में इसका कोई जवाब नहीं। इसे नियन्त्रित करने के लिए इसकी आंखों पर पट्टी बांधते हैं। इस पट्टी की वजह से घोड़े को सिर्फ सामने का दिखाई देता है। इधर-उधर का नहीं। इसलिए इसे जिधर हम मोड़ते हैं ये उसी ओर चल पड़ता है। अगर ये पट्टी नहीं हो तो ये अपनी मरजी से किसी भी तरफ जा सकता है। फिर ये हमारी गुलामी थोड़े ही करेगा। वैसे ये कोई नई बात नहीं है। सदियों से लोग घोड़े की आंखो पर पट्टी बांधते आ रहे हैं।...’’ तांगे वाला बोलता जा रहा था। मुझे अनायास ही गुरुदेव के प्रवचन याद आने लगे।



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अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

इस समय में

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

■ राज वाल्मीकि


दोस्तो, हम इक्कीसवीं सदी के इस पहले दशक में जी रहे हैं। इस समय में दुनियां ‘ग्लोबल विलेज’ हो गई है। अब हम विज्ञान प्रौद्योगिकी जैसे टी.वी., कम्प्यूटर, इन्टरनेट ,मोबाईल के माध्यम से पूरी दुनियां को देख-सुन सकते हैं। सैटेलाइट ने सात समन्दर पार की दुनियां को भी हमारे सामने ला दिया है और हमारे देश को दुनियां के सामने पेश कर दिया है। यह देख कर हमें बहुत शर्मिन्दगी महसूस होती है कि जब दुनियां समानता, स्वतन्त्रता एवं भाईचारे-बंधुत्व की बात कर रही है। हमारा देश साम्प्रदायिकता एवं जातिवाद के भेदभाव में जकड़ा हुआ है। आज के इस आधुनिक युग में भी हम वैदिक सम्यता को ढोते आ रहे हैं। हम किसी व्यक्ति के नाम से संतुष्ट नहीं होते। हम उसकी जाति जानना चाहते हैं। जाति जानने पर ही हम उसकी हैसियत तय करते हैं। और फिर सोचते हैं कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाए। मुकेश मानस के शब्दों में कहूं तो ‘उसने मेरा नाम नहीं पूछा, मेरा काम नहीं पूछा, सिर्फ पूछी एक बात, क्या है मेरी जात? मैंने कहा-इन्सान, उसके होठों पर थी कुटिल मुस्कान’। यह कुटिल मुस्कान इसलिए थी क्योंकि तथाकथित ऊंची जाति वाले ‘इन्सान’ कहने पर समझ जाते हैं कि यह एस.सी. है। चूहड़ा-चमार या अन्य छोटी जाति का है। क्योंकि ऊंची जाति वाले अपनी जाति शान से बताते हैं। और नीची जाति वाले उसे छुपाते हैं। मैंने एक संबंधी से पूछा कि वे जाति क्यों छिपाते हैं?(वे डी.डी.ए.-दिल्ली विकास प्राधिकरण में अधिकारी हैं।) तो उन्होंने प्रति प्रश्न किया-छुपायें नहीं तो क्या करें? अगर हम बता दें कि वाल्मीकि हैं तो हमारे सहकर्मी - ये सोचकर कि चूहड़ा है - ‘आप’ से ‘तू’ पर उतर आता है। पढ़-लिख कर भी इस तरह के अपमानसूचक शब्द सुनने से तो अच्छा है कि अपनी जात छुपाकर रहें।’

तो देखा आपने, किस तरह यहां जाति जानकर ही व्यक्ति की हैसियत तय की जाती है!

और यह निर्णय लिया जाता है कि उसके साथ कैसे व्यवहार किया जाए। जबकि देश के संविधान में सभी नागरिक समान हैं। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने इसीलिए कहा था कि संविधान से राजनैतिक समानता तो मिल जाएगी किन्तु सामाजिक एवं आर्थिक समानता बहुत कठिन कार्य है। इसीलिए उन्होंने हम दलितों को तीन मूल मंत्र दिये थे- ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो’! उन्होनें गौतम बुद्ध का सूत्र वाक्य ‘अत्त दीपो भव’ भी दिया कि तुम दूसरों के भरोसे मत रहो-अपना दीपक स्वयं बनो। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा पर विशेष महत्त्व देते हुए उसे ‘शेरनी का दूध’ कहा था। और बहुत सही कहा था। मैं समझता हूं कि हमारे आज के युवाओं (युवक एवं युवतियों) को उच्च शिक्षा तथा धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना-समझना, पढ़ना-लिखना परमावश्यक है। तभी तो वे जातिगत भेदभावों एवं रूढ़ियों की जंजीरे तोड़ सकेंगे।

एक ओर जहां जातिगत भेदभाव के ‘बैरियर्स’ हैं वहीं जाति आधारित कर्म हैं-यानी ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने हम दलितों के लिए नीच कर्म एवं गन्दे पेशे निर्धारित कर रखे हैं। दलितों में भी दलित कही जाने वाली वाल्मीकि जाति के लिए तो हाथों से मल-मूत्र उठाने एवं उन्हें सिर पर ढोने की व्यवस्था कर रखी है। यह देख कर हमारा सिर शर्म से झुक जाता है कि दुनियां भर में हम अपनी सभ्यता-संस्कृति के ढोल पीटते नहीं अघाते, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की बात करते हैं और अपने ही भाईयों को ऐसे अमानवीय कार्य करने को विवश करते हैं। पशुओं (जैसे गाय) के मल-मूत्र को पवित्र बताने वाले हम अपने ही जैसे इन्सानों (विशेषकर वाल्मीकियों) से घृणा करते हैं - उन्हें अछूत समझते हैं। उनके साथ खाने-पीने से परहेज करते हैं। उनके साथ रोटी-बेटी का रिश्ते करने की बात सोचते भी नहीं । क्योंकि वे पशुओं से भी गये-गुजरे हैं। और यदि दलित युवक किसी उच्च जाति की युवती से प्रेम करने उस से शादी करने की हिम्मत और हिमाकत करता है तो उसे दी जाती है - सजा-ए-मौत! सिर्फ इसलिए कि नीच जात के लड़के ने ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करने की हिम्मत कैसे की। जब कि आप और हम जानते हैं कि प्रेम जात-पांत के भेदभाव नहीं जानता। कहावत भी है कि प्रेम न जाने जात-कुजात।

कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दू समाज की सामाजिक संरचना ही जातिगत भेदभाव पर आधारित है। हिन्दू समाज में जाति बुनियादी ईकाई है। इसे तोड़े बिना मानवता की बात करना, सामाजिक समानता की बात करना बेमानी है। भारतीय समाज, विशेषकर हिन्दुओं के इस समाज रूपी तालाब का पानी सड़ चुका है। इसलिए इस में समानता, स्वतन्त्रता एवं भ्रातत्व के कमल नहीं खिल रहे हैं। इस ‘पानी’ को बदलने की आवश्यकता है। दुष्यन्त कुमार के शब्दो में कहें तो -

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो

ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं



मो. 9818482899

सोमवार, 31 मई 2010

जीवन की आपाधापी में - राज वाल्मीकि

जीवन की ये आपा-धापी  राज वाल्मीकि
‘‘ और सुनाइए क्या हाल-चाल हैं?’’ बहुत दिन बाद मिलने पर मैंने अपने परिचित सुखीराम जी से यूं ही औपचारिकतावश पूछ लिया था तो लगा कि उनकी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो। सुखीराम जी चालीस वर्षीय नौकरी-पेशा निम्न मध्यम वर्गीय सज्जन हैं। वे मेरे आगे फूट पड़े-‘‘ बस कुछ पूछिये मत राज साहब, कुछ ज्यादा पाने की मृगतषृणा में बहुत कुछ खो दिया।’’ वे उदास स्वर में बोले। स्वाभाविक रूप से मेरे मुंह से प्रश्न निकला-‘‘ ऐसा क्या हो गया सुखीराम जी, बड़े उदास लग रहे हैं, आखिर हुआ क्या?’’ इस पर वे बोले-‘‘ गांव से मां की बीमारी की पिछले छह महीने से खबर आ रही थी, मैं कुछ रूपये उनके के लिए भेज दिया करता था। पर मां का यही आग्रह होता था कि एक बार मैं आकर उनसे मिल लूं। पर मैं जीवन की इस आपाधापी में ऐसा फंसा कि घर जाने का समय ही नहीं निकाल पाया। परिणाम वही हुआ जिसकी आशंका थी। एक सप्ताह पहले फोन आया कि मां अब नहीं रहीं। मैं गांव पहुंचा तो सबने बताया कि मरते दम तक मां मुझे याद करती रहीं। और मुझे एक बार देखने की इच्छा लिए ही इस दुनियां से चली गईं।...’’ वे रुआसे हो आए। सुखीराम जी पत्नी-बच्चों सहित दिल्ली में रह रहे हैं। उनके माता-पिता उत्तर-प्रदेश के एक गांव में रहते थे। सुखीराम जी एक निजी कम्पनी में र्क्लक हैं। पत्नी और बच्चों को आज की सारी सुख-सुविधाएं चाहिए। उनको जुटाने में सुखीराम जी नौकरी के अलावा अन्य ऐसे कई कार्यों में जुटे कि अपने पैतृक गांव, रिश्ते-नाते सबसे दूर होते चले गये। यहां तक कि अपने माता-पिता से भी कर्तव्यपूर्ति तक का ही नाता रह गया। मैंने उन्हें सान्त्वना दी जब वे विदा हुए तो मैं सोचने लगा कि हम अपने निजी लोगों से, हमारे अपनों से दूर क्यों होते जा रहे हैं? हमारी संवेदनाएं मरती क्यों जा रही हैं। हम सड़क पर किसी बीमार या घायल को देखकर आगे क्यों बढ़ जाते हैं? किसी अपने के दुख-सुख में शामिल क्यों नही हो पाते?



सोचने पर लगा कि हम पर बाजारवाद हावी होता जा रहा है। हम सभी रिश्ते-नातों, मानवीय संवेदनाओं को लाभ-हानि की तुला पर रख कर तोलने लगे हैं। अगर हम किसी कार्यक्रम में शामिल होने जा रहे हैं तो सबसे पहले यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है कि इसमें हमारा क्या फायदा? अपनी लड़की की शादी में कोई सादर आमंत्रित करता है तो हम सोचते हैं कि लड़की की शादी में कुछ देना ही पड़ेगा - यही सोचकर हम उसे टालने की कोशिश करते हैं। अपना कोई सगा-संबंधी बीमार है तो हमारे पास उसे देखने, हमदर्दी के दो शब्द बोलने का समय नहीं है।



इधर भूमण्डलीकरण के इस दौर में बाजारवाद हम पर इतना हावी हो गया है कि हम यथाषीघ्र अधिकाधिक आधुनिकतम भौतिक सुविधाएं प्राप्त करना चाहते हैं - भले ही हमारी आर्थिक स्थिति इस लायक न हो। दूसरी ओर बाजारवाद हमें ललचा रहा है। शाहरुख खान के रुप में बाजार चिल्ला रहा है - ‘‘ ...क्यों हो सन्तुष्ट , डोन्ट बी सन्तुष्ट। कुछ विश करो...।’’ उससे प्रभावित हम कुछ नहीं बल्कि बहुत कुंछ विश कर रहे हैं। इधर बैंक कह रहे हैं ‘ आधुनिकतम सुख-सुविधाओं का आनन्द लीजिए। क्या कहा पैसा नहीं है? फिकर नोट, हमारे पास आइए। लौन ले जाइए। वसूलना तो हम जानते हैं। मॉडर्न टेक्नोलौजी की आरामदायक वस्तुएं खरीदिए और अपने पड़ोसियों तथा रिश्ते दारों पर रौब जमाइए। साथ ही अपनी टेशन बढ़ाइए। पर मत घबराइए। टेंशन तो सिर्फ आपको होगी। वह औरों को दिखाई नहीं देगी। वैसे भी सबके पास खुद ही अपनी-अपनी इतनी टेंशन्स हैं कि आपकी टेंशन देखने की फुरसत किसे है? समय कहां है?

बच्चों के पास दादा-दादी, नाना-नानी के पास जाने बतियाने का समय नहीं हैं। उनके पास इन्टरनेट है। वीडियो गैम्स हैं। ऐसे में बूढ़े लोगों से उनके पुराने अनुभव सुनने का समय कहां है? उनके पास आउटडोर गेम खेलने का समय भी नही है। बेशक बचपन में ही मोटापा हावी हो जाए। बड़ो को पैसा कमाने से फुरसत कहां है? किसी से मिलने को समय कहां है? ग्लैमर्स बाजार अपनी चमक-दमक से सबको अपनी ओर खींच रहा है। हम सम्मोहित से उसकी ओर खिंचे चले जा रहे हैं। वह इंसानियत के हर पहलू को कमोडिटी (वस्तु) में बदल रहा है। हम उसमें समाहित होते जा रहे हैं। मानवीय संवदेनाओं को महसूस करने, लोगों के साथ मिल बैठकर दुख-सुख बांटने, हंसने बोलने का हमारे पास समय कहां है?



संपर्क:

36/13 ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

शुक्रवार, 28 मई 2010

दर्द दासता का गजल राज वाल्मीकि

दर्द दासता  का क्या होता मत मालिक से जाकर पूछ
सदिया गुजरीं सेवा करते हम लोगों से आकर पूछ

देवी रूप जहां नारी का उसका है यथार्थ क्या
तिहरा शोषण जिसका होता उस महिला से जाकर पूछ

नीरस जीवन, एकाकीपन, विधुरावस्था और बुढापा
तनहाई का दंश क्या है हम बूढों से आकर पूछ

स्वाभिमान से जीने की जिद कितनी मंहगी पडती है
हाथ कटें हैं जिन लोगों के उनको कभी बुलाकर पूछ

असर क्या होता है प्यारे जादू की इस झप्पी में
किसी दुखी को यार कभी तू दिल से गले लगाकर पूछ

स्वतन्त्रता, समता, न्याय, बंधुता कब तक बंदी रख पाओगे
राज कभी वो तुझे मिलें तो उनसे नजर मिलाकर पूछ

दोस्ती का ऐसा मंजर गजल राज वाल्मीकि

दोस्ती का ऐसा मंजर देखते हैं
दोस्तो के कर में खंजर देखते हैं

यहां कैसे उगें समता की फसलें
दिलों की भूमि बंजर देखते हैं

कफन के हैं वही घीसू और माधव
जमाने का वो अंतर देखते हैं

जहां मिलती हैं सब धर्मों की नदियां
वो भारत का समन्दर देखते हैं

भेडिये दिखते हैं हम को भेड मे क्यों
मुखौटों के जो अन्दर देखते हैं

किस तरह बंटता है इन्सा राज यहां पर
गुरूदवारे, चर्च, मस्जिद और मंदिर देखते हैं

iss samay me

iss samay me

Friends you are welcome on my blog isssamayme-raj.blogspot.com

बीडी पिला गजल राज वाल्मीकि

मशीने अब गई हैं थम जरा बीडी पिला
मैं भी ले लूं दम जरा बीडी पिला

कीडे-मकौडे क्षुदर  जन्तु जो भी हों उनके लिए
आदमी नहीं हम जरा बीडी पिला

एशो-अय्याशी हमारे श्रम पे वे करते रहें
हम खटें हरदम जरा बीडी पिला

मां का गठिया पेट पालन और बिटिया का विवाह
छोड फिकरो-गम जरा बीडी पिला

इनकी सरकारें सही हैं उनकी सरकारें गलत
कौन किससे कम जरा बीडी पिला

वो अमीरी ये गरीबी वो सवर्ण और हम दलित
हम नही हैं सम जरा बीडी पिला

हजारों गम हैं इस जीवन में किसका गम करें
गम तो हैं हमदम जरा बीडी पिला

सीवर में हुई है मौत साथी की मगर तू मत करे
राज आंखें नम जरा बीडी पिला

सोमवार, 24 मई 2010

प्यासी बहना कविता

मई महीना था गर्मी का दोपहरी थी तपती


सारी सृष्टी त्राहि त्राहि कर नाम राम का जपती

सूर्य आग उगलता था सारी धरती जलती थी

गरम गरम लू अपनी मस्ती में झुलसाती चलती थी

गर्मी का था तेज भयंकर मुश्किल था जिसको सहना

पशु चराते थे खेतों में मैं और मेरी बहना

बारह वर्ष का मैं बालक था अभी उम्र थी बाली

सात वर्ष की बहना मेरी मासूम थी भोली भाली

सूख गया था कण्ठ हवा से बोली थी अकुला कर

'प्यास बहुत लगी है भैया जल्दी पानी दो ला कर!'

सुन कर वचन बहन के मन में बहुत उदास हुआ

हाय!बहन को देने को भी पानी तक न पास हुआ

घर भी बहुत दूर था वहाँ से तब तक वो न रहती

प्यास बहुत लगी थी उसको और नहीं सह सकती

कहाँ से पानी दूँ मैं ला कर सोच रहा था मन में

आस-पास जल स्रोत नहीं था कोई न था निर्जन में

मौन देख कर मुझको बोली बहना घबरा कर

'प्यास लगी है भैया,जल्दी पानी दो लाकर!'

सहसा मुझे स्मरण हो आया एक कूप है समीप कहीं

मिटी निराशा हुआ प्रज्वलित ज्यों आशा का दीप कहीं

किन्तु दूसरे पल ही उस पर भीषण वज्रपात हुआ

चीत्कार कर उठा मेरा मन क्षुब्ध-निराश-हताश हुआ

मैं अछूत हूँ हाय!मुझे वहाँ नीर कौन भरने देगा?

वह कूप तो ब्राह्मण का है ये कर्म कौन करने देगा?

किन्तु बहन के मुखमंडल को लख कर मैं बेज़ार हुआ

निरभया होकर साहस करके जाने को तैयार हुआ

कांतिहीन सी अनुजा से मैं बोला था फिर समझाकर

'ठहर यहीं तू -अभी मैं लाता हूँ पानी जाकर'

जाकर देखा निकट कुएं के था एक मंदिर भव्य-महान

पंडित जी भी पूजारत थे अर्चन में था उनका ध्यान

रस्सी-डोल हाथ में लेकर चढ़ गया कुएं पर मौका पाकर

जल-रव सुनकर पंडित जी ने देखा था बाहर आकर

मुझे देखकर क्रोधाग्नि से बोले थे वे चिल्लाकर

'पकड़ो-पकड़ो इस भंगी ने अपवित्र कुआँ किया आकर'

सुनकर पंडित जी की पुकार कुछ भक्तों ने मुझको पकड़ लिया

लगे मारने मुझको सब मिल सब हाथों ने जकड़ लिया

मैंने कहा-'जो चाहे दंड दो याद रखूँगा मैं पाकर

किन्तु मेरी प्यासी बहना को ये जल देड़ूँ ले जाकर'

इसपर खूब हँसे थे सब मिल जल मिट्टी में मिला दिया

धक्का देकर चले गए वे मेरी विनती का सिला दिया

महापुरुष कह गए यही मानव जाति है सिर्फ एक

वे एक वृक्ष की शाखायें हैं उनके ही हैं रूप अनेक

जाकर देखा मैंने वहाँ पर यहीं कहीं तो खड़ी हुई थी

एक जगह पर दृष्टि रुक गई मुरझाई सी पड़ी हुई थी

हिउ मूर्छित प्यासी बहना और मुझे रोना आया

मैं अपनी प्यासी बहना को पानी तक न दे पाया

वो तो चुप थी पर गूँज रही थी उसकी ध्वनि हाहाकार

'प्यास बहुत लगी है भैया जल्दी पानी दो लाकर!'

खौल उठा था रक्त मेरा फिर बहना को मूर्छित पाकर

सोच लिया था अब पूछूंगा भगवन से मंदिर जाकर

मैं अंदर ही जा पहुँचा था मंदिर को सूना पाकर

पूछ लिया था फिर मैंने भगवन से मौका पाकर

ऊँच-नीच का भाव बता तेरे अंदर क्यों है?

मेरे उनके बीच जात का अन्तर क्यों है?

छूआछूत की ये दुनिया तेरी क्यों इतनी बदसूरत है

तू जवाब क्या इसका देगा तू बस पत्थर की मूरत है!

और उठाकर मैंने उसको उस कुएं में फेंक दिया था

अपमानित पीटने का बदला मैंने उसको फेंक लिया था

(रचनाकाल 1988 : उम्र 17 वर्ष)