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शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

लेख

                                        बदलाव की बयार
                                                                               -राज वाल्मीकि

विचित्र व्यवस्था है हमारे देश की। यहां किसी तथाकथित ऊंची जाति का कुत्ता भी किसी दलित के घर रोटी खा ले तो अछूत हो जाता है! ऐसे में स्कूली बच्चे दलित महिला के हाथ का बना खाना खाने से इन्कार कर दे तो अस्वभाविक नहीं लगता। इस बात पर आश्चर्य जरूर होता है कि सभ्यता के किस युग में जी रहे हैं हम? व्यवस्था की बर्बरता देखिए कि आज भी तथाकथित ऊंची जाति के लोग कच्चे पाखानों में मल त्याग करते हैं और उनके जैसा ही हाड़-मांस का इन्सान दलित और विशेष कर दलित स्त्रियां उन्हें अपने हाथों से टीन और झाड़ू की सहायता से साफ करते हैं। इसे देखकर क्या आप कह सकते हैं कि हम आधुनिकतम और सभ्य हैं? क्या विडम्बना है कि एक तरफ तो राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन कर देश दुनिया भर में वाह-वाही लूट रहा है, स्वयं को आधुनिकतम और सभ्य घोषित कर रहा है। वहीं सदियों पुरानी सड़ी-गली, भेदभाव आधारित अमानवीय जाति व्यवस्था को ढो रहा है। एक ऐसी व्यवस्था को जहां दलित कहे जाने वाले एक वर्ग विशेष को गाय या कुत्ते से भी गया गुजरा समझा जा रहा है। उनकी नजर में पशु (गाय) श्रेष्ठ है और अपने ही जैसे इन्सान (दलित) नीच! सदियों से ऐसा मानकर चला जा रहा है कि दलित व्यक्ति का जन्म तथाकथित ऊंची जातियों की सेवा करने के लिए हुआ है। उनकी गुलामी के लिए हुआ है।



दुनिया के इतिहास में एक समय ऐसा भी था जब काले लोगों को गोरे लोगों की गुलामी करनी पड़ती थी। गुलाम बेचे और खरीदे जाते थे। एन्ड्रोंक्लीज का किस्सा मशहूर है। पर समय के साथ बदलाव आया। काले लोगों को गुलाम समझने वाला अमेरिका आज उन्हें इन्सान समझ रहा है। हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी को अनिवार्य कर दिया गया है। यूं गुलामी मे जकड़ा व्यक्ति गुलामी का अभ्यस्त हो जाता है और उसका मालिक उस पर हुक्म चलाने का। ऐसी परिस्थितयो से उबरना आसान नहीं होता। पर इतिहास साक्षी है कि समय समय पर उनका भी कोई न कोई मुक्तिदाता पैदा हुआ है जो उन्हें उनके गुलाम होने का अहसास करा देता है, चाहे काले लोगों के लिए मार्टिन लूथर किंग हो या दलितों के लिए बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर। जब गुलाम को उसके गुलाम होने का अहसास हो जाता है। उसे भी उसके मालिक जैसा एका इन्सान होने का अहसास हो जाता है तो फिर वह स्वयं गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए छटपटाने लगता है और निरन्तर संघर्ष के बाद उस बेड़ियों को तोड़ने में सफल हो जाता है। जैसा अमेरिका में हुआ है। वहां काले लोग आज मानवीय अधिकारों का लाभ उठा रहे हैं। पर दुखद है कि हमारे देश को भले ही विकासशील देश कहा जाए पर जाति व्यवस्था के कायम होने के कारण आज इक्कीसवीं सदी में भी काफी पीछे चल रहा है।



बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर एवं अन्य दलित हितैषी महापुरूषों के प्रयास से अब दलितों को यह अहसास हो गया है कि जातिवादी व्यवस्था ने उन्हें अपना गुलाम बनाए रखा है। और अब वे अपनी मुक्ति के लिए संघर्षरत हैं। भेदभाव और अन्याय पर आधारित जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ अब आवाजें उठने लगी हैं। दलित साहित्य तो पूरी तरह इस व्यवस्था के विरोध में खड़ा है।



समय परिवर्तनशील होता है। पुणे में दलित करोड़पतियों का सम्मेलन और एन.डी.टी.वी. के रवीश की रिर्पोट पंजाब के दलितों में आई समृद्धि को दर्शाती है। जहां कुछ दलित एक ओर सतत संघर्ष कर अपना व्यवसाय कर करोड़पति हुए हैं। वहीं एन.आर.आई. दलितों के पैसों से ही सही पंजाब में कुछ दलितों का कायाकल्प हुआ है। उनके पास वहां की दबंग कही जाने वाली जाति जाटों की तरह ही दलितों के पास भी शानदार मकान हैं, गाड़ियां हैं। उनके अपने एल्बम हैं। अब ‘छोरा जाट का’ गाने के विकल्प में ‘अत्त चमारां दा’ है। वाल्मीकियों के एल्बम हैं। अब वे शर्म से नहीं बल्कि गर्व से गा रहे हैं हम दलित हैं, चमार हैं, वाल्मीकि हैं पर जाटों से कम नहीं हैं। हम बेशक दलित हैं। पर सवर्णों से उन्नीस नहीं हैं। ये संकेत हैं कि बदलाव की बयार बहने लगी है। आगाज अच्छा है और अंजाम भी निश्चित रूप से बेहतर होगा।



देश की व्यवस्था ने भले ही दलितों को सारे अधिकारों से वंचित कर रखा हो, उनके आर्थिक स्रोतों को हड़प लिया हो। पर दलित अब पीछे मुड़के देखने वाले नहीं हैं। रूकने वाले नहीं हैं। वे शुरू से मेहनतकश रहे हैं। मेहनत से पैसा कमा कर आर्थिक समानता लाएंगे और आर्थिक समृद्धि उनको मानवीय गरिमा दिलाने में बड़ी भूमिका निभाएगी। लेकिन यह तो बस बदलाव की एक छोटी-सी पहल है। पर यह तो कहा ही जा सकता है कि बदलाव की बयार एक अच्छा संकेत है - दलित अस्मिता के लिए उनकी मानवीय गरिमा लिए।



संपर्क: मो. 9818482899, 36/13 ग्राउन्ड फ्लोर, ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली- 110008