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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

                                  
                               चुटकी


तुमने पारित कर दिया शिक्षा का अधिकार

पच्चीस प्रतिशत निर्धन हित, है तुमको धिक्कार

है तुमको धिक्कार, अकल के हो तुम कच्चे

निर्धन संगत से बिगड़ेगें धनवान के बच्चे

कहे ‘राज’ कविराय दाखिला हम नहीं देंगे

सरकारी अधिनियम हमारा क्या कर लेंगे

एक प्रथा कलंक की

एक प्रथा कलंक की

Source:

जनसत्ता, 18 जुलाई, 2010

Author:

राज वाल्मीकि



मानवीय गरिमा पर कलंक

कानूनी तौर पर मैला ढोने की मनाही है। लेकिन सरकारी दावे के उलट देश में अभी भी यह प्रथा कमोबेश जारी है। इसके भीतरी हालात की पड़ताल कर रहे हैं राज वाल्मीकि . . .



इक्कीसवीं सदी का पहला दशक अपने अंतिम पड़ाव पर है। सारी दुनिया में तकनीक का बोलबाला है। तकनीक के कारण ही कहा जा रहा है कि पूरी दुनिया एक गांव में बदल चुकी है। विश्व में मानव अधिकारों की हर जगह चर्चा हो रही है। मानवीय गरिमा के साथ जीना हर मानव का अधिकार है। ऐसे समय में भारत में मैला प्रथा का जारी रहना देश की सभ्यता और तरक्की पर एक बदनुमा दाग की तरह है। यह मानवाधिकार का हनन भी है कि एक मनुष्य का मल अपने हाथों से उठाए। यह अमानवीयता का चरम है। एक ओर राष्ट्रमंडल खेल आयोजित कर भारत विश्व में चर्चा विषय बन रहा है तो दूसरी ओर ऐसी अमानवीय प्रथा देश में कायम है।



सरकारी उदासीनता और प्रशासनिक नाकारेपन की वजह से भारत में आज भी तेरह लाख लोग मैला ढोने के काम में लगे हैं, जिसमें नब्बे फीसद महिलाएं हैं। मैला प्रथा एक तरह से जाति व्यवस्था और पुरुषों द्वारा इन महिलाओं पर थोपी गई हिंसा है। समाज औरतों को हीनता का बोध करा कर उनका निरंतर शोषण करता रहा है। बचपन से ही जाति विशेष की बच्चियों को मैला साफ करने के लिए मजबूर किया जाता है। सवाल यह भी है कि आखिर दलितों में औरतों को ही क्यों मैला उठाना पड़ता है। इसकी शुरुआत तभी हो जाती है जब वह अपनी मां के साथ शौचालय मालिकों के यहां रोटी लेने जाती है और बाद में वह जिंदगी भर इसी काम में लगी रहती है। वह पढ़ाई-लिखाई से दूर हो जाती है। इसलिए वह अपने हकों के लिए जागरूक नहीं हो पाती। उसका आत्मसम्मान खो जाता है। पिता के यहां भी और शादी के बाद ससुराल में भी वह यही काम करने के लिए मजबूर रहती है।



इस प्रथा के बरकरार रहने के पीछे शासन और प्रशासन की जाति आधारित बनावट को भी समझना होगा। प्रशासनिक सेवाओं में ज्यादातर उच्च जाति के लोग हैं। इन सेवाओं में दलित वर्ग के लोग भी आए हैं, लेकिन वे व्यवस्था का हिस्सा बन कर रह गए हैं। 1993 में मैला प्रथा उन्मूलन के लिए एक कानून बना, लेकिन शासन-प्रशासन की इच्छाशक्ति की कमी के कारण इनको सही तरीके से लागू नहीं किया गया। मैला प्रथा मोटे तौर पर तीन तरह की होती है। निजी शुष्क शौचालयों की सफाई, सार्वजनिक शुष्क शौचालयों की सफाई और रेलवे ट्रैक पर गिरे मानव मल की सफाई।



इस प्रथा को रोकने के लिए बना कानून क्यों सही ढंग से लागू नहीं हो पाता। इसके लिए एक उदाहरण ही काफी होगा। हरियाणा में सफाई कर्मचारी आंदोलन के राज्य संयोजक के एक अधिकारी से मैला संबंधी जानकारी मांगने पर उस अधिकारी का लिखित बयान आया ‘हमारे यहां सफाई कर्मचारी शुष्क शौचालय तो साफ कर रहे हैं, लेकिन यहां सिर पर मैला उठाने का कार्य कोई नहीं करता।’ यह लिखित बयान है। यानी कि ऐसे अधिकारियों के दिमाग में यह बात रच-बस गई है कि इंसान द्वारा दूसरे इंसान का मल-मूत्र साफ करना घृणित और अमानवीय कार्य नहीं है।



कानून बनने के बाद इस कार्य पर प्रतिबंध लगाने की बात आती है तो वे यही कहते हैं कि पारंपरिक रूप से यानि सिर पर मैला ढोने का कार्य अब नहीं होता। ऐसे अधिकारियों के बूते ही ‘1993 अधिनियम’ को लागू करने की बात सरकार करती है। जबकि अधिनियम के अनुसार किसी भी प्रकार के शुष्क शौचालय को इंसान से साफ करवाना प्रतिबंधित है और अपराध की श्रेणी में है। अगर कोई शुष्क शौचालय मालिक इस कार्य को किसी सफाई कर्मचारी से करवाता है तो उस पर दो हजार रुपए जुर्माना या एक साल की कैद या दोनों हो सकती है। विडंबना यह है जिन अधिकारियों पर इस अधिनियम को लागू करने की जिम्मेदारी है, वे खुद इसके बारे में ठीक से नहीं जानते।



भारतीय समाज में सफाई कर्मचारियों की पहचान बचपन से ही होने लगती है। सफाई कर्मचारियों के परिवार में भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनकी यह पहचान स्वीकृत हो चली है कि वे सफाई कर्मचारी हैं। अगर कोई कभी उनसे सफाई से संबंधित कार्य के बारे में पूछता है तो वे बताते हैं कि यह हमारा काम है। ‘हमारा’ काम का मतलब क्या है? क्या सफाई का काम सिर्फ भंगी समुदाय का है। इसे पीढ़ी दर पीढ़ी दलित समुदाय पर किसने थोपा? इस पर विचार होना चाहिए। वे ऐसा क्यों बोलते हैं कि यह ‘हमारा काम है’ अगर इसे वे हमारा काम बोलेंगे तो इसे छोड़ेगे कैसे? ऐसा मानना भी एक प्रकार का जातिवाद है और वे अपना शोषण कराने में खुद भी शामिल हो जाते हैं।



आंबेडकर के अनुसार तो यह समुदाय जाति-व्यवस्था में शामिल ही नहीं है, बल्कि इससे बाहर और अछूत है। यह अछूतपन सिर्फ उनकी समस्या नहीं, लोकतंत्र और सभ्य नागरिक समाज की समस्या है।



मानव मल साफ करना क्या कोई रोजगार है? उसके बदले उसे दस या बीस रुपए हर महीने या एक बासी रोटी रोज मिलती है। क्या इसे मजदूरी कहा जा सकता है? क्या यह उचित है? क्या यह सफाई कर्मचारी महिला का शोषण नहीं है? क्या यह उसके आत्म-सम्मान को कुचलना नहीं है?



सरकार की उदासीनता का आलम यह है कि हरियाणा के दो जिलों को छोड़ कर अभी तक किसी भी शुष्क शौचालय मालिक को इस अधिनियम के तहत सजा नहीं मिली। सरकार का कहना है कि उसने सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं, जिसके लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों को करोड़ों रुपयों का अनुदान देती है। लेकिन सफाई कर्मचारियों की हालत जस की तस बनी हुई है। इतना ही नहीं, इस कानून को बनाने वाली सरकार के ही कई विभागों में यह काम चल रहा है, जैसे पंचायतों और नगर निगम और रेलवे में। एक ओर सरकार कानून बना रही हैं और दूसरी ओर स्वयं शुष्क शौचालय को साफ करने के लिए कर्मचारियों को नियुक्त कर रही है। सरकारी अफसर जान-बूझ कर मैला ढोने के कार्य से इनकार करते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि अगर वे इसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं तो सजा भी उन्हें स्वयं भुगतनी होगी।

सरकारी उदासीनता और प्रशासनिक नाकारेपन की वजह से भारत में आज भी तेरह लाख लोग मैला ढोने के काम में लगे हैं, जिसमें नब्बे फीसद महिलाएं हैं। मैला प्रथा एक तरह से जाति व्यवस्था और पुरुषों द्वारा इन महिलाओं पर थोपी गई हिंसा है। समाज औरतों को हीनता का बोध करा कर उनका निरंतर शोषण करता रहा है। बचपन से ही जाति विशेष की बच्चियों को मैला साफ करने के लिए मजबूर किया जाता है। थोपे गए इस पेशे की वजह से लाखों महिलाएं शोषित हैं। महिला संगठनों को भी इनकी सुध नहीं है। जबकि सफाईकर्मी महिलाओं का विकास इस काम से मुक्ति के बाद ही हो सकता है। तभी समाज भी तरक्की कर सकता है। आंबेडकर का मानना था कि अगर आप किसी समाज की उन्नति देखना चाहते हैं तो पैमाना यह होना चाहिए कि उस समाज की महिलाओं ने कितनी प्रगति की है। उन्होंने यह भी कहा था कि भूखे रहने पर भी यह गंदा पेशा छोड़ देना चाहिए। ऐसे में अगर सभ्य समाज के लोग स्वयं को सभ्य नागरिक कहलाना चाहते हैं तो यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे थोपे गए पेशे को बंद करवाएं और सफाईकर्मी महिलाओं का शोषण बंद करें। उन्हें कोई अच्छा पेशा दिलाया जाए ताकि वे इज्जतदार जिंदगी व्यतीत कर सकें। सुखद यह है कुछ महिलाओं में अब यह जागरूकता आई है और वे खुद कह रही हैं कि हम शोषण बर्दाश्त नहीं करेंगे और मैला भी नहीं उठाएंगे। सफाई कर्मचारी महिलाओं में से अनेक महिलाएं स्वयं आगे बढ़ कर अपने जैसी काम करने वाली महिलाओं की भी अगुआई कर रही हैं। अब वे खुद आगे आकर सरकारी कार्यालयों के सामने मैला ढोने की टोकरियां जला रही हैं और पुनर्वास के अपने अधिकार के लिए नारे लगा रहीं हैं कि “मैला प्रथा बंद करो, बंद करो। पुनर्वास का प्रबंध करो।”



सफाई कर्मचारी आंदोलन बीस सालों से अभियान चला रहा है। यह अभियान भारतीय समाज को बेहतर बनाने के लिए उस सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ है जहां एक इंसान दूसरे इंसान का मल-मूत्र साफ करने के लिए अभिशप्त है। भारत में तेरह लाख लोग सफाई कर्मचारियों का जीवन जीने को मजबूर हैं। अभियान की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दिसंबर 2004 में एक जनहित याचिका भी दायर की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों को आदेश दिया कि वे मैला प्रथा निषेध अधिनियम 1993 को सख्ती से लागू करें। इसके अलावा संबंधित कानून की उपेक्षा करने और इस संबंध में उचित कदम न उठाए जाने और प्रशासनिक लापरवाही की वजह बताएं। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि इस प्रथा के उन्मूलन के लिए समयबद्ध कार्यक्रम बनाए जाएं और मैला ढोने के कार्य से जुड़े सफाई कर्मचारियों का पुनर्वास किया जाए।



अगर 2010 तक मैला प्रथा उन्मूलन के लक्ष्य को पाना है तो नई रणनीति, समर्पित संगठनों और लोगों की जरूरत है। सरकारें अगर राष्ट्रमंडल खेलों के लिए समयबद्ध योजना बना और लागू कर सकती हैं तो इस गंदी प्रथा के खिलाफ अभियान क्यों नहीं चला सकतीं। मैला प्रथा उन्मूलन और सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए सरकार ने 1990 में कुछ कदम उठाए थे। उस समय इसे मिटाने की समय सीमा 1995 तय हुई थी।



बाद में इसे बढ़ा कर 1998 कर दिया गया। फिर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने वादा किया कि वे 2000 तक इस प्रथा का जड़ से खात्मा कर देंगें। तब से लेकर आज तक इसकी समय सीमा बढ़ती ही जा रही है। इस प्रथा को बनाए रखने में भ्रष्ट नौकरशाही का बड़ा हाथ है। दलितों में भी दलित इस समुदाय को लेकर कहीं से संवेदनशील नजर नहीं आते।

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

समय का सच यही है

गलत जो है सही है, अनैतिक कुछ नही है

बात ये जच रही है समय का सच नही है


मत बोलो कि जनता खुश नही है,यहां से देखो उसका दुख नही है

खुदा जाने ये कैसा तिलिस्म, व्यवस्था रच रही है



दलित की भी है इज्जत, है नारी की अस्मिता

उन्ही के सम है लेकिन उन्हें नही पच रही है



गरीबी डस रही है, मुफलिसी हंस रही है

गनीमत है कि फिर भी ये इज्जत बच रही है



उसे ऐसा दिखाया जा रहा है, नही ऐसी है जैसी दिख रही है

न जाने किन हाथों में होगी डोर इसकी, ये पुतली सामने जो नच रही है



है ये अंधी दौड़ कैसी, भीड़ को रौंद कर भी

आगे बढ़ रही है, ये भागमभाग कैसी मच रही है

समय का सच यही है



संपर्क: 9818482899

36/13 ग्राउण्ड फ्लोर

ईस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

हमारी पीर को यारो न ये समझे न वो समझे

                                                                                                                                        -राज वाल्मीकि



हमारे भारतीय समाज में अंधविश्वासों एवं रुढ़िवादिता को बहुत महत्व दिया जाता है। स्थिति यह है कि शिक्षित वर्ग भी इनका पालन करता है - परम्परा के नाम पर तीज-त्योहार एवं शादी-विवाह के मौके पर इन्हें अक्सर देखा जा सकता है। हमारे वाल्मीकि भाई-बहन तो कुछ ज्यादा ही अंधविश्वासी हैं। प्रायः देखा जाता है कि वाल्मीकि समाज में किसी के बीमार होने पर लोग डॉक्टर के इलाज के बजाय देवी-देवताओं एवं पूजा-पाठ को अधिक महत्व देते हैं। हमारे देवी-देवता भी विचित्रा प्रकार के होते हैं जो मरीज को ठीक करने के एवज में मुर्गा अथवा सूअर की बली मांगते हैं। इतना ही नहीं वे पीने के लिए शराब भी मांगते हैं। अब ये अलग बात है कि देवताओं को रक्त की धार एवं दो चार बूंद शराब चढ़ा देने के बाद भगत (जिस के सिर पर देवता आते हैं) और उसके संगी-साथी शराब पीकर व मीट खाकर मस्त हो जाते हैं। भले ही मरीज मर जाए या मरीज के घरवाले कर्ज में डूब जाएं - उनकी बला से।



इसी तरह मर्हिर्ष वाल्मीकि की जयन्ती हमारे वाल्मीकि भाई-बहन बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं । हजारों-लाखों रुपये खर्च करते हैं किन्तु यह जानकर अफसोस होता है कि वे मर्हिर्ष वाल्मीकि से सही प्रेरणा नहीं लेते ( मर्हिर्ष वाल्मीकि का हमारे वाल्मीकि (भंगी) समाज से कोई लेना-देना है या नहीं यह विवाद का विषय है और यहां मेरा उद्देश्य वाल्मीकि पर बहस करना नहीं है इसलिए मैं इस विषय पर बात नहीं करुंगा।) कुछ लोग कहते हैं कि मर्हिर्ष वाल्मीकि की कलम को वाल्मीकियों ने झाड़ू बना लिया है और सफाई कार्य में लिप्त हैं। यह स्थिति वाकई दुखद है। हम अपने बच्चों को प्रेरित करें कि वाल्मीकि की कलम से प्रेरणा लेकर अधिकाधिक शिक्षित होकर स्वयं प्रगति करें और सम्मान से जीना सीखें तथा अपने समाज को दयनीय दशा से उबारें। उन्हें सम्मान से जीना सिखाएं। उनमे स्वाभिमान जगायें। मर्हिर्ष वाल्मीकि का जन्मोत्सव मनाने वाली संस्थाओं से मेरी विनती है कि वे इस अवसर पर वाल्मीकि समाज के मेधावी छात्रा-छात्राओं को पुरस्कृत करें ताकि उन्हें शिक्षित होने हेतु प्रोत्साहन मिले। अब समय आ गया है कि वाल्मीकि समाज के हाथ में झाड़ू नहीं बल्कि कलम होनी चाहिए।



हमारे बहुत से वाल्मीकि भाई-बहन ऐसे हैं जो धार्मिक कर्म-काण्डों में डूबे हुए हैं। वे निरंकारी बाबाओं, आशाराम बापुओं तथा अन्य अनेक ऐसे ही धर्मगुरुओं की शरण में जाकर अपने धन एवं समय की बरबादी करते हैं। वे बाबाओं के प्रति अंधश्रृद्धा रखते हैं और उन्हें भगवान से कम नहीं मानते। नियमितरूप से सत्संग में जाते हैं। ऐसे लोगों की मूर्खता से बाबा खूब लाभ उठाते हैं और इन से दान-पूजा के नाम पर मिले पैसे से ऐश करते हैं। कई बार हमारे ये भाई-बहन सत्संगों में बाबाओं की शरण में जाकर इस बात से धन्य हो जाते हैं कि वहां उन्हें उनकी जाति की वजह से नीच नहीं समझा जा रहा है उन्हें सम्मान दिया जा रहा है। किन्तु वहां की हकीकत भी यही होती है कि उन्हें कोई भी उच्च पद नहीं दिया जाता है। जातिवादी इस समाज व्यवस्था में ऊंचा पद तथाकथित ऊंची जाति वालों को ही दिया जाता है। पर हमारे भाई इसी खुशफहमी में जीते हैं कि अब उन्हें सम्मान मिलने लगा है और वे तन-मन-धन से इन बाबाओं की सेवा में अर्पित रहते हैं।



भगवानों और माता रानियों की पूजा करने मे भी इनका कोई जवाब नहीं। इसका प्रमाण है कि हमारे वाल्मीकि भाईयों-बहनों के घर-घर में मन्दिर मिल जाएंगे। नवरातों का व्रत रखने वाले, कांवर ले जाने वाले हमारे बहुत से भाई-बहन मिल जाएंगे। पर यथार्थ यही है कि इस में वे अपना मेहनत से कमाया पैसा और अमूल्य समय की बरबादी करते हैं। वरना वे अपने विवेक से निर्णय करंे और बताएं कि इतना कुछ करने पर भी भगवान ने उन्हें क्या दिया? सुधीर कुमार परवाज के शब्दों में कहें तो -



ये पत्थर है इसे मत पूज ये वरदान क्या देगा

ये अंधा है ये बहरा है ये तुझ पर ध्यान क्या देगा

हमें खुद अपने जीवन के सभी दुख दूर करने हैं

दुखों से हमको छुटकारा भला भगवान क्या देगा



हमारे भारतीय समाज की बड़ी विडम्बना है कि इस में सही व्यक्ति को कभी सही सम्मान नहीं दिया जाता है । हमारा दलित समाज जितनी मेहनत करता है, समाज के प्रति अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, मगर फिर भी आदर के योग्य नहीं समझा जाता। हमारे सफाई कामगारों का उदाहरण हमारे सामने है। सफाई कामगार समुदाय समाज में साफ-सफाई रख समाज को स्वच्छ व स्वस्थ रखता है। उसके इस उत्कृष्ट कार्य हेतु न केवल उसे उचित पारिश्रमिक बल्कि उपयुक्त सम्मान मिलना चाहिए। पर यथार्थ इसके ठीक उल्टा है। समाज में उसे नीच समझा जाता है। हेय-दृष्टि से देखा जाता है। उसे सम्मान के योग्य नहीं समझा जाता। दूसरी ओर ब्राह्मण/पंडित

/पुजारी आलसी श्रेणी के व्यक्ति हैं। परिश्रम करने में इनका विश्वास नहीं है। पूजा-पाठ /कर्मकाण्डों/धार्मिक अनुष्ठानों के नाम पर लोगों को मूर्ख बनाकर पैसा कमाना ही इनका ध्येय है। इस तरह के व्यक्ति को उनके आलस व लोगों को मूर्ख बनाने के लिए नीच एवं घृणा के योग्य समझा जाना चाहिए। किन्तु सच हमारे सामने है कि ऐसा व्यक्ति सम्मान के योग्य समझा जाता है। उसे आदरणीय कहा जाता है। पूज्यनीय माना जाता है।



अतः इस समय में हमारा यह दायित्व बनता है कि हम न केवल अपने श्रम के महत्व को समझे बल्कि अपने समुदाय के लोगों को समझाएं भी। इतना ही नहीं हम तथाकथित सभ्य समाज को भी चेताएं कि वह हमारे श्रम का सम्मान करें। हमारा महत्व समझे। किन्तु इसके लिए हमें स्वयं जागरुक होना होगा। अपने समाज को जागरुक करना होगा। हमें धर्मकाण्डो, कर्मकाण्डों, अंधश्रृद्धा, अंधविश्वासों से मुक्त होना होगा। धर्म की अफीम की बेहोशी से हमें जाग्रत होना होगा। हमें तथाकथित सभ्य समाज को भी यह अहसास दिलाना होगा कि हम भी मनुष्य हैं और उनसे किसी भी तरह उन्नीस नहीं है। अतः हमें भी समाज में समता चाहिए, सम्मान चाहिए। बराबरी का दर्जा चाहिए। सभी जातियों के मनुुष्यों को भेदभाव कराने वाली/ऊंच-नीच बनाने वाली इस जाति व्यवस्था से ऊपर उठकर आपसी मानवीय प्रेम, सद्भावना, अपनत्व को अपना कर मानवता की बुनियाद को मजबूत करना होगा। तभी ये देश गर्व करने के योग्य होगा। हमारा समाज एक सभ्य समाज कहलाने का हकदार होगा।



किन्तु अभी का यथार्थ इसके विपरीत है। आखिर कब तक हम जाति और लिंग के आधार पर भेदभाव का दंश सहते रहेंगे। हमारे दर्द को , हमारी पीर को लोग कब समझेंगें? अभी तो मैं महेन्द्र मोहनवी के शब्दो में यही कह सकता हूं कि -



नयन के नीर को यारो न ये समझे न वो समझे

हमारी पीर को यारो न ये समझे न वो समझे

इन्होंने कर दिया अंधा उन्होंने कर दिया बहरा

मिरी तासीर को यारो न ये समझे न वो समझे

कहीं है भाग्य का रोना, कहीं तकदीर में उलझे

मगर तदबीर को यारो न ये समझे न वो समझे

पुस्तक समीक्षा - मां मुझे मत दो - कवियत्री पूनम तुषामड

पुस्तक-समीक्षा




जातीयता और पितृसत्ता की विरासत ‘मां मुझे मत दो’



-राज वाल्मीकि


















मुकेश मानस की कविता की कुछ पंक्तियों को उद्धृत कर अपनी बात षुरु करता हूं - ‘उसने मेरा नाम नहीं पूछा, काम नहीं पूछा, सिर्फ पूछी एक बात, क्या है मेरी जात, मैंने कहा इन्सान, उसके होठों पर थी कुटिल मुस्कान’ मुस्कान का कारण स्पष्ट था। क्योकि उसने सदियों से दलित वर्ग को इन्सानी हकों से महरुम कर जलालत और अपमान के दोजख मे ढकेल कर पशुओं से भी बदतर स्थिति में पहुंचा दिया। सदियों तक वह इस अमानवीय स्थितियों से मुक्ति हेतु छटपटाता रहा। पर मनुवादी व्यवस्था ने उसकी आवाज छीन ली थी। घुट-घुट कर मर-मर कर जीने को छोड़ दिया था। ऐसे में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने न केवल उस दोजख से दलितों को मुक्ति का रास्ता दिखाया बल्कि उस दलित वर्ग को बोलने को प्रेरित किया जो अब तक मूक/गूंगे बने हुए थे। जब इस वर्ग को बोलने लिखने-पढ़ने का मौका मिला तो वह चाहे आत्मकथाओं में हो, कहानियों में हो, लेखों में हो, या कविताओं में हो, वह अपनी अभिव्यक्ति देने लगा। इससे वह न केवल अपने दर्द को बयां करने लगा बल्कि अपना आक्रोष भी व्यक्त करने लगा तथा मानवीय गरिमा के खिलाफ किसी भी प्रकार के उत्पीड़न व भेदभाव के खिलाफ उसकी कलम चलने लगी। और न्याय की मांग करने लगी।



आज की चर्चित कवियत्री पूनम तुषामड़ ने भी अपने प्रथम कविता संग्रह ‘मां, मुझे मत दो’ के माध्यम से जातीयता और पितृसत्ता के खिलाफ अपने विचार व्यक्त किए हैं। उनकी कविताएं इस व्यवस्था से सीधे-सीधे सवाल करती हैं -



‘ वे बताते हैं -

हम हरिजन हैं

हरिजन यानी हरि के जने

तो फिर हम और तुम सजातीय हुए

फिर तुम्हारी आराधना और हमारा तिरस्कार क्यांे?

आखिर यह प्रपंच क्यों?



वे विद्रूपताओं को प्रस्तुत कर इस तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था से पूछती हैं -



गौर सेे निहारो/वक्त के थपेड़ों से/असमय ही बूढ़ी और जर्जर काया को

जो आज भी तुम्हारी व्यवस्था को/मैले के रूप में ढोती है/

एकबार में न जाने कितने आंसू रोती है/...बताओ कि /

तुम्हारे लोकतन्त्र की /कौन-सी तस्वीर उभरती है इनमें?



इतना ही नहीं कवियत्री पूनम तुषामड़ जानती है कि अनपढ़/अषिक्षित दलितों की आंखों पर धर्म, पुनर्जन्म, अंधविष्वास और ईष्वर के नाम की पट्टी बांध दी गई है जिससे वे कभी अपनी मानवीय गरिमा, समानता और न्याय की मांग न कर सकें। इसीलिए कवियत्री ईष्वर और देवता के विरोध में लिखती है -



‘ हे देव! मुझे नहीं चाहिए/तुम्हारे इस भव्य मंदिर में प्रवेष/

नहीं चाहिए तुम्हारा दर्षन और प्रसाद/

क्योंकि तुम पत्थरों की इस सुन्दर इमारत में रखे/

गढ़े हुए पत्थर हो/

और मैं पत्थरों के बीच/पत्थर नहीं होना चाहती।



कवियत्री की नजर उपेक्षित/तिरस्कृत लोगो पर फोकस हुई है और उसने लाईट उठाने वाले, बाल मजदूर तथा सफाई कर्मचारियों पर ‘लाईट उठाने वाले’, ‘एक प्रष्न’, ‘अम्मां’, ‘एक मृतक का बयान’ आदि मार्मिक कविताएं लिखी हैं। और उन पात्रों से व्यवस्था पर सवाल भी उठवाये हैं जैसे ‘एक मृतक के बयान’ में सफाई कर्मचारी कहता है -



‘मैं पूछता हूं -

क्या यही है

मेरे हिस्से का भारत?

जो है निरन्तर

प्रगति पथ पर अग्रसर!’



कवियत्री की नजर सिर्फ जातीय उत्पीड़न/भेदभाव तक ही सीमित नहीं है। वह इस समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था पर भी उंगली उठाती हैं। इसे उनकी ‘बेदखल’ कविता में देखा जा सकता है। कवियत्री समता और सम्मान की चाहत करती हुई ‘एक मुट्ठी आसमां’ कविता में कहती हैं -

मुझे चााहिए समता और सम्मान/

नहीं चाहिए/तुम्हारी दया, करुणा और सहानुभूति/

जिसका कर के गुमान/तुम बनते हो महान



यूं तो पूनम तुषामड़ की कविताएं पूरी की पूरी अम्बेडकरवादी विचारधारा से जुड़ी हैं। पर उन्होंने ‘एक लड़ाई’ और ‘हमने छोड़ दिए हैं गांव’ मे इसे स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। बाबा साहब ने कहा है कि यदि वंचित वर्ग अपनी मुक्ति चाहते हैं तो उन्हें गांव छोड़ देने चाहिए। पूनम जी की कविताओं में भी इस वंचित वर्ग के लोग कहते हैं -



हमने छोड़ दिए हैं गांव/तोड़ दिया है नाता/

गांव के/कुएं, तालाब/मन्दिर और चौपाल से/

जो अक्सर हमें/मुंह चिढ़ाते/नीच बताते/

और कराते हैं जाति का अहसास।



जहां तक इस संग्रह के षिल्प और कलापक्ष का प्रष्न है तो कवियत्री का उद्देष्य सीधे औैर प्रभावषाली ढंग से अपनी बात रखना रहा है। वे प्रतीकों और बिम्बों में नहीं उलझी हैं। जहां कहीं प्रतिमान आंए भी हैं तो आज के संदर्भ मंे आए हैं। जैसे चांद मुझे है भाए अम्मा में चांद उन्हें रोटी जैसा लगता है।



इस संग्रह की षीर्षक कविता ‘मां, मुझे मत दो’ व्यवस्था के नकार की कविता है। जहां नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से स्पष्ट कहती है कि तुमने जो अब तक जातीयता के दंष और पितृसत्ता के भेद झेले हैं वो विरासत में मुझे मत दो।



निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि युवा कवियत्री पूनम तुषामड़ की कविताएं भारतीय समाज की जातिवादी व्यवस्था, सामंतवादी मूल्यों तथा पितृसत्ता के खिलाफ विद्रोह करने के साथ ही पीढ़ियों से चली आ रही कुरीतियों, अंधविष्वासों तथा रुढ़ियों पर प्रहार करती हैं। विषेष बात यह है कि इस संग्रह की कविताएं मानवीय मूल्यों एवं स्त्री-पुरुष समानता की वकालत करती हैं।



संपर्क: 9818482899

36/13 ग्राउण्ड फ्लोर

ईस्ट पटेल नगर

नई दिल्ली-110008