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रविवार, 25 दिसंबर 2011

स्त्री देह भी है

लेख
स्त्री देह भी है
-राज वाल्मीकि

भारतीय संविधान में स्त्री-पुरूष समान रूप से भारत के नागरिक हैं - बिना किसी लैंगिक भेदभाव के। दूसरे शब्दों में कहें तो संविधान स्त्री-पुरूष को समान मानवीय गरिमा प्रदान करता है, समान अधिकारों से लैस करता है। स्त्री को कहीं कमतर साबित नहीं करता। पर व्यावहारिक रूप में हम कई भिन्नताएं देखते हैं। इसी सन्दर्भ में इस लेख का उद्देश्य आधी दुनिया कही जाने वाली स्त्री की अस्मिता, उसकी गरिमा के साथ  कुछ व्यावहारिक पक्षों पर बात करना है।
यह निर्विवाद सत्य है कि स्त्री पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं। साथी हैं। स्त्री या पुरूष के बिना इस संसार की कल्पना ही बेमानी है। हम भारतीय संदर्भ में बात करें तो आमतौर पर ऐसी अवधारणा है कि यहां स्त्री को दोयम दर्जा दिया जाता है। स्त्री को दासी और पुरूष को स्वामी समझा जाता है। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को संपत्ति समझा जाता है। पुरूष को श्रेष्ठ और स्त्री को हेय समझा जाता है। व्यावहारिक रूप में हमारे यहां ऐसा होता भी है जो न केवल निन्दनीय है बल्कि नाकाबिले-बर्दाश्त भी। स्त्रियां भी पुरूषों की तरह इन्सान हैं। उनकी गरिमा उनका सम्मान है।
हमारी समाज व्यवस्था, परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों के अनुसार आज भी भेदभाव देखने को मिलता है। वेदों में ‘यत्रनार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ जैसी बात कही जाती है। स्त्री को देवी का दरजा दिया जाता है। आज भी उनके नाम के साथ ‘देवी’ उपनाम लगाया जाता है। उन्हें ‘मां’ की प्रतिष्ठा से नवाजा जाता है। मातारानी कहकर पूजा जाता है। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहा जाता है। ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ कहा जाता है। दूसरी ओर उसको इतना दुखी भी किया जाता है कि कवि को कहना पड़ता है - ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी।’
किन्तु दूसरा पहलू यह भी है कि आज की  जो नारी शिक्षित है, जागरूक है, वह अबला नहीं, सबला है। वह देश की राष्ट्रªपति है, प्रधानमंत्री रह चुकी है, मुख्यमंत्री बन चुकी है, हवाई जहाज उड़ाती है, ट्रेन चलाती है, सेना मे है, पुलिस  में है, प्रशासन में है, कॉलेज मे लेक्चरर है, संपादक है, साहित्यकार है, बड़े-बड़े जिम्मेदार पदों पर आसीन है, फिल्मों में है, टी.वी. में है, रेडियो में है, कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां स्त्री पुरूष से पीछे है। हकीकत तो यह है कि वह पुरूष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नई-नई ऊंचाईयों के शिखर छू रही है तथा जीवन पथ पर निरन्तर अग्रसर है। अब आप कह सकते हैं कि यह स्थिति तो कुछ प्रतिशत महिलाओं की है। देश की अध्ंिाकांश महिलाएं अशिक्षित हैं, पितृसत्ता, जातिवाद एवं निर्धनता की शिकार हैं, उत्पीड़ित हैं। इनकी स्थिति वाकई ंिचंतनीय है। इस देश में दलित जातिवाद के कारण उत्पीड़ित हैं तो महिलाएं लैंगिक भेदभाव के कारण। दूसरी ओर दलित महिलाएं तो तिहरे शोषण की शिकार हैं - ंिलंग, जाति एवं गरीबी। ग्रामीण क्षेत्रों में तथाकथित उच्च जाति के दबंग व्यक्ति दलित महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाते हैं। क्योंकि वे ‘इजी टारगेट’ होती हैं। उनकी तथाकथित निम्न जाति और गरीबी बड़े कारक हैं - उनके शोषण में। आर्थिक कमजोरी के कारण महिलाओं का शारीरिक शोषण तो गांव और शहर दोनो जगह होता है। इसके अलावा शहरों में रईसजादे और बड़े रसूख वालों के बिगड़ैल बेटे अय्याशी के लिए किसी भी सड़क चलती महिला को अपनी कार में जबरन उठाकर उससे सामूहिक बलात्कार कर डालते हैं। इसकी खबरें हम और आप आए दिन अखबारों एंव टी.वी. में पढ़ते-देखते हैं। कानून और सजा का भय इनके लिए बेमानी होता है। यहां पर हमारी कानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था धनबल, बाहुबल और बड़े पदो ंके प्रभाव के समक्ष लाचार नजर आती है। उनके सामने निरीह साबित होती है। यहीं हमारे लोकतन्त्र की सबसे बड़ी हार होती है। तात्पर्य यह है कि महिलाएं न गांव में सुरक्षित हैं न देश की राजधानी दिल्ली में।
एक सच यह भी है कि पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के कारण परम्परावादी परिवारों में लड़की को लड़के से कमतर समझा जाता है। इसी मानसिकता के कारण महिलाएं घरेलू हिसा का शिकार भी होती हैं। हिन्दू समाज में घूंघट की प्रथा एवं मुस्लिम समाज में बुर्के की व्यवस्था ंभी पितृसत्ता के कारण ही है। देखने में आता है कि ये परम्परावादी परिवार प्रायः उच्च शिक्षित नहीं होते। अशिक्षा के कारण ही वे परम्पराप्रिय एवं रूढ़िवादी होते हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि कई बार परम्पराएं, कुप्रथाएं एवं रूढ़िवादिता व्यक्ति पर इतनी हावी हो जाती हैं कि  वह उच्च शिक्षित होकर भी तर्क से काम न लेकर आस्था एवं संस्कारवश बुराईयो का विरोधी नहीं बल्कि समर्थक हो जाता है। अशिक्षित महिलाएं (कुछ शिक्षित महिलाएं भी) पितृसत्ता की इतनी अभ्यस्त हो जाती हैं कि वे स्वयं भी इसकी समर्थक हो जाती हैं। कुप्रथाओं को भी अपनी परंपरा मान सीने से लगाने वाले अपनी युवा लड़कियों को गैरजाति में या एक ही गोत्र के लड़के के साथ प्रेम प्रसंग को उचित नहीं मानते और अपने खाप पंचायती निर्णयों के कारण ‘ऑनर किलिंग’ के नाम पर अपने ही बच्चों की हत्या करने से नहीं चूकते। कट्टरता इतनी कि ‘खाप’ नाम से बनी फिल्म का भी विरोध करने लगते हैं। यह गंभीर समस्या है। उच्च एवं तार्किक शिक्षा से ही धीरे-धीरे इस समस्या  का समाधान हो सकता है या फिर कड़ी कानूनी कार्यवाही से। पर हमारे यहां कानून के कार्यान्वयन की उम्मीद कम ही है।
प्रायः हमारी यह धारणा होती है कि समाज मे पितृसत्ता है इसलिए सभी स्त्रियों का उत्पीड़न और शोषण होता है। पर यह पूरी तरह सही नही है। मैंने और आपने भी अनुभव किया होगा कि कुछ परिवारों में औरतों की ही चलती है। महत्वपूर्ण निर्णय वही लेती हैं। पुरूष उसकी हां मे हां मिलाता है, भले ही समाज उसे ‘जोरू का गुलाम’ कहे। कई स्त्रियां गृहक्लेश करती हैं जिससे पुरूष तंग आकर हथियार डाल देता है कि तुम्हे जैसा दिखे वैसा करो। ऐसी स्त्रियां दबंग होती हैं और पुरूषों को अपने हिसाब से चलाती हैं ‘उंगलियों पर नचाना’ कहावत भी ऐसी ही स्त्रियों के कारण प्रचलित हुई है। परम्परावादी भारतीय परिवारों में भी स्त्री को घरवाली कहा जाता है। पुरूष बाहर जाकर कमाने की जिम्मेदारी अपनी समझता है और घर-गृहस्थी को संभालने की जिम्मेदारी स्त्री की होती है। वे इसे संभालती भी हैं।
परन्तु जो स्त्रियां उच्च शिक्षित एवं स्त्रीवादी हैं। ऐसी स्त्रियां पारंपरिक गृहणी की भूमिका को स्वीकार नहीं करतीं। वे कहती हैं कि वे बच्चे पैदा करने वाली मशीन नहीं हैं। पुरूष की नौकरानी नहीं हैं। पुरूष को भी गृहस्थी में बराबर की जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी। घरेलू कार्याें से लेकर बच्चे पालने में भी समान भूमिका निभानी होगी। स्त्रीवादी औरतेें कहती हैं कि उन्हें हर क्षेत्र में पुरूष की बराबरी चाहिए - यौन संबंधों में भी। यदि पुरूष किसी अन्य महिला से शारीरिक संबंध बनाता है तो वह भी अन्य पुरूषों से ऐसे संबंध रखने की हकदार हैं। ऐसी स्थिति में यदि स्त्री किसी अन्य पुरूष के बच्चे की मां बनती है और पति को इसकी जानकारी हो जाती है तो स्पष्ट है कि वह किसी और के बच्चे को पालने-पोसने की जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहेगा। परन्तु वे कहती हैं कि ये देह उनकी है। वे इसका जैसा चाहे वैसा इस्तेमाल करें। स्त्री विमर्श देह से मुक्ति का भी विमर्श है। देह-मुक्ति का अर्थ यह भी है कि जरूरी नहीं कि वह किसी एक पुरूष को ही इसके इस्तेमाल  या यौन संबंध बनाने का अधिकार दें। उनकी मरजी है कि वे इस देह को किस किस या कितने पुरूषों को इस्तेमाल करने दे। बात सही है कि देह उनकी है और मरजी भी उन्हीे की है। वे अपने शरीर की स्वयं मालिक हैं। ऐसे में एक बात जरूर लगती है कि भविष्य में विवाह संस्था कमजोर हो जाएगी और लिव इन रिलेशनशिप का प्रचलन बढ़ जाएगा। हां चल और अचल संपत्ति के हक को लेकर कुछ कानूनी समस्याएं भी उत्पन्न हांेंगी। हो सकता है तब यानी भविष्य में इनका समाधान भी निकल आए।
कुछ बुद्धिजीवी स्त्रियां हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति सचेत हैं, समाज हितैषी हैं, नेत्री हैं, सामाजिक कार्यकर्ता हैं, लेखिका हैं, अन्य सामान्य स्त्रियों की मार्गदर्शक हैं, वह क्या स्टैंड लेती हैं, यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि ऐसी स्त्रियों की विचारधारा सामाजिक परिवर्तन में सहायक होती है। उनकी कोई भी गतिविधि सोची-समझी रणनीति के तहत होती है जिससे समाज में सकारात्मक संदेश जाता है। स्त्री अस्मिता एवं मानवीय गरिमा के हेतु ऐसी स्त्रियों के नेतृत्व या देखरेख में कई महिला संस्थाएं अच्छा काम कर रही हैं।
इस सबके बावजूद भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्त्री एक खूबसूरत देह भी है। यही कारण है कि फिल्म निर्माता तथा बिजनेस मैन अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए विज्ञापनों में शिक्षित एवं जागरूक स्त्रियों की देह का, उनकी मरजी से, खूब इस्तेमाल करते हैं। उसे आप और हम प्रिंट मीडिया एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में देखते ही हैं।
आप शायद भूले नहीं हों। इसी वर्ष (2011 में) देश की राजधानी दिल्ली में महिलाओं के ‘बेशर्मी मोर्चा’ द्वारा कनाडा की तर्ज पर स्लट वाक किया गया। जिसमे ंविदेशी युवतियों तथा दिल्ली कॉलेज की युवा लड़कियों ने जुलूस निकाला था। उनका कॉलेज के युवा लड़को ने भी साथ दिया था। उसमें कुछ नारे काबिले-गौर थे। आप भी गौर फरमाईए - ‘बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला’, ‘नजर तेरी बुरी बुर्का मैं पहनूं?’, ‘बेशर्म कौन, तेरी आंखें तेरी सोच’, ‘दिस इज नॉट इन्वीटेशन फोर रेप’ आदि। इस स्लट वॉक पर टिप्पणी करते हुए जनप्रिय लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने जनसत्ता में अपने लेख में टिप्पणी की - ‘‘लड़कियां आपकी बेशर्मी के खिलाफ खड़ी हैं बेशर्मी मोर्चे पर। आपकी बेशर्म नजर, बेशर्म भाषा और बेशर्म सोच को बदलने के लिए चला है यह अभियान।’ इसी प्रकार सुप्रसिद्ध लेखिका आदरणीया रमणिका गुप्ता जी अपने युद्धरत आम आदमी के संपादकीय (अप्रैल-जून 2011) में ‘क्यों नहीं समझते पुरूष - ‘स्त्री मात्र देह नहीं है!’ शीर्षक में लिखती हैं - ‘किसी स्त्री को देखने पर पुरूष उसे ललचाई नजरों से न देखें - यही स्त्री मुक्ति का अभिप्सित है। पर हैरानी की बात तो यह है कि अधिकांश पुरूष स्त्री की सीरत नहीं, ज्ञान नहीं, गुण नहीं, उसकी सूरत व सेक्स के प्रति आकर्षित होते हैं।’
यदि किसी स्त्री की सेक्स अपील के कारण कोई पुरूष उससे बलात्कार करता है तो यह जघन्य अपराध है, इसके लिए कानून में सजा का प्रावधान है, कोई अश्लील टिप्पणी करे तो यह गलत है। इसके लिए भी सजा निर्धारित की गई है। पर जहां तक सेक्स के प्रति आकर्षित और ललचाई या वासना की  नजरों से देखने का प्रश्न है, यह तो स्वाभाविक है। यह प्रकृति प्रदत्त गुण है। प्रकृति ने ही स्त्री पुरूष को ऐसा बनाया है कि वे एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। सामान्य तौर पर आपने भी सुना होगा कि स्कूल-कॉलेज की जवान लड़कियां लड़कों की स्ट्रोंग बॉडी, उनके डोले-शोले की तारीफ करती हैं। दूसरी ओर युवा  लड़के लड़कियों के यौवन के उभारों को देखकर आहें भरते हैं। उन्हें ललचाई या वासना की नजरों से देखते हैं - पर यह स्वाभाविक है। प्रकृति ने पुरूष को स्त्री के एक्टिव पार्टनर के रूप में विकसित किया है। इसीलिए पुरूष ज्यादातर  सेक्स के बारे में ही सोचता है। यह प्रकृति प्रदत्त है। अतः इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती। हां, भारतीय परिवार में लड़को का पालन जिस ढंग से किया जाता है उस से उनका मनोविज्ञान इस प्रकार का बनता है कि उनकी बहन युवा भी है तो भी उसके प्रति वे सेक्स की दृष्टि से नहीं सोचते। पर भाभियों और उनकी बहनों तथा बाकी लड़कियों और महिलाओं के प्रति वे वासना की दृष्टि से ही देखते हैं। क्योंकि महिलाओं के यौवन में कुछ इस तरह का आकर्षण प्रकृति ने विकसित किया है कि अनायास ही वे वासना की नजरों से देखने लगते हैं। पर अधिकांशतः यह क्षणिक आवेश होता है। जैसे सड़क चलती किसी युवा लड़की या महिला आंखों के सामने आ गई तो उसे वासना की नजरों से देखते हुए गुजर गये। उन्हें जब देखा तब देखा फिर भूल गये। वैसे स्त्रियों के यौन आकर्षण पर प्राचीन काल में विद्यापति, बिहारी लाल, कालीदास से लेकर आज तक न जाने कितने कवियों, शायरों ने उनकी प्रशंसा में कसीदे पढ़े होंगे और आगे भी पढ़े जाते रहेंगें। फिलहाल तो मुझे अकबर इलाहाबादी का एक शेर याद आ रहा है कि- ‘ जलाया दिल को तड़पाया जिगर को, खुदा रक्खे सलामत इस नजर को, जवानी मार ही रखती है ‘अकबर’, संभालो दिल को या रोको नजर को।’  पर नजर को रोकना तो संभव नहीं है। हां जजबातों पर नियन्त्रण किया जा सकता है। अतः पुरूष महिलाओं की अस्मिता को आहत न करें, उनके आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचाएं, उनकी मानवीय गरिमा का ध्यान रखें। मेरी नजर में उन्हें वासना की दृष्टि से देखना भर कोई अपराध नहीं है। आखिर स्त्री एक खूबसूरत देह भी तो है। पर अति स्त्रीवादी महिलाएं मर्दों की नजर पर भी नियन्त्रण चाहती हैं, क्या ये महिलाओं की पुरूषों पर ज्यादती नहीं है?
संपर्क: 9818482899, 36/13 ग्राउण्उ फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

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