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सोमवार, 26 दिसंबर 2011

किन्नर समाज का दर्द

हाशिए से
किन्नर समाज का दर्द
-राज वाल्मीकि
रानी महन्त (किन्नर) कहती हैं कि - ‘ मैंने बहुत से किन्नर इकट्ठे किए और रामलीला मैदान जाकर अन्ना हजारे का समर्थन किया। अन्ना हजारे को देखकर लगता है कि कोई तो है जो अपने बारे में न सोचकर जनता के बारे में सोचता है। उसकी भलाई के लिए अन्शन रखता है। जब वह हमारी भलाई के लिए, भ्रष्टाचार मिटाने के लिए इतना कर रहे हैं तो हमें भी उनका साथ देना चाहिए।’ वे कहती हैं कि हम किन्नरों में बहुत इंसानियत होती है। अधिकांश औरतों-मर्दों को देखकर हैरानी होती है कि वे अपने स्वार्थ में ही लिप्त रहते हैं। दूसरों का दुख नहीं बांटते। वे अपने बारे में बताती हैं कि ‘कई बार मैंने बेसहारों को सहारा दिया है। सड़क पर घायल पड़े लोगों को अस्पताल पहुंचाया है। अपनी जेब से डॉक्टरों की फीस भरी है। पर यह देखकर दुख होता है कि समाज हमें ऐसी नजरों से देखता है  जैसे हम किसी दूसरे ग्रह के प्राणी हों। लोगों की नजरों में हमारे प्रति उपहास होता है। वे हमें हिकारत से देखते हैं। हमें मनोरंजन की वस्तु समझते हैं।’ रानी आगे कहती हैं कि ‘आप मेरी इस बात पर यकीन न करें तो बस्ती में जाकर पूछ लीजिए। मैं  दुख-सुख में सबके काम आती हूं। मेरे मन में जनहित की भावना है।’ ये पूछे जाने पर कि ‘यदि आपको टिकट मिल जाए तो आप  निगम पार्षद का चुनाव लड़ना चाहेंगी?’ वे कहती हैं ‘जरूर’। और अगर बस्ती वालों ने मुझे जिता दिया तो मैं इस बस्ती का कायाकल्प कर दूंगी। झुग्गियां नहीं तोड़ने दूंगी। इन्हें अधिकृत कराउंगी। अपना कर्तव्य  ईमानदारी से निभाउंगी। वैसे भी समाज सेवा करती रहती हूं। मैंने एड्स के प्रति जागरूकता के लिए
आवाज उठाई है। मैं चाहती हूं कि  किन्नरों का भी इलेक्शन में कोटा होना चाहिए। हम किन्नर जबान के पक्केे होते हैं। सबसे पहले तो मैं यहां स्कूल खुलवाउंगीं। क्योंकि इस बस्ती में एक भी स्कूल नहीं है। दूसरी महिलाओं के लिए डिस्पेंसरी, छोटे बच्चों के लिए आंगनबाड़ी। कच्ची गलियों को पक्का करवाउंगी।’ मेरे यह पूछने पर कि क्या बच्चों की बधाई मांगने से आपका गुजारा हो जाता है? वे कहती हैं कि हमारे इलाके बंटे होते हैं।
रानी महन्त   जैसे एक थाने के अन्तर्गत जितना क्षेत्र होता है वह उस क्षेत्र विशेष में रहने वाले किन्नर समुदाय का होता है। उस क्षेत्र में बच्चों की बधाई के अलावा शादी-विवाह में भी हम अपना हक लेते हैं। इस से गुजारा हो जाता है। पर हमारे लिए पेट भरना ही काफी नहीं है। पेट तो जानवर भी भर लेतेे हैं। हम चाहते हैं कि हम भी इन्सान हैं। हमारी भी इज्जत है। लोग हमारे प्रति अपनी सोच बदलें। हमें इन्सान समझें। हमारा मजाक न उड़ाएं। किन्नर समुदाय के बारे में पूछने पर उन्होेंने बताया कि हमारा समाज चार भागों में बंटा होता है। ये हैं - 1.राय वाले 2.सुजानी 3.मण्डी वाले और 4. लश्करिया। उनसे यह पूछने पर कि कुछ किन्नर सड़कों पर या बसों में भी पैसा मांगते हैं। इसके बारे में आपका क्या कहना है? इस पर वे कहती हैं  कि असल में वे किन्नर नहीं हैं। किन्नर कभी इस तरह सड़कों और बसों में पैसे नहीं मांगते। हमारे भी गुरू होते हैं और वे कभी इस तरह पैसा कमाने का आदेश नहीं देते।’


 
अम्बालिका
 उनके पास एक सतरह-अठारह साल की किन्नर बैठी हुई थी। मैंने उसके बारे में पूछा  तो उन्होने बताया कि इसका नाम अम्बालिका सिंह राठौर है। ये लखनऊ की है। तीन साल की उम्र में मुझे ये लखनऊ रेलवे स्टेशन पर चाय वाले की दुकान के पास लावारिश मिली। मैं इसे अपने साथ दिल्ली ले आई। मैंने ही इसकी तब से परवरिश की है। आप चाहें तो इससे भी पूछ सकते हैं। मैंने उसे अपने बारे मे बताने को कहा तो वह बोली-‘ मैं अठारह साल की हूं। दिल्ली यूनिवर्सिटी में बी.ए.सेकेण्ड ईअर की छात्रा हूं। रानी जी ने मुझे बचपन से पाला-पोष कर बड़ा किया है। पढ़ाया-लिखाया है। ये ही मेरी माता-पिता हैं। मैं इन्हीं के साथ यहां ब्छ.115 टाली वाली बस्ती, गली नं.10 , आनन्द पर्वत में रहती हूं। किन्नर समाज में मुश्किल से 10 प्रतिशत लोग पढ़े लिखे हैं। मैं अपनी गुरू रानी जी की आभारी हूं कि वे मुझे उच्च शिक्षा दिला रही हैं।’ ये पूछने पर कि पढ़ाई के दौरान कोई परेशानी होती है? तो अम्बालिका बताती है कि लड़के हमें छेड़ते हैं। ‘हिजड़ा’ कहकर हमारा मजाक बनाते हैं। तब मैं सोचती हूं कि जब ये पढ़े-लिखेे, शिक्षित और सभ्य कहे जाने वाले लोग हमारा मजाक उड़ा रहे हैं तो आम लोगों से क्या उम्मीद की जाए। कब बदलेंगे ये लोग हमारे प्रति अपनी सोच। उससे यह पूछने पर कि क्या आप सरकार से कुछ अपेक्षा रखती हैं तो वह कहती है ‘हम भी इस देश के नागरिक हैं। सरकार जिस प्रकार की सुविधाएं विक्लांग लोगों को देती है वैसी ही हमें दे। नौकरियों मे किन्नरों का अलग आरक्षित कोटा होना चाहिए। एजूकेशन मे फीस कम होनी चाहिए। एडमिशन में ैब्ध्ैज्ध्व्ठब् की तरह सुविधाएं मिलनी चाहिए। अम्बालिका से ये पूछने पर कि क्या आप चाहती हैं कि आपकी शादी हो? वह कुछ शरमाते हुए कहती है कि उसे अच्छा लगेगा कि कोई मर्द उससे शादी करे। एक बच्चा गोद लेलें और हम पति-पत्नी की तरह एक अच्छी जिन्दगी जिएं।’ यह कहती हुई वह चाय बनाने चली जाती है।
हम रानी जी से मुखातिब हुए। आप किन्नर समाज के बारे में कुछ और बताईए। इस पर वे कहती हैं कि किन्नर समाज परम्पराप्रिय है। इसलिए अभी कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। शिक्षा का अभाव है। किन्नरों को पॉश कॉलोनियों से अच्छा पैसा मिल जाता है। गुरू के रूप में मैं कहती हूं कि किसी गरीब को ज्यादा न सताएं। उनके आगे नंगे न हों। मेरी गुरू पुष्पा है जो 108 साल की हैं। हम लोग गुरू का बहुत आदर करती हैं। गुरू की आज्ञाकारी होती हैं। उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं  करतीं। हमारे डेरा होते हैं। जहां किसी भी जगह का किन्नर आकर रूक सकता है -अपने घर की तरह। मेरी एक किन्नर सहेली तमन्ना है जो लक्ष्मीनगर में रहती है। वह चांदनी हाजी की चेली है। मेरे यह पूछने पर कि  सरकार आपको कोई सुविधा देती है? या सरकार से आप कोई अपेक्षा रखती हैं? तो वे कहती हैं कि सरकार हमें कोई सुविधा नहीं देती है। मैं चाहती हूं कि जिस तरह रेलगाड़ी में महिलाओं के लिए कोच होते हैं उसी तरह किन्नरों का भी एक डिब्बा हो। इन्दिरा आवास की तरह हम लोगों को भी आवास की सुविधा मिले। किन्नरों को वृद्धावस्था पेंशन मिले।...’ उनकी बातों को सुनकर उनकी मांगे जायज लगती हैं। पर क्या सरकार इन पर तभी ध्यान देगी जब इनके लिए कोई अन्ना हजारे आन्दोलन करेगा?
संपर्कः 9818482899, 36/13 ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

औरत भए न मर्द


औरत भए न मर्द
-राज वाल्मीकि
‘मुन्नी बदनाम हुुई...’ गीत की धुन पर कुछ किन्नर मित्र के घर के बाहर थिरक रहे थे। उनके यहां पहला पोता हुआ था। इसी उपलक्ष्य में मित्र ने भोज पर मित्र मण्डली को आमंत्रित किया था। मैं निर्धारित समय पर उनके घर पहुंच गया। जैसा कि हमारे यहां आमतौर पर होता है कोई समय पर पहुचना पसन्द नहीं करता। कुछ इस तरह की धारणा है कि  जो समय पर पहुंचता है वह आम और देर से पहुंचने वाले को खास समझा जाता है। हमारे यहां समय के पाबंद या पंक्चुअल व्यक्ति को भोला या मूर्ख समझा जाता है भले ही लोग उसके मुंह पर उसकी तारीफ करें। आयोजक भी निमंत्रण पत्र में  अपने आयोजन के शुरू होने के वास्तविक समय से एकाध घंटे पहले का समय ही छपवाते हैं। लोग देर से ही पहंुचेंगे यह अन्डरस्टूड होता है।खैर। मित्र के घर पहुंचकर मैंने देखा कि वे कार्यक्रम के आयोजन में व्यस्त थे। मुझे उन्होने ड्रांईग रूम में बैठने को कहा। वहां अकेले बैठना मुझे असहज लगा। बााहर किन्नरों के नाचने-गाने की आवाजे ंआ रहीं थीं। सोचा, क्यों न चलकर किन्नरों की जिन्दगी में झांका जाए। अतः मैं उनसे बावस्ता हुआ। शुरू में तो उन्होने उपेक्षा भाव दिखाया। पर जब मैंने उनसे आत्मीयता से बात की तो थोड़े सहज हुए। उनसे पता चला कि वे लड़का पैदा होेने पर ज्यादा रकम वसूलते है - लड़की होने पर कम। स्पष्ट था कि वे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अभ्यस्त थे।
किन्नरों से बात करते समय मुझे अपने  बचपन में पढ़ी एक कवि (शायद द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी) की कविता की कुछ पंक्तियां अनायास याद आ गईं - ‘यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता, सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।’लेकिन आज जब किन्नरों के बारे में सोच रहा हूं तो लगता है कि यह किसी बच्चे का यूटोपिया है या कवि की कल्पना। क्योंकि किन्नरों के राजा होने की आज तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।  हमारे सामाजिक ढांचे में किन्नर समुदाय के प्रति कोई आदर भाव नहीं है। हिन्दी बेल्ट में आम बोलचाल की भाषा में उनके लिए ‘हिजड़ा’ कह कर संबोधित किया जाता है। यदि कोई मर्द के लिए इस  शब्द का प्रयोग करता है तो यह उसके लिए सबसे बड़ी गाली होती है। नाना पाटेकर का किसी फिल्म में बोला गया डायलोग बहुत लोकप्रिय हुआ था - ‘एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है।’ इस वाक्य में समाज की किन्नर समुदाय के प्रति मानसिकता झलकती है। किन्नरों के साथ इस तरह का व्यवहार किया जाता है जैसे कि वे इन्सान ही न हों। किन्नरों ने मुझ से कहा कि ‘बाबूजी आपने हमे किन्नर कह कर पुकारा है नहीं तो लोग हमें हिजड़ा कहते हैं। हमें यह शब्द गाली की तरह लगता है। समाज हमारा अपमान करता है। हमारा मजाक बनाता है। पर हमारे दर्द को नहीं समझता। आप ही बताईए क्या हम इन्सान नहीं हैं?...’ उस किन्नर के ये शब्द मन को छू गये। मैं सोचने लगा कि जिस तरह हमारे यहां समाज व्यवस्था है उसमें आम इन्सान को भी कहां इन्सान समझा जाता है। जानवरों को पूजा जाता है पर उसे कीड़ों-मकोड़ों से भी बदतर स्थिति में रखा जाता है। दलितों को सदियों से ऐसा गुलाम समझा गया जिसका महत्व जानवरों जितना भी नहीं है। उसे अस्पृश्य माना गया। आज भी हमारे देश में मैला ढोने जैसी अमानवीय प्रथा प्रचलित है। क्या विडम्बना है कि एक इन्सान दूसरे का मल भी अपने हाथों से साफ करे और उसे ही अछूत समझा जाए! सीवर साफ करने वालों को क्या इन्सान समझा जाता है। अगर उन्हें इन्सान समझा जाता तो उनकी जिन्दगी इतनी सस्ती नहीं होती। सीवर की जहरीली गैस से सीवरकर्मियों की मौत की खबरें हम अखबारों में आए दिन पढ़ते रहते हैं। क्या एक ताकतवर इन्सान कमजोर को इन्सान समझता है। पूंजीपतियों के लिए महल बनाने वाले, कारखानों में वस्तुओं का उत्पादन कर उन्हें अमीर बनाने वाले, उनकी नजरों में कीड़े-मकोड़ों से भी गए-गुजरे होते हैं। उन्हें इन्सान कहां समझा जाता है। ऐसे में किन्नरों केे बारे में समाज का जो नजरिया है वह बेहद असंवेदनशील है। किन्नर  अपनी व्यथा बताये जा रहे थे। ‘एक तो भगवान ने ही हमें न जाने किस अपराध की सजा दी जो न औरत बनाया न मर्द। दूसरे समाज हमें हिकारत से देखता है। हमारा शोषण करता है। पुलिस, दबंग और रईसजादों के लड़के हमारा शारीरिक शोषण भी करते हैं। समाज में जाने पर बच्चे, जवान और बूढ़े सभी यह कहते हैं कि हिजड़ा आ गया। जैसे कोई इन्सान नहीं कोई अजूबा आ गया हो। तब हम पर क्या बीतती है, हम ही जानते हैं। हमें लोग मनोरंजन का साधन तो समझते हैं लेकिन इन्सान नहीं। हम भी इन्सान हैं। हमारा भी मान-सम्मान है। आखिर समाज हमें कब इन्सान समझेगा? कब बदलेगी हमारे प्रति समाज की सोच...?’ किन्नर अपनी बातें कहे जा रहे थे और मेरे जहन में कभी जोकर तो कभी यौनकर्मियों की तस्वीरें किन्नरों के साथ गड्डमड्ड हो रहीं थीं। तभी मित्र ने आवाज दी  मैं यन्त्रवत्-सा उठकर चल दिया। सच कहूं तो मेरे पास भी उनके सवालों के जवाब नहीं थे। मेरे मन में भी प्रश्न उठ रहे थे। किन्नर समुदाय हमारे समाज का ऐसा हिस्सा हैं जो न औरत हैं न मर्द। पर हमारा समाज कब बदलेगा उनके प्रति अपना नजरिया, कब समझेगा उनका दर्द?
संपर्क: 9818482899, 36/13 ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008
तंरअंसउपाप71/हउंपसण्बवउ

रविवार, 25 दिसंबर 2011

हाशिए का हासिल

हाशिए का हासिल
-राज वाल्मीकि
         मैं रात की बची बासी रोटियां सुबह को कूड़े की बाल्टी में नहीं फेंकता। उन्हें अलग रख लेता हूं। पार्क में सुबह की सैर के लिए जाते समय उन रोटियों को साथ ले जाता हूं। कारण यह है कि पार्क में पास ही एक कूड़ाघर है। वहां कागज चुनने वाले इन्सानों से लेकर कूड़े में कुछ खाद्य ढूढते गाय एवं कुत्ते भी मौजूद होते हैं। मैं उन रोटियों को वहां फेंक देता हूं ताकि गाय या कुत्ते जो उस समय वहां उपस्थित होते हैं, खा सकें। हालांकि रोटियों को फेंकते समय दुष्यन्त कुमार की पंक्तियां मन में कौंध जाती हैं कि ‘हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत, तुमने बासी रोटियां नाहक उठाकर फेंक दीं।’ पर इससे भी बेचैन करने वाली स्थिति तब होती है जब कुत्तों का झुण्ड उन रोटियों पर टूट पड़ता है। तब डार्विन की थ्योरी याद आती है - सर्ववाईल ऑफ द फिटेस्ट’ - जो शक्तिशाली होगा वही जिएगा। रोटियों पर शक्तिशाली कुत्ते ही अपना आधिपत्य जमा लेते हैं। कभी-कभार भूले-भटके से कोई रोटी किसी पिल्ले के मुंह पड़ जाती है तो बड़े कुत्ते उस से छीन लेते हैं और पिल्ला बिचारा अपना मन मसोस कर रह जाता है।

यह दृश्य देखते हुए अनायास ही अपने यहां की सामाजिक व्यवस्था का स्मरण हो आता है। सरकारी योजनाएं याद हो आती हैं। येे योजनाएं लागू करने के लिए कम और कागजों पर खानापूर्ति के लिए अधिक होती हैं। योजनाओं के कुछ टुकड़े सरकार जरूरतमंद या लाभार्थी तक फेंकने  की कोशिश भी करती है तो उसका लॉयन शेअर दलाल हड़प जाते हैं। और बचा हुआ उस जरूरतमंद तक पहुंचा या  नहीं उसकी भी कोई गारन्टी नहीं। यदि पहुंच भी गया तो यह भी सुनिश्चित नहीं होता कि उसका उपयोग वह कर भी पाएगा या नहीं। उस पर भी झपट्टा मारने के  लिए गिद्ध दृष्टि जमाए होते हैं। मन में प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों है कि देश की अधिकांश जनता  रोजी-रोटी, शिक्षा एवं आवास जैसी बुनियादी सुविधाओं से महरूम है तो दूसरी ओर मुट्ठी भर समृद्ध वर्ग हर तरह से जिन्दगी के  मजे ले  रहा है। एक के पास इतनी राशि नहीं है कि अपने परिवार को  दो वक्त पेट भर रोटी खिला सके तो दूसरा अकूत संपत्ति  का मालिक है। क्या ये असमान वितरण व्यवस्था के कारण नहीं है?

समस्या आर्थिक ही नहीं सामाजिक भी है बल्कि कहना चाहिए कि सामाजिक पहले है। सामंतवादी एवं मनुवादी व्यवस्था ने समाज के बड़े वर्ग को हाशिए पर धकेल रखा है। उन्हें जान-बूझकर  गरीब, जर्जर व सबसे निचले पायदान पर रखा है ताकि हमेशा उनका शोषण किया जा सके। पहले तो उनसे उनके सारे आर्थिक स्रोत जैसे जमीन-जंगल छीन लिए गये। फिर उन्हें गुलाम बनाकर अपनी सेवा में लगा दिया। मनुवादी व्यवस्था ने कुछ इस तरह की उच्च-निम्न वंश क्रम परम्परा रखी ताकि आजीवन वे शोषण की चक्की में पिसते रहें। उन्हें नीच समझे जाने वाले पेशे दे दिए जिससे ये निर्धन एवं अज्ञानी लोग अपने भाग्य मे लिखा मानकर सदियों से करते आ रहे हॅैं। एक जाति विशेष के लोगों को अपना मल साफ करने का काम सौंप दिया। पितृसत्ता के कारण इस जाति के पुरूषों ने ये काम अपनी महिलाओं पर थोप दिया गया। एक इन्सान का मल दूसरा इन्सान साफ करे  यह कितना ही घृणित एवं वीभत्स  क्यों न हो, पर हमारे देश की कड़वी सच्चाई है। मृत पशुओं का चमड़ा उतारने वाले चमार हों या सूअर पालने वाले खटीक हों, समाज व्यवस्था में वे भेदभाव से ग्रसित हैं। नट, कंजर, सांसी, कलंदर, बावरिया, पांसी, बंजारे जैसी जातियां तो ऐसी हैं जो अपने ही मुल्क में खानाबदोेश हैं। उनका न कोई घर है न ठिकाना। संपरे, बन्दरों का खेल दिखाने वाले, रस्सी पर करतब दिखाने वाले, चूहे खाने वाली मुसहर जाति के लोग सब इसी देश के नागरिक हैं जिन्हें सदियों से हाशिए पर रखा गया है। इन लोगों को न तो शिक्षा की व्यवस्था है और न दो जून की रोटी के लिए कोई सम्मानित पेशे-रोजगार की। ऐसा लगता है कि ये इस देश के नागरिक ही नहीं हैं।इनकी आर्थिक स्थिति जर्जर है। सामाजिक स्थिति दयनीय है। ये लोग कुछ इस तरह की जिन्दगी जी रहे हैं मानो वे इन्सान ही न हो। इनकी  कोई मानवीय गरिमा न हो। जब कि सच्चाई यह है  कि ये लोग भी इसी देश के मूलनिवासी हैं। इनका भी देश के संशाधनों पर अधिकार है। देश का संविधान इन्हें भी मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। पर शिक्षा से वंचित, दीन-हीन-गरीब इन लोगों को मनुवादी व्यवस्था ने दूध की मक्खी की तरह निकाल बाहर कर दिया है। इनका उत्थान परमावश्यक है।

इन लोगों को तीन चीजों की परमाश्वयकता है - वे हैं शिक्षा, रोजगार एवं सामाजिक सुरक्षा। ये अशिक्षित लोग न तो अपने अधिकारों को जानते हैं और न लोकतन्त्र को। दिन भर के कठिन शारीरिक परिश्रम के बाद बस किसी तरह परिवार की दो जून की रोटी नशीब हो जाए यही इनका अभीष्ट होता है। व्यवस्था द्वारा इनका अनवरत शोषण जारी है। दबंग जातियां न केवल इनसे अपनी बेगार करवाती हैं बल्कि इनका आर्थिक एवं शारीरिक शोषण भी करती हैं। देश को आजाद हुए 64 साल बीत गये पर इन्हंे क्या हासिल हुआ? ये अज्ञानी तो इसे अपनी नियति मानते हैं पर क्या इसमें सरकारी ब्यूरोक्रेट्स की नीयत बल्कि कहिए बदनीयत नहीं झलकती? प्रश्न यह भी है कि इन्हें न्याय, स्वतन्त्रता, समानता एवं मानवीय गरिमा आखिर कब हासिल होगी और कैसे?

संपर्क: 9818482899,  36/13 ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

जन सरोकार और मीडिया

लेख
जन सरोकार और मीडिया
-राज वाल्मीकि

हाल ही में अन्ना हजारे को लेकर मीडिया ने जिस तरह की कवरेज दी और सन् 1942 के  गांधी जी ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ की तर्ज पर ‘भ्रष्टाचार भारत छोड़ो’ का नारा उछाला, इससे साबित हो गया कि मीडिया लोगों की भावनाओं को भुनाने मेें किस तरह माहिर है। एक तरफ अन्ना हजारे का आन्दोलन दिखाकर दूसरी तरफ विज्ञापनों की भरमार कर मीडिया ने फायदे का सौदा किया है। पर मीडिया ने इस ओर लोगो का ध्यान दिलाने का कष्ट नहीं किया कि देश कां एक संविधान  भी है। किसी विधेयक को पास करने के संसद के कोई नियम-कायदे भी हैं। बस लग यही रहा है कि अन्ना हजारे की अन्शन की आंधी में मीडिया अन्ना हजारे को दूसरा गांधी सिद्ध करने पर तुली है। लगता है अन्ना हजारे के प्रचार-प्रसार में मीडिया यह भी भूल गई है कि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के बाद उसे ही लोकतन्त्र का चौथा खंभा कहा जाता है।
 प्रसंगवश कहना चाहूंगा कि चौबीस जुलाई के जनसत्ता में विनीत कुमार का लेख ‘साख पर सवाल’ पढ़ा। जिसमें उन्होने रूपर्ट मर्डोक के माध्यम से मीडिया की और विशेष कर पत्रकार की साख पर सवाल उठाये हैं। वे कहते हैं ‘यह बड़ा सवाल है कि पत्रकार पाठकों, दर्शकों के प्रति गैर जिम्मेदार और संस्था के प्रति जिम्मेदार होकर जो साख गंवा रहा है, उसमें उसे आखिर हासिल क्या है?’ पर यह सवाल क्या सिर्फ पत्रकार से किया जाना चाहिए? मीडिया का उद्योग चलाने वाली संस्थाओं से क्या ये सवाल नहीं किया जाना चाहिए? ये संस्थाएं विज्ञापनदाताओं को किस तरह उनके पाठकों एवं दर्शकों को बेचती हैं, क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए? शुद्ध मुनाफा कमाने वाली संस्थाएं अपना लाभ देखें कि पाठकों एवं दर्शकों के प्रति अपना दायित्व निभाएं?
नीरा राडिया प्रकरण में मीडिया की असलियत सबके सामने आ गई थी। हमारे यहां तो मीडिया में जातिवादी मानसिकता भी व्याप्त है। 2006 के मीडिया सर्वे में पाया गया था कि मीडिया में कुछ जाति विशेष के लोगों का वर्चस्व है। अनुसूचित जाति/जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग की भागीदारी नगण्य है। दूसरी बात ये है कि हमारे यहां जातिवादी मानसिकता, पितृसत्ता, साम्प्रदायिक वैमनस्य जैसी बड़ी समस्याएं हैं जिनके समाधान में मीडिया बड़ी भूमिका निभा सकता  है। बढ़ती मंहगाई पर लगाम लगाने के लिए मीडिया सत्ता पर दबाव बना सकता है। पर ऐसा कुछ भी नहीं है बल्कि सत्ता और मीडिया का चोली-दामन का साथ हो गया है।
बाजारवाद व्यवस्था पर हावी हो गया है। यहां आमजन एक उत्पाद बन गया है जिसे बेचने में मीडिया भी शामिल हो गया है। देश में पूंजीवादी व्यवस्था अर्थ व्यवस्था पर हावी  है। पत्रकार को वही करना है जो उसे कहा गया है । अगर वह अपनी मर्जी से कुछ करना चाहे जिसमें मीडिया संस्था का लाभ न हो तो व्यवस्था उसे बाहर का दरवाजा दिखाने में देर नहीं लगाती। ऐसे  में एक जिम्मेदार पत्रकार क्या करे? अपनी नौकरी बचाए या अपना नैतिक दायित्व पूरा करे? जाहिर है पत्रकार भी हमारी-आपकी तरह एक इन्सान है। उसे भी अपने परिवार का भरण-पोषण करना है। अपनी आजीविका बचानी है।  ऐसे में मालिक के खिलाफ कैसे जा सकता है? गौरतलब है कि एन.डी.टी.वी. पर एक ‘रवीश की रिर्पोट’ कार्यक्रम आता था जो आम आदमी की जिन्दगी उनकी दुख-तकलीफों को दिखाता था। उसे बन्द कर दिया गया। माना रवीश अच्छे पत्रकार हैं पर वे मालिक नहीं हैं। यहां मालिक पूंजीपति हैं। सब कुछ मालिक की मर्जी से चलता है। मालिक भी जानता है कि उसने मीडिया में निवेश मुनाफा कमाने के लिए लगाया है न कि समाज सेवा के लिए। पर प्रश्न यह उठता है कि क्या सीमित लाभ कमाते हुए अपने नैतिक दायित्व भी निभाए जा सकते हैं? इसका जवाब तो मीडिया मालिक ही दे सकते हैं।
अगर इलेक्ट्रिोनिक मीडिया की बात करें तो वहां अंधविश्वास से भरपूर कार्यक्रमों को दिखाकर आमजन की आस्था को भुनाकर पैसे बनाए जा रहे हैं। उन्हें अंधविश्वासों, रूढ़ियों में लिप्त किया जा रहा है जबकि मीडिया का दायित्व बनता है कि वह पाठकों/दर्शकों को जागरूक बनाए। उन्हें वैज्ञानिक सोच से लैस करेे। आमजन के प्रति होनेवाले अन्याय, उत्पीड़न, अत्याचार के बरक्स  मीडिया न्याय के लिए आमजन के साथ खड़ा हो।
अब तो पेड न्यूज का जमाना आ गया है। आप पैसे खर्च कीजिए और अपने पक्ष में न्यूज बनवा लीजिए। पॉवरफुल लोग अब भी अपने खिलाफ खबरों को दबा देते हैं । जो पत्रकार लालच में नहीं आते। धमकियों से नहीं डरते। निष्पक्ष पत्रकारिता करते हैं। ऐस खबर देने वाले एक दिन खुद खबर बना दिए जाते हैं। जे.डे. का उदाहरण हमारे सामने हैं। दूसरी बात आती है अन्दरूनी शोषण की। पाठक वही पढ़ते हैं जो प्रिंट मीडिया में छपता है या कहें कि श्रोता व दर्शक वही सुनता व देखता है जो इलेक्टिोनिक मीडिया सुनाता व दिखाता है। मीडिया के अन्दर की खबर किसी को पता नहीं होती। मीडिया में कहीं जातिवादी मानसिकता के कारण दलित वर्ग के पत्रकार का मानसिक उत्पीड़न किया जाता है, तिरस्कार किया जाता है या किसी महिलाकर्मी का यौन शोषण किया जाता है। ऐसी घटनाएं खबर नहीं बनतीं।
विनीत जी माने या न माने मगर यह सच है कि पत्रकार मालिकों के हाथों मजबूर हैं। उनके हाथ बंधे होते हैं। मान लीजिए कि कोई पत्रकार अपने ही संस्थान में हो रहे भ्रष्टाचार, उत्पीड़न या शोषण का पर्दाफाश करना चाहता है। क्या उसे ऐसा करने दिया जाएगा? क्या नौकरी से ही उसकी छुट्टी नहीं कर दी जाएगी। मीडिया मालिक के किसी रसूख वाले व्यक्ति से अच्छे संबंध  हैं तो क्या उसके अपराधों/कुकर्माें की खबर मीडिया हाईलाईट करेगा? हरगिज नहीं।
पत्रकारों से एक बार एक अनपढ़ आम महिला द्वारा किया गया मासूम-सा सवाल सोचने पर मजबूर कर गया। वह बोली- ‘‘मैने सुना है आप पत्रकारों का बड़ा नाम होता है। बड़े-बड़े लोगों तक पहुंच होती है। आपके लिखे में दम होता है। आप एक काम क्यों नहीं करते। आप महंगाई कम क्यों नही करा देते? हमारा तो इस मंहगाई में जीना मुहाल हो रहा है। क्या खाएं? क्या बच्चों को खिलाएं? कैसे उन्हें पढ़ाएं लिखाएं? आप लोग कुछ करते क्यों नहीं?’’ क्या पत्रकारों के लिए इस सवाल का जवाब देना आसान है? इस महिला को पत्रकारों पर कितना विश्वास है। आज भी अखबारों मंे छपे शब्दों पर लोग पूरा विश्वास करते हैं। टी.वी. में देखे को सच मानते हैं। आमजन उसके पीछे छिपी चीजों या कहें बिहाइन्ड द कर्टेन जो है वे उससे अनजान होते हैं। खबरें कितनी तोड़-मरोड़ कर पेश की जाती हैं वे इसे नहीं जानते। अखबारों में छपी खबरों या टी.वी. में देखी खबरों के अनुसार ही वे  अपना मत बनाते हैं। इस तरह मीडिया लोगों के विचार बनाने में भी अपनी भूमिका निभाता है। हर आम इन्सान में  तो मीडिया की खबरों का विश्लेषण करने  की क्षमता होती नहीं।

विनीत कुमार कहते हैं - ‘लोकतांत्रिक संस्थान के तौर पर मीडिया ने इन पत्रकारों का बहिष्कार नहीं किया।’ पहली बात तो यही है कि क्या मीडिया सचमुच एक लोकतांत्रिक संस्थान है? यह कथन ही हास्यास्पद लगता है। लोकतांत्रिक तो अपना लोकतंत्र भी नहीं है। ये अलग बात है कि यहां तानाशाही भी लोेकतंत्र के नाम पर ही की जाती है। लोकतन्त्र का मंत्र तो यही कहता है कि जनता ही सर्वशक्तिमान होती है। पर यहां आमजन की जो हालत है वह किसी से  छिपी नहीं है। मीडिया को भी लोकतंत्र का चौथा खम्भा माना जाता है। पर क्या हमारे यहां सरोकारों की पत्रकारिता हो रही है? यदि हो भी रही है तो कितने प्रतिशत? जाहिर है जन सरोकारों की बात करने वाला पत्रकार यहां मूर्ख या आउट डेटेड माना जाता है। कोई  जन सरोकारों व आमजन की आवाज उठाता भी है तो नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह उसकी आवाज दब जाती है या दबा दी जाती है।
ये बात सही है कि आज के समय में मीडिया अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। मीडिया चाहे तो जनक्रांति का वाहक बन सकता है। भ्रष्टाचार एवं लोकपाल बिल के मुद्दे पर देश भर में अन्ना हजारे को मिला जनसमर्थन एवं अन्ना हजारे को हीरो बनाने का श्रेय भी मीडिया को जाता है। आज धन का असमान वितरण, शक्तिशाली द्वारा निर्बल का शोषण, धनी  द्वारा निर्धन का शोषण, दबंगों द्वारा आम जन पर अत्याचार, बेतहाशा बढ़ती महंगाई पर काबू पाने के लिए  मीडिया चाहे तो अपनी अहम भूमिका निभा सकता है। जनक्रांति ला सकता है। पर बात वही कि जब मीडिया उद्योग के लोग अपने लाभ एवं जन सरोकारों में एक संतुलन बनाएं तभी ऐेसा हो सकता है। पर क्या मीडिया उद्यम चलाने वाले इस ओर ध्यान देंगे?
संपर्क: 36/13, ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

स्त्री देह भी है

लेख
स्त्री देह भी है
-राज वाल्मीकि

भारतीय संविधान में स्त्री-पुरूष समान रूप से भारत के नागरिक हैं - बिना किसी लैंगिक भेदभाव के। दूसरे शब्दों में कहें तो संविधान स्त्री-पुरूष को समान मानवीय गरिमा प्रदान करता है, समान अधिकारों से लैस करता है। स्त्री को कहीं कमतर साबित नहीं करता। पर व्यावहारिक रूप में हम कई भिन्नताएं देखते हैं। इसी सन्दर्भ में इस लेख का उद्देश्य आधी दुनिया कही जाने वाली स्त्री की अस्मिता, उसकी गरिमा के साथ  कुछ व्यावहारिक पक्षों पर बात करना है।
यह निर्विवाद सत्य है कि स्त्री पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं। साथी हैं। स्त्री या पुरूष के बिना इस संसार की कल्पना ही बेमानी है। हम भारतीय संदर्भ में बात करें तो आमतौर पर ऐसी अवधारणा है कि यहां स्त्री को दोयम दर्जा दिया जाता है। स्त्री को दासी और पुरूष को स्वामी समझा जाता है। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को संपत्ति समझा जाता है। पुरूष को श्रेष्ठ और स्त्री को हेय समझा जाता है। व्यावहारिक रूप में हमारे यहां ऐसा होता भी है जो न केवल निन्दनीय है बल्कि नाकाबिले-बर्दाश्त भी। स्त्रियां भी पुरूषों की तरह इन्सान हैं। उनकी गरिमा उनका सम्मान है।
हमारी समाज व्यवस्था, परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों के अनुसार आज भी भेदभाव देखने को मिलता है। वेदों में ‘यत्रनार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ जैसी बात कही जाती है। स्त्री को देवी का दरजा दिया जाता है। आज भी उनके नाम के साथ ‘देवी’ उपनाम लगाया जाता है। उन्हें ‘मां’ की प्रतिष्ठा से नवाजा जाता है। मातारानी कहकर पूजा जाता है। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहा जाता है। ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ कहा जाता है। दूसरी ओर उसको इतना दुखी भी किया जाता है कि कवि को कहना पड़ता है - ‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी।’
किन्तु दूसरा पहलू यह भी है कि आज की  जो नारी शिक्षित है, जागरूक है, वह अबला नहीं, सबला है। वह देश की राष्ट्रªपति है, प्रधानमंत्री रह चुकी है, मुख्यमंत्री बन चुकी है, हवाई जहाज उड़ाती है, ट्रेन चलाती है, सेना मे है, पुलिस  में है, प्रशासन में है, कॉलेज मे लेक्चरर है, संपादक है, साहित्यकार है, बड़े-बड़े जिम्मेदार पदों पर आसीन है, फिल्मों में है, टी.वी. में है, रेडियो में है, कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां स्त्री पुरूष से पीछे है। हकीकत तो यह है कि वह पुरूष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नई-नई ऊंचाईयों के शिखर छू रही है तथा जीवन पथ पर निरन्तर अग्रसर है। अब आप कह सकते हैं कि यह स्थिति तो कुछ प्रतिशत महिलाओं की है। देश की अध्ंिाकांश महिलाएं अशिक्षित हैं, पितृसत्ता, जातिवाद एवं निर्धनता की शिकार हैं, उत्पीड़ित हैं। इनकी स्थिति वाकई ंिचंतनीय है। इस देश में दलित जातिवाद के कारण उत्पीड़ित हैं तो महिलाएं लैंगिक भेदभाव के कारण। दूसरी ओर दलित महिलाएं तो तिहरे शोषण की शिकार हैं - ंिलंग, जाति एवं गरीबी। ग्रामीण क्षेत्रों में तथाकथित उच्च जाति के दबंग व्यक्ति दलित महिलाओं को बलात्कार का शिकार बनाते हैं। क्योंकि वे ‘इजी टारगेट’ होती हैं। उनकी तथाकथित निम्न जाति और गरीबी बड़े कारक हैं - उनके शोषण में। आर्थिक कमजोरी के कारण महिलाओं का शारीरिक शोषण तो गांव और शहर दोनो जगह होता है। इसके अलावा शहरों में रईसजादे और बड़े रसूख वालों के बिगड़ैल बेटे अय्याशी के लिए किसी भी सड़क चलती महिला को अपनी कार में जबरन उठाकर उससे सामूहिक बलात्कार कर डालते हैं। इसकी खबरें हम और आप आए दिन अखबारों एंव टी.वी. में पढ़ते-देखते हैं। कानून और सजा का भय इनके लिए बेमानी होता है। यहां पर हमारी कानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था धनबल, बाहुबल और बड़े पदो ंके प्रभाव के समक्ष लाचार नजर आती है। उनके सामने निरीह साबित होती है। यहीं हमारे लोकतन्त्र की सबसे बड़ी हार होती है। तात्पर्य यह है कि महिलाएं न गांव में सुरक्षित हैं न देश की राजधानी दिल्ली में।
एक सच यह भी है कि पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के कारण परम्परावादी परिवारों में लड़की को लड़के से कमतर समझा जाता है। इसी मानसिकता के कारण महिलाएं घरेलू हिसा का शिकार भी होती हैं। हिन्दू समाज में घूंघट की प्रथा एवं मुस्लिम समाज में बुर्के की व्यवस्था ंभी पितृसत्ता के कारण ही है। देखने में आता है कि ये परम्परावादी परिवार प्रायः उच्च शिक्षित नहीं होते। अशिक्षा के कारण ही वे परम्पराप्रिय एवं रूढ़िवादी होते हैं। दूसरी ओर यह भी सच है कि कई बार परम्पराएं, कुप्रथाएं एवं रूढ़िवादिता व्यक्ति पर इतनी हावी हो जाती हैं कि  वह उच्च शिक्षित होकर भी तर्क से काम न लेकर आस्था एवं संस्कारवश बुराईयो का विरोधी नहीं बल्कि समर्थक हो जाता है। अशिक्षित महिलाएं (कुछ शिक्षित महिलाएं भी) पितृसत्ता की इतनी अभ्यस्त हो जाती हैं कि वे स्वयं भी इसकी समर्थक हो जाती हैं। कुप्रथाओं को भी अपनी परंपरा मान सीने से लगाने वाले अपनी युवा लड़कियों को गैरजाति में या एक ही गोत्र के लड़के के साथ प्रेम प्रसंग को उचित नहीं मानते और अपने खाप पंचायती निर्णयों के कारण ‘ऑनर किलिंग’ के नाम पर अपने ही बच्चों की हत्या करने से नहीं चूकते। कट्टरता इतनी कि ‘खाप’ नाम से बनी फिल्म का भी विरोध करने लगते हैं। यह गंभीर समस्या है। उच्च एवं तार्किक शिक्षा से ही धीरे-धीरे इस समस्या  का समाधान हो सकता है या फिर कड़ी कानूनी कार्यवाही से। पर हमारे यहां कानून के कार्यान्वयन की उम्मीद कम ही है।
प्रायः हमारी यह धारणा होती है कि समाज मे पितृसत्ता है इसलिए सभी स्त्रियों का उत्पीड़न और शोषण होता है। पर यह पूरी तरह सही नही है। मैंने और आपने भी अनुभव किया होगा कि कुछ परिवारों में औरतों की ही चलती है। महत्वपूर्ण निर्णय वही लेती हैं। पुरूष उसकी हां मे हां मिलाता है, भले ही समाज उसे ‘जोरू का गुलाम’ कहे। कई स्त्रियां गृहक्लेश करती हैं जिससे पुरूष तंग आकर हथियार डाल देता है कि तुम्हे जैसा दिखे वैसा करो। ऐसी स्त्रियां दबंग होती हैं और पुरूषों को अपने हिसाब से चलाती हैं ‘उंगलियों पर नचाना’ कहावत भी ऐसी ही स्त्रियों के कारण प्रचलित हुई है। परम्परावादी भारतीय परिवारों में भी स्त्री को घरवाली कहा जाता है। पुरूष बाहर जाकर कमाने की जिम्मेदारी अपनी समझता है और घर-गृहस्थी को संभालने की जिम्मेदारी स्त्री की होती है। वे इसे संभालती भी हैं।
परन्तु जो स्त्रियां उच्च शिक्षित एवं स्त्रीवादी हैं। ऐसी स्त्रियां पारंपरिक गृहणी की भूमिका को स्वीकार नहीं करतीं। वे कहती हैं कि वे बच्चे पैदा करने वाली मशीन नहीं हैं। पुरूष की नौकरानी नहीं हैं। पुरूष को भी गृहस्थी में बराबर की जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी। घरेलू कार्याें से लेकर बच्चे पालने में भी समान भूमिका निभानी होगी। स्त्रीवादी औरतेें कहती हैं कि उन्हें हर क्षेत्र में पुरूष की बराबरी चाहिए - यौन संबंधों में भी। यदि पुरूष किसी अन्य महिला से शारीरिक संबंध बनाता है तो वह भी अन्य पुरूषों से ऐसे संबंध रखने की हकदार हैं। ऐसी स्थिति में यदि स्त्री किसी अन्य पुरूष के बच्चे की मां बनती है और पति को इसकी जानकारी हो जाती है तो स्पष्ट है कि वह किसी और के बच्चे को पालने-पोसने की जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहेगा। परन्तु वे कहती हैं कि ये देह उनकी है। वे इसका जैसा चाहे वैसा इस्तेमाल करें। स्त्री विमर्श देह से मुक्ति का भी विमर्श है। देह-मुक्ति का अर्थ यह भी है कि जरूरी नहीं कि वह किसी एक पुरूष को ही इसके इस्तेमाल  या यौन संबंध बनाने का अधिकार दें। उनकी मरजी है कि वे इस देह को किस किस या कितने पुरूषों को इस्तेमाल करने दे। बात सही है कि देह उनकी है और मरजी भी उन्हीे की है। वे अपने शरीर की स्वयं मालिक हैं। ऐसे में एक बात जरूर लगती है कि भविष्य में विवाह संस्था कमजोर हो जाएगी और लिव इन रिलेशनशिप का प्रचलन बढ़ जाएगा। हां चल और अचल संपत्ति के हक को लेकर कुछ कानूनी समस्याएं भी उत्पन्न हांेंगी। हो सकता है तब यानी भविष्य में इनका समाधान भी निकल आए।
कुछ बुद्धिजीवी स्त्रियां हैं जो महिलाओं के अधिकारों के प्रति सचेत हैं, समाज हितैषी हैं, नेत्री हैं, सामाजिक कार्यकर्ता हैं, लेखिका हैं, अन्य सामान्य स्त्रियों की मार्गदर्शक हैं, वह क्या स्टैंड लेती हैं, यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि ऐसी स्त्रियों की विचारधारा सामाजिक परिवर्तन में सहायक होती है। उनकी कोई भी गतिविधि सोची-समझी रणनीति के तहत होती है जिससे समाज में सकारात्मक संदेश जाता है। स्त्री अस्मिता एवं मानवीय गरिमा के हेतु ऐसी स्त्रियों के नेतृत्व या देखरेख में कई महिला संस्थाएं अच्छा काम कर रही हैं।
इस सबके बावजूद भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि स्त्री एक खूबसूरत देह भी है। यही कारण है कि फिल्म निर्माता तथा बिजनेस मैन अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए विज्ञापनों में शिक्षित एवं जागरूक स्त्रियों की देह का, उनकी मरजी से, खूब इस्तेमाल करते हैं। उसे आप और हम प्रिंट मीडिया एवं इलेक्ट्रोनिक मीडिया में देखते ही हैं।
आप शायद भूले नहीं हों। इसी वर्ष (2011 में) देश की राजधानी दिल्ली में महिलाओं के ‘बेशर्मी मोर्चा’ द्वारा कनाडा की तर्ज पर स्लट वाक किया गया। जिसमे ंविदेशी युवतियों तथा दिल्ली कॉलेज की युवा लड़कियों ने जुलूस निकाला था। उनका कॉलेज के युवा लड़को ने भी साथ दिया था। उसमें कुछ नारे काबिले-गौर थे। आप भी गौर फरमाईए - ‘बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला’, ‘नजर तेरी बुरी बुर्का मैं पहनूं?’, ‘बेशर्म कौन, तेरी आंखें तेरी सोच’, ‘दिस इज नॉट इन्वीटेशन फोर रेप’ आदि। इस स्लट वॉक पर टिप्पणी करते हुए जनप्रिय लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने जनसत्ता में अपने लेख में टिप्पणी की - ‘‘लड़कियां आपकी बेशर्मी के खिलाफ खड़ी हैं बेशर्मी मोर्चे पर। आपकी बेशर्म नजर, बेशर्म भाषा और बेशर्म सोच को बदलने के लिए चला है यह अभियान।’ इसी प्रकार सुप्रसिद्ध लेखिका आदरणीया रमणिका गुप्ता जी अपने युद्धरत आम आदमी के संपादकीय (अप्रैल-जून 2011) में ‘क्यों नहीं समझते पुरूष - ‘स्त्री मात्र देह नहीं है!’ शीर्षक में लिखती हैं - ‘किसी स्त्री को देखने पर पुरूष उसे ललचाई नजरों से न देखें - यही स्त्री मुक्ति का अभिप्सित है। पर हैरानी की बात तो यह है कि अधिकांश पुरूष स्त्री की सीरत नहीं, ज्ञान नहीं, गुण नहीं, उसकी सूरत व सेक्स के प्रति आकर्षित होते हैं।’
यदि किसी स्त्री की सेक्स अपील के कारण कोई पुरूष उससे बलात्कार करता है तो यह जघन्य अपराध है, इसके लिए कानून में सजा का प्रावधान है, कोई अश्लील टिप्पणी करे तो यह गलत है। इसके लिए भी सजा निर्धारित की गई है। पर जहां तक सेक्स के प्रति आकर्षित और ललचाई या वासना की  नजरों से देखने का प्रश्न है, यह तो स्वाभाविक है। यह प्रकृति प्रदत्त गुण है। प्रकृति ने ही स्त्री पुरूष को ऐसा बनाया है कि वे एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। सामान्य तौर पर आपने भी सुना होगा कि स्कूल-कॉलेज की जवान लड़कियां लड़कों की स्ट्रोंग बॉडी, उनके डोले-शोले की तारीफ करती हैं। दूसरी ओर युवा  लड़के लड़कियों के यौवन के उभारों को देखकर आहें भरते हैं। उन्हें ललचाई या वासना की नजरों से देखते हैं - पर यह स्वाभाविक है। प्रकृति ने पुरूष को स्त्री के एक्टिव पार्टनर के रूप में विकसित किया है। इसीलिए पुरूष ज्यादातर  सेक्स के बारे में ही सोचता है। यह प्रकृति प्रदत्त है। अतः इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती। हां, भारतीय परिवार में लड़को का पालन जिस ढंग से किया जाता है उस से उनका मनोविज्ञान इस प्रकार का बनता है कि उनकी बहन युवा भी है तो भी उसके प्रति वे सेक्स की दृष्टि से नहीं सोचते। पर भाभियों और उनकी बहनों तथा बाकी लड़कियों और महिलाओं के प्रति वे वासना की दृष्टि से ही देखते हैं। क्योंकि महिलाओं के यौवन में कुछ इस तरह का आकर्षण प्रकृति ने विकसित किया है कि अनायास ही वे वासना की नजरों से देखने लगते हैं। पर अधिकांशतः यह क्षणिक आवेश होता है। जैसे सड़क चलती किसी युवा लड़की या महिला आंखों के सामने आ गई तो उसे वासना की नजरों से देखते हुए गुजर गये। उन्हें जब देखा तब देखा फिर भूल गये। वैसे स्त्रियों के यौन आकर्षण पर प्राचीन काल में विद्यापति, बिहारी लाल, कालीदास से लेकर आज तक न जाने कितने कवियों, शायरों ने उनकी प्रशंसा में कसीदे पढ़े होंगे और आगे भी पढ़े जाते रहेंगें। फिलहाल तो मुझे अकबर इलाहाबादी का एक शेर याद आ रहा है कि- ‘ जलाया दिल को तड़पाया जिगर को, खुदा रक्खे सलामत इस नजर को, जवानी मार ही रखती है ‘अकबर’, संभालो दिल को या रोको नजर को।’  पर नजर को रोकना तो संभव नहीं है। हां जजबातों पर नियन्त्रण किया जा सकता है। अतः पुरूष महिलाओं की अस्मिता को आहत न करें, उनके आत्मसम्मान को ठेस न पहुंचाएं, उनकी मानवीय गरिमा का ध्यान रखें। मेरी नजर में उन्हें वासना की दृष्टि से देखना भर कोई अपराध नहीं है। आखिर स्त्री एक खूबसूरत देह भी तो है। पर अति स्त्रीवादी महिलाएं मर्दों की नजर पर भी नियन्त्रण चाहती हैं, क्या ये महिलाओं की पुरूषों पर ज्यादती नहीं है?
संपर्क: 9818482899, 36/13 ग्राउण्उ फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008
छुआछूत और मैला ढोने की प्रथा: आखिर कब तक?
-राज वाल्मीकि
हम भले ही इक्कीसवीं सदी के वर्ष 2010 के वैज्ञानिक युग में जी रहे हों किन्तु ऊंच-नीच पर आधारित जातिवादी व्यवस्था का दंष झेलने को हम दलित आज भी विवष हैं। अब आप सोहनलाल जी का ही उदाहरण ले लीजिए। वे गांव के ठाकुर के यहां से अनाज खरीदने गये। दिल्ली ष्षहर में पले-बढ़े सोहनलाल वाल्मीकि उत्तर प्रदेष के एक गांव में रह रही अपनी दादी के लिए वर्ष भर के खर्च हेतु गेंहू लेने ठाकुर प्रताप सिंह के यहां गये थे। ठाकुर घर पर न होने के कारण उन्हें कुछ देर इन्तजार करने के लिए कहा गया। तो वे वहीं पड़ी ठाकुर की चारपाई पर बैठ गये। ठाकुर जब आया और उन्हें उनकी जाति का पता चला तो चारपाई पर बैठने के कारण वह आग-बबूला हो गया। और उन्हें उनके भंगी होने की औकात बताते हुए फिर कभी ऐसी हिमाकत न करने की हिदायत के साथ बिना अनाज दिए ही भगा दिया। दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ रहे राजेष के साथ भी ऐसा ही वाक्या हुआ। वह गांव जा रहा था। कसबे तक तो बस से पहुंच गया। आगे तांगे से जाना था। पर तांगे वाला किसी वजह से वहां नहीं पहुंचा था। अतः वह पैदल ही गांव की ओर चलने लगा। रास्ते में उसे प्यास लगी। एक मन्दिर के पास कुआं था। वह पानी भरने के लिए कुएं पर चढ़ने ही वाला था कि पंडित जी ने उसे रोक दिया और पूछा - ‘कौन जात हो?’ उसके भंगी बताने पर पंडित जी ने कहा - ‘ भंगियों का कुएं पर चढ़ना मना है। बाल्टी, रस्सी छूना मना है। तुम चाहो तो मैं तुम्हें पानी निकाल कर दे सकता हूं। तुम अंजुरी बना लेना  मैं उपर से डाल दूंगा।’ राजेष इतना अपसेट हुआ कि बिना पानी पिए ही वह गांव की ओर चल पड़ा। इसी प्रकार मेरे एक मित्र राजकुमार ने बताया कि वे राजस्थान के जेसलमेर में गये। वहां उन्होने वाल्मीकियों के चाय के कप अलग रखे देखे। वहां जात पूछ कर ही चाय पिलाई जाती है और जाति के अनुसार ही कप प्रदान किए जाते हैं। वाल्मीकियों के कप में और कोई जाति का व्यक्ति चाय नहीं पीता।
उपरोक्त उदाहरण हैं - अस्पृष्यता यानी छुआछूत के। एक बार मैंने एक गांव के सवर्ण जाति के व्यक्ति (जो मेरी जाति नहीं जानता था) से पूछा - ‘वाल्मीकि (भंगी) जाति के व्यक्यिों से इतनी छुआछूत क्यों की जाती है?’ तो उसने बताया कि - ‘ भाई साहब, ये छोटी जाति के लोग हैं। बहुत गन्दा काम करते हैं। दूसरों का मल-मूत्र उठाते हैं। इनके साथ खान-पान का व्यवहार कैसे किया जा सकता है। ये लोग तो नीच होते हैं।’ मुझे बड़ा अटपटा लगा। उनसे बहस भी हुई। खैर। कहने का तात्पर्य यह है कि मैला प्रथा के कारण समाज में आज भी छुआछूत बरकरार है या कह सकते हैं कि छुआछूत के कारण मैला प्रथा अस्तित्व में है।
यूं तो संविधान और कानून में अस्पृष्यता का अन्त कर दिया गया है और मैला ढोना भी गैर कानूनी है। पर समाज की असलियत क्या है  आप और हम सभी जानते हैं।
छुआछूत की भावना के बारे में अगर हम अतीत में झांके तो स्थिति यह भी थी कि इस समुदाय के व्यक्ति को अने आगे थूकने के लिए मटकी लटकानी पड़ती थी और पीछे झाड़ू बांधनी होती थी। ताकि उसके पैर के निषान पर किसी सवर्ण का पैर न पड़ जाए और वह अपवित्र न हो जाए। उसका मन्दिर में प्रवेष निषेध था  और अभी भी है। दूसरी ओर मनु ने मनुस्मृति (जिसे हिन्दू समाज का एक वर्ग अपना संविधान मानता है) में ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि न केवल उसे षिक्षा से दूर रखा जाए बल्कि गलती से  कोई वैदिक ष्षब्द उसके कान में पड़ जाए तो उसके कानों में पिघला हुआ शीश्षीषा डाला जाए। वैदिक ष्षब्द बोले तो उसकी जबान काट ली जाए। अच्छे कपड़े पहनने पर दण्ड दिया जाए । उसे हमेषा फटे-पुराने कपड़े पहनने चाहिए और भोजन के रूप में जूठन दी जाए। उसे अपना दास या गुलाम बनाकर रखा जाए।
आज के इस आधुनिक युग में भी मनुवाद जिन्दा है। सफाई कामगार समुदाय आज भी ष्षोषित-पीड़ित है। मानवाधिकारों से वंचित है। आज भी उसे गांव के बीच मंे रहने का अधिकार नहीं है।  इसलिए इस समुदाय के घर हमेषा गांव के बाहर होते हैं। इन्हें इज्जत से जीने की मना ही है। अगर कोई समाज में फिर भी ष्षान से जीना चाहने की हिमाकत करता है तो खैरलांजी जैसे काण्डों को अन्जाम दिया जाता है। गौहाना, झज्जर, सालवन, महमदपुर जैसे काण्ड हो जाते हैं। इस समुदाय का कोई युवक किसी सवर्ण जाति की युवती से प्रेम करने जैसा ‘अपराध’ करता है तो उसे सरेआम फांसी पर लटका दिया जाता है। संविधान को ताक पर रखकर ‘मनुस्मृति’ के ‘कानून’ लागू किए जाते हैं।
अतः ऐसे में प्रष्न उठना स्वाभाविक ही है कि क्या हम आधुनिक और वैज्ञानिक तथा ‘ग्लोबल विलेज’ कही जाने वाली इस इक्कीसवीं सदी मंे जी रहे हैं? आज पूरे विष्व में मानव अधिकारों  की बात की जा रही है। ‘ सबको इज्जत के साथ जीने का अधिकार है’ इस बात पर जोर दिया जा रहा है। समता, समानता और सम्मान की बात की जा रही है। और एक हमारा तथाकथित सभ्य समाज है जहां आज भी मैला ढोने जैसा अमानवीय कार्य हो रहा है। एक ओर तो समाज ने इस समुदाय विषेषश् को जान बूझकर इस गन्दे, घृणित और अमानवीय पेषे में ढकेला है। दूसरी ओर  इस गन्दे पेषे के कारण उससे छुआछूत का बर्ताव भी किया जा रहा है। मैला प्रथा के कार्य पर प्रतिबन्ध के बारे में बने कानून (1993) को भी 16 वर्ष हो रहे हैं पर अभी भी यह घृणित प्रथा जारी है। यह न केवल मानव अधिकारों का उल्लंघन है बल्कि मानवता पर भी कलंक हैं। अन्य देष के समक्ष भारत ष्षर्मिन्दा है। प्रष्न अभी भी यही है कि आखिर कब तक हम इस मैला प्रथा को ढोते रहेंगे? कब हम बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की विचारधारा को अपनांएगे? कब हम ‘षिक्षा, संगठन, संघर्ष’ को अपने जीवन में कार्यान्वित करेंगे? कब हमारे सभ्य समाज को मैला प्रथा के इस वीभत्स, घृणित सत्य पर ष्षर्म आएगी? कब? कब? आखिर कब?
ये प्रष्न भले ही अनुत्तरित हों पर सफाई कर्मचारी आन्दोलन ने यह ठाना है कि अब सफाई कर्मचारियों को मैला नहीं उठाना है। बस्स बहुत हो चुका। अब वे नारे लगा रहे हैं  ‘बन्द करो। बन्द करों। मैला प्रथा बन्द करो।’ सफाई कर्मचारी आन्दोलन ने अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया है कि वर्ष दो हजार दस: बस। वर्ष 2010 के अन्त  तक इस अमानवीय प्रथा का अन्त हम करके ही रहेंगे। भारत से 2010 तक मे मैला प्रथा उन्मूूलन का हमारा अभियान जारी है। ताकि यह समुदाय भी आत्मसम्मान, समानता और इज्जत की जिन्दगी जी सके। यदि हमारा सभ्य समाज मानवता में विष्वास करने वाला समाज है तो मानव अधिकारों से वंचित समुदाय को  अपने साथ लाने में हमारे साथ किसी भी प्रकार की मदद कर अपना मानवीय कर्तव्य निभाना चाहता है तथा अपना यथायोग्य सहयोग करने का इच्छुक है और हमारे इस अभियान मे ष्षामिल होना चाहता है तो उसका  तहेदिल से स्वागत है। (लेखक सफाई कर्मचारी आन्दोलन में दस्तावेज समन्वयक हैं)
संपर्क: मो. 9818482899 36/13, ग्राउण्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

दलित विमर्श, दलित साहित्य और पूर्वाग्रह

दलित विमर्श, दलित साहित्य और पूर्वाग्रह

-राज वाल्मीकि

 मैं अपनी बात इस बोध कथा से शुरु करता हूं - ‘ एक बार की बात है। दो राजपुत्र अपने-अपने घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने के लिए जंगल जा रहे थे। वे दोनो एक दूसरे की विपरीत दिशा में थे। रास्ते में एक मन्दिर पड़ा जो रास्ते के किनारे पर बना था। उस मन्दिर के कंगूरेे पर एक भव्य कलश सुशोभित हो रहा था। जब वे दोनो राजपुत्र मन्दिर के निकट पहुंचे तो विपरीत दिशा में होने के कारण एक दूसरे के आमने-सामने आ गये। बीच में मन्दिर था। एक राजपुत्र उस भव्य कलश को देखकर बोला - ‘अहा! यह सोने का कलश कितना सुन्दर है!’ दूसरा राजपुत्र जो उसके सामने मन्दिर की दूसरी तरफ खड़ा था। वह बोला - ‘ चांदी का यह कलश इस मन्दिर की सुन्दरता में चार चांद लगा रहा है।’ यह सुनकर पहला राजपुत्र बोला - ‘ तुम्हें दिखाई नहीं देता कि यह कलश चांदी का नहीं सोने का है।’ दूसरा राजपुत्र बोला-‘ सूरदास तो तुम हो जो चांदी के कलश को सोने का बता रहे हो।’ पहला राजपु़त्र कुछ क्रोधित होकर बोला- ‘तुम क्या समझते हो मैं इतना मूर्ख हूं जो सोने-चांदी का भेद नहीं समझ सकता। यह तो कोई भी बता सकता है कि यह कलश सोने का है।’ पहले राजपुत्र को यह अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ व अपना अपमान लगा। अतः उसने तलवार खींच ली और लड़ने के लिए दूसरे राजपुत्र को ललकारा। दूसरा राजपुत्र भी अपनी तलवार संभालने लगा। तभी एक बुढ़िया पुजारिन पूजा करके मन्दिर से बाहर निकली तो उसने कहा दोनों राजपुत्रों से लड़ने का कारण पूछा। जब बुढ़िया को सब बात पता चली तेा उसने लड़ने से पहले मेरा एक अनुरोध स्वीकार कर लो कि अपना-अपना स्थान बदल लो।’ दोनों राजपुत्रो ने बु़िढ़या के अनुरोध पर अपना-अपना स्थाना बदल लिया। किन्तु स्थान बदलते ही दोनो राजपु़़त्र झेंप गये। तब बुढ़िया ने कहा - ‘ अब तो तुम समझ ही गये होगे कि यह कलश आधा सोने का है और आधा चांदी का। इसलिए हमेशा याद रखो कि किसी बात पर अड़ने से पहले उसका दूसरा पहलू भी देख लिया करो। हो सकता है तुम्हारा विरोधी जो कह रहा है वह भी सही हो। बिना उसकी प्रमाणिकता जाने पूर्वाग्रहवश किसी बात पर अड़े रहना उचित नहीं है।’ यह बोध कथा अपने आप में बहुत कुछ कह जाती है।
दरअसल हम लोग बिना किसी प्रमाण के पूर्वाग्रहवश अपनी बात पर अड़े रहते हैं। कहावत है कि ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ जो प्रत्यक्ष है उसे प्रमाण की आवश्यकता क्या है। और जो प्रमाणित है उसे पूर्वाग्रहवश नकारने में समझदारी क्या है। मैं अपनी बात 11 जनवरी 2010 जनसत्ता में प्रकाशित मस्तराम कपूर के लेख ‘दलित विमर्श के दुराग्रह’ और 12 जनवरी को प्रकाशित ‘दलित साहित्य की सीमाएं’ के सन्दर्भ में कहना चाहूंगा। मस्तराम कपूर जी ख्याति प्राप्त विद्वान लेेखक हैं। उन्हें अच्छे विचारक के रूप में जाना जाता है। पर दुखद है कि दलितों के सन्दर्भ में वे भी पूर्वाग्रहों से  ग्रसित हैं।
 पहली बात तो उन्होने लेख की शुरुआत ही इस वाक्य से की है कि ‘दलित मोटे तौर पर दो श्रेणियों मे विभाजित हैं। मैला ढोने के काम और सफाई के काम से संबंधित और चमड़े के परम्परागत उद्योगों के काम में लगे।’ अफसोस है कि मस्तराम कपूर जी ने शुरु मे ही अपनी संकीर्ण मानसिकता का परिचय दे दिया है। ‘ दलित विभिन्न अनुसूचित जातियों का समूह है, जिनमें अन्य कई जातियो का साहित्य तो अभी आना बाकी है। पर लगता है कि उन्होने दलित साहित्य की प्रसिद्ध कृतियों को पढ़ने की आवश्यकता भी नहीं समझी है जैसे शरणकुमार लिम्बाले की ‘अक्करमाशी’, किशोर शान्ताबाई काले की ‘छोरा कोल्हाटी का’ या लक्ष्मण  गायकवाड़ की ‘उठाईगीर’ आदि। नहीं तो वे इस भ्रम में नहीं रहते कि मैला ढोने और चमड़े के काम में लगे लोग दलित ही हैं। दूसरी बात गांधीजी के बारे में लेखक का यह कहना कि ‘दलित बुद्धिजीवी गांधी को अम्बेडकर के शत्रु के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं या तो लेखक गांधीजी के अंधभक्त हैं और गांधीवादी विचारधारा और अम्बेडकरवादी विचारधारा में अन्तर नहीं जानते या पूर्वाग्रह पाले हुए हैं। सब जानते हैं कि  गांधी जी वर्णव्यवस्था के समर्थक थे। उन्होने अस्पृश्यता निवारण आन्दोलन इसलिए चलाया कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों की सेवा करने वाला यह अतिशूद्र हमेशा इसी प्रकार सेवारत रहे। मैला ढोने का अमानवीय कार्य करता रहे। अपनी मानवीय गरिमा की बात न करे, तथाकथित उच्चजातियों की बराबरी की बात न करे। वह भले ‘हरिजन’ (भगवान के जन) हो पर ऊंची कहे जानेवाली जातियो की निर्विरोध सेवा करता रहे। हां, गांधीजी ये जरुर चाहते थे कि सवर्ण उनसे छुआछूत न करें, उनसे  सहानुभूति रखें। और सवर्ण इन नीच लोगों पर दया भाव बनाए रखें और उसे नीच होने का अहसास भी न हो ताकि ब्राह्मणवादी व्यवस्था का वर्चस्व हमेशा-हमेशा के लिए कायम रहे। गांधीजी उस हिन्दू धर्म के समर्थक थे जो ऊंच-नीच और पितृसत्तात्मक व्यवस्था का समर्थक है। दूसरी ओर अम्बेडकर जाति व्यवस्था को एक ऐसी चार मंजिली ईमारत बताते थे जिसमें सीढ़ियां नहीं हैं। और यह कटु सत्य है जो आज भी कायम है। अम्बेडकर बराबरी की बात करते थे। उनका कहना था कि उत्पीड़ित लोग तथाकथित उच्च जातियों के समान ही बराबर के हकदार हैं। वे भी इस देश के नागरिक हैं। उन्हे बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए। मानवीय अधिकार प्राप्त करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। अम्बेडकर वैज्ञानिक सोच रखते थे। उनका साफ मानना था कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में गुलाम बने उत्पीड़ित लोगों के पास खोने को सिर्फ उनकी बेड़िया हैं। उनका स्पष्ट कहना था कि एक गुलाम को यदि उसके गुलाम होने का अहसास करा दिया जाए तो फिर वह गुलाम नहीं रहेगा। वह गुलामी की बेड़ियांे को तोड़ देगा। यही गांधीवादी विचारधारा और अम्बेडकर की विचारधारा का अन्तर है। गांधीजी दबे-कुचले-उत्पीड़ित-अछूत लोगांे पर दया दिखा रहे थे और उन्हें यथास्थिति में बने रहने को प्रोत्साहित कर रहे थे जबकि अम्बेेडकर उनकी मानवीय गरिमा की बात कर रहे थे। उनको बता रहे थे कि आप भी अन्य लोगों की तरह समान इन्सान हैं। आपके भी ब्राह्मण, क्षत्रियों और वैश्यों की तरह समान मानव अधिकार हैं। इसलिए यहां दलित बुद्धिजीवी व्यक्ति गांधी को शत्रु नहीं मानते बल्कि उनकी उस विचारधारा को शत्रु मानते हैं जो दलितों को गुलाम बनाए रखने की साजिश रचती है।
हां लेखक की यह बात सही है कि ‘अगर दलित पिछड़े वर्गों की समस्याओं का समाधान होना है और जाति व्यवस्था को खत्म करना है तो समाज के सभी प्रगतिशील तत्वों के साथ मिलकर काम करना होगा। दलित अकेले यह बदलाव नहीं ला सकते।’ आज दलितों पर शासन करने वाली तथाकथित उच्च जातियां भी यह सोेचें कि अब समय आ गया है कि हमने जो अवैध रूप से दलितों के हकों  ( देश के संशाधनों) पर कब्जा कर रखा है वो उन्हें वापस दे दें और उनसे बंधुत्व भाव से मिलें। ऊंच-नीच और छुआछूत की भावना को समाप्त करें।  उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि दलित वर्ग अब धीरे-धीरे ही सही जागरुक हो रहा है। अब  उसे और अधिक समय तक दबा कर नहीं रखा जा सकता। अतः समय के साथ चलते हुए हम उन्हें समानता, स्वतन्त्रता, न्याय प्रदान करें और बंधुत्व भाव रहें। उन्हें इन्सान समझें और इन्सान होने का मान-सम्मान दें। यही आज के समय की मांग है। पर हकीकत क्या है इसे जानने के लिए एक उदाहरण 15 जनवरी 2010 के जनसत्ता के पृष्ठ 9 पर दिए शीर्षक ‘दलित युवक को मल खिलाया ऊंची जाति के लोगों ने’ शीर्षक से प्रकाशित खबर पढ़  कर जान लें कि आज भी दलितों की स्थिति क्या है। तमिलनाडु के ंिडंडीगुली जिले के मेइकोविलपट्टी में इंदिरा नगर में रहने वाले सदायंदी के सड़क पर चप्पल पहन कर चलने से ऊंची जाति के लोगो ने पूछा कि क्या उसे इस आदेश की जानकारी नहीं है कि दलित उनकी सड़क पर दलित चप्पल पहन कर नहीं  चल सकते और फिर उसे चप्पल उतारने को कहा। और उसी चप्पल से जमकर उसकी पिटाई की। फिर एक व्यक्ति ने मानव मल लाकर जबरदस्ती उसके मुंह में घुसा दिया। यह आज की सच्चाई है।
जहां तक दलित साहित्य का प्रश्न है तो लेखक कहते हैं कि ‘दलित साहित्य की आम प्रवृति है दूसरों को चिढ़ाना और अपने में घोर निराशा और वितृष्णा पैदा करना।’ लेखका का यह कथन बेबुनियाद है। प्रारंभिक दलित साहित्य स्वयं पर हुए सवर्णों के अत्याचारों का वर्णन जरुर करता है और अत्याचारी के प्रति अपना आक्रोश प्रकट करता है। यह स्वाभाविक है। जब गुलाम जागरुक होता है तो न केवल अपनी गुलामी की बेड़ियां तोड़ता है बल्ेिक उसे गुलाम बनाने वाले पर अपना आक्रोश व्यक्त करता है। किन्तु हास्यास्पद है कि लेखक इसे कितने हलके में लेते हुए कहते हैं कि -‘दलित रचनाएं सवर्णों को संबोधित होती हैं। उन्हें जली-कटी सुनाना ही इनका लक्ष्य होता है...।’ कपूर साहब आप जहां खड़े हैं वहां से यही समझ सकते हैं। पर मैं दुष्यन्त कुमार के शब्द लेकर कहूं तो स्थिति यह है कि ‘रक्त वर्षों से नसों में खौलता है, आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।’ पर आप से ऐसी ही उम्मीद की जाती है। कहावत सच है कि ‘जाके पांव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।’या ॅमंतमत ादवूे ूीमतम जीम ेीवम चपदबीमे कवि ठीक कह गया है कि ‘ लोहे का स्वाद लोहार से नहीं उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।’ सहानु भूति और स्वानुभूति का यही अन्तर है। लेखक का विचार है कि ‘ अपनी दयनीय और हीन अवस्था का चित्रण, नपुंसक क्रोध और द्वेष और वैमनस्य को उत्तेजित करने वाली दृष्टि ही दलित साहित्य की विशेषता बन गई है।’ कपूर साहब ने इस एंगल से नहीं सोचा कि उनकी जो ये दयनीय और हीन दशा क्यों है? खैर। कपूर साहब को विनम्र सुझाव देना चाहूंगा कि वे नये दलित साहित्य को पढ़ें। निश्चित रूप से उनकी यह धारणा बदल जाएगी। क्योंकि दलित साहित्य अब परिपक्व है। कलापक्ष से परिपूर्ण है। स्वतन्त्रता, समता और न्याय की मांग करता बंधुत्व की भावना से प्रेरित मानवीय साहित्य है। वह आपको गरियाता नहीं  बल्कि अपनी मानवीय गरिमा से पूर्ण आपसे बराबरी के स्तर पर हाथ मिलाने का इच्छुक है। दलित मानवतावादी साहित्य है। आवश्यकता है अपने पूर्वाग्रह के चश्में को हटाकर निष्पक्ष भाव से देखने की।
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